नई दिल्ली : एक दुर्लभ बीमारी की जटिलताओं (Rare disease complications) को ध्यान में रखते हुए हाईकोर्ट ने महिला को 30 सप्ताह से अधिक समय के भ्रूण को नष्ट करने की अनुमति दे दी. माना जा रहा है कि यदि महिला को गर्भावस्था जारी रखने के लिए मजबूर किया जाता है, तो वह हाई रिस्क की बाधाओं के डर में रहेगी.
उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि शिशु जीवित पैदा भी होता है, तो भी मां को यह जानकर भारी पीड़ा होगी कि बच्चा कुछ महीनों के भीतर मर सकता है. न्यायमूर्ति रेखा पल्ली ने कहा कि इस स्तर पर गर्भावस्था को समाप्त करने में याचिकाकर्ता के लिए कुछ जोखिम हैं. लेकिन चिकित्सकीय राय के आलोक में विचार किया जाए तो यह स्पष्ट है कि भ्रूण एक दुर्लभ गुणसूत्र विकार से पीड़ित है.
सुनवाई में मौजूद महिला ने अदालत को बताया कि उसे प्रक्रिया में शामिल जोखिमों के बारे में बताया गया है. इस प्रकार मुझे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि यह एक उपयुक्त मामला है जहां याचिकाकर्ता को उसकी पसंद की चिकित्सा सुविधा पर उसकी गर्भावस्था की चिकित्सा समाप्ति से गुजरने की अनुमति दी जानी चाहिए.
अदालत ने अपने आदेश में कहा कि यह उल्लेख नहीं है कि बच्चा इतनी बड़ी असामान्यताओं के साथ पैदा होगा कि एक सामान्य जीवन जीना कभी भी एक विकल्प नहीं हो सकता. इस प्रकार बच्चे को गंभीर कठिनाई होंगी और याचिकाकर्ता को अत्यधिक मात्रा में खर्च करना पड़ सकता है. मानसिक, भावनात्मक और यहां तक कि वित्तीय संकट से भी जूझना पड़ेगा.
याचिका के अनुसार भ्रूण न केवल एडवर्ड सिंड्रोम (ट्राइसोमी 18) से पीड़ित था बल्कि गैर-अस्थिीकृत नाक की हड्डी और द्विपक्षीय पाइलेक्टासिस से भी पीड़ित था. चिकित्सकीय राय के अनुसार यदि गर्भावस्था को उसके तार्किक निष्कर्ष पर ले जाया जाता है तो बच्चे के एक वर्ष से अधिक समय तक जीवित रहने की संभावना न के बराबर है.
वकील ने कहा कि एमटीपी अधिनियम महिलाओं को 24 सप्ताह की गर्भावस्था अवधि के बाद भी अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देता है. यदि यह पाया जाता है कि इसे जारी रखने से उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर चोट पहुंचने की संभावना है.
अदालत के कहने पर महिला और उसके भ्रूण की जांच के लिए एक मेडिकल बोर्ड का गठन किया गया और रिपोर्ट के साथ जुड़े तथ्य के अनुसार पहले वर्ष में ऐसे 80 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु हो जाती है.