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सांसदों/विधायकों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों को वापस लेने के लिए कोर्ट की मंजूरी जरूरी : SC - वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा है कि सरकारों को सांसदों/विधायकों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों (criminal cases filed against MPs/MLAs) को वापस लेने से पहले संबंधित उच्च न्यायालय की मंजूरी लेनी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट
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Published : Aug 25, 2021, 3:56 PM IST

Updated : Aug 25, 2021, 4:01 PM IST

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बुधवार को कहा कि सरकारों को सांसदों/विधायकों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों (criminal cases filed against MPs/MLAs) को वापस लेने से पहले संबंधित उच्च न्यायालय की मंजूरी लेनी चाहिए.

मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना (chief justice N.V. Ramana) की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि शीर्ष अदालत ने जोर देकर कहा कि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन (malicious prosecution) के मामलों को वापस लेने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन उच्च न्यायालय को ऐसे मामलों की जांच करनी चाहिए.

उन्होंने कहा, 'दुर्भावनापूर्ण अभियोजन होने पर हम मामलों को वापस लेने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन इसकी उच्च न्यायालय में न्यायिक अधिकारी (judicial officer ) द्वारा जांच की जानी चाहिए. यदि उच्च न्यायालय सहमत है, तो मामलों को वापस लिया जा सकता है.'

शीर्ष अदालत अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही है, जिसमें जघन्य अपराधों में दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने और उनके मुकदमों का शीघ्र निपटारा करने का अनुरोध किया गया है.

मामले में न्याय मित्र के रूप में नियुक्त वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया ने शुरुआत में पीठ को बताया कि जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों पर सीबीआई और ईडी की स्थिति रिपोर्ट 'परेशान करने वाली' और 'चौंकाने वाली' है.

मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया (Senior advocate Vijay Hansaria) नेशीर्ष अदालत में एक रिपोर्ट दायर की है. इस मामले में वकील स्नेहा कलिता (advocate Sneha Kalita) ने उनकी मदद की है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य सरकार ने न्याय मित्र को सूचित किया है कि 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों (Muzaffarnagar riots of 2013 ) से संबंधित 510 मामले मेरठ क्षेत्र के पांच जिलों में 6,869 आरोपियों के खिलाफ दर्ज किए गए थे. इनमें से 175 मामलों में चार्जशीट दाखिल की गई, 165 मामलों में अंतिम रिपोर्ट पेश की गई और 170 मामलों को खारिज कर दिया गया.

सरकारी आदेश में सीआरपीसी की धारा 321 के तहत (under Section 321 of CrPC) मामला वापस लेने का कोई कारण नहीं बताया गया है. इसमें केवल इतना कहा गया है कि प्रशासन ने पूरी तरह से विचार करने के बाद विशेष मामले को वापस लेने का फैसला किया है.

न्याय मित्र ने रिपोर्ट में कहा कि केरल राज्य बनाम के अजीत 2021 के मामले में शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित कानून के आलोक में, सीआरपीसी की धारा 401 (Section 401 of CrPC) के तहत पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार (revisional jurisdiction) का प्रयोग करके उच्च न्यायालय द्वारा 77 मामलों की जांच की जा सकती है.

बुधवार को हंसारिया ने तर्क दिया कि प्रत्येक मामले में तर्कपूर्ण आदेश हो सकता है. बेंच में शामिल जस्टिस डी वा. चंद्रचूड़ और सूर्यकांत ने कहा कि वह सभी मामलों की जांच नहीं कर सकता और उन्हें उच्च न्यायालय जाने की अनुमति नहीं है.

पढ़ें - पेगासस विवाद मामले में SC में सुनवाई आज, केंद्र व बंगाल सरकारें देंगी नोटिस का जवाब

हंसारिया ने रिपोर्ट में कहा कि उच्च न्यायालय को सीआरपीसी की धारा 309 के संदर्भ में लंबित मामलों के दिन-प्रतिदिन के आधार पर सुनवाई में तेजी लाने के लिए प्रशासनिक निर्देश जारी करने का निर्देश दिया जा सकता है.

सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने न्यायपालिका और सीबीआई या ईडी जैसी जांच एजेंसियों के सामने आने वाली समस्याओं के बीच समानता दिखाई.

उन्होंने कहा कि हमारी तरह ही जांच एजेंसियां मैनपावर, इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी से जूझ रही हैं. 'हम इन एजेंसियों के बारे में कुछ नहीं कहना चाहते, क्योंकि हम उनका मनोबल नहीं गिराना चाहते हैं, उन पर बहुत अधिक बोझ है. न्यायाधीशों के साथ भी ऐसा ही है.'

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बुधवार को कहा कि सरकारों को सांसदों/विधायकों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों (criminal cases filed against MPs/MLAs) को वापस लेने से पहले संबंधित उच्च न्यायालय की मंजूरी लेनी चाहिए.

मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना (chief justice N.V. Ramana) की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि शीर्ष अदालत ने जोर देकर कहा कि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन (malicious prosecution) के मामलों को वापस लेने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन उच्च न्यायालय को ऐसे मामलों की जांच करनी चाहिए.

उन्होंने कहा, 'दुर्भावनापूर्ण अभियोजन होने पर हम मामलों को वापस लेने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन इसकी उच्च न्यायालय में न्यायिक अधिकारी (judicial officer ) द्वारा जांच की जानी चाहिए. यदि उच्च न्यायालय सहमत है, तो मामलों को वापस लिया जा सकता है.'

शीर्ष अदालत अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही है, जिसमें जघन्य अपराधों में दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने और उनके मुकदमों का शीघ्र निपटारा करने का अनुरोध किया गया है.

मामले में न्याय मित्र के रूप में नियुक्त वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया ने शुरुआत में पीठ को बताया कि जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों पर सीबीआई और ईडी की स्थिति रिपोर्ट 'परेशान करने वाली' और 'चौंकाने वाली' है.

मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया (Senior advocate Vijay Hansaria) नेशीर्ष अदालत में एक रिपोर्ट दायर की है. इस मामले में वकील स्नेहा कलिता (advocate Sneha Kalita) ने उनकी मदद की है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य सरकार ने न्याय मित्र को सूचित किया है कि 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों (Muzaffarnagar riots of 2013 ) से संबंधित 510 मामले मेरठ क्षेत्र के पांच जिलों में 6,869 आरोपियों के खिलाफ दर्ज किए गए थे. इनमें से 175 मामलों में चार्जशीट दाखिल की गई, 165 मामलों में अंतिम रिपोर्ट पेश की गई और 170 मामलों को खारिज कर दिया गया.

सरकारी आदेश में सीआरपीसी की धारा 321 के तहत (under Section 321 of CrPC) मामला वापस लेने का कोई कारण नहीं बताया गया है. इसमें केवल इतना कहा गया है कि प्रशासन ने पूरी तरह से विचार करने के बाद विशेष मामले को वापस लेने का फैसला किया है.

न्याय मित्र ने रिपोर्ट में कहा कि केरल राज्य बनाम के अजीत 2021 के मामले में शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित कानून के आलोक में, सीआरपीसी की धारा 401 (Section 401 of CrPC) के तहत पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार (revisional jurisdiction) का प्रयोग करके उच्च न्यायालय द्वारा 77 मामलों की जांच की जा सकती है.

बुधवार को हंसारिया ने तर्क दिया कि प्रत्येक मामले में तर्कपूर्ण आदेश हो सकता है. बेंच में शामिल जस्टिस डी वा. चंद्रचूड़ और सूर्यकांत ने कहा कि वह सभी मामलों की जांच नहीं कर सकता और उन्हें उच्च न्यायालय जाने की अनुमति नहीं है.

पढ़ें - पेगासस विवाद मामले में SC में सुनवाई आज, केंद्र व बंगाल सरकारें देंगी नोटिस का जवाब

हंसारिया ने रिपोर्ट में कहा कि उच्च न्यायालय को सीआरपीसी की धारा 309 के संदर्भ में लंबित मामलों के दिन-प्रतिदिन के आधार पर सुनवाई में तेजी लाने के लिए प्रशासनिक निर्देश जारी करने का निर्देश दिया जा सकता है.

सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने न्यायपालिका और सीबीआई या ईडी जैसी जांच एजेंसियों के सामने आने वाली समस्याओं के बीच समानता दिखाई.

उन्होंने कहा कि हमारी तरह ही जांच एजेंसियां मैनपावर, इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी से जूझ रही हैं. 'हम इन एजेंसियों के बारे में कुछ नहीं कहना चाहते, क्योंकि हम उनका मनोबल नहीं गिराना चाहते हैं, उन पर बहुत अधिक बोझ है. न्यायाधीशों के साथ भी ऐसा ही है.'

Last Updated : Aug 25, 2021, 4:01 PM IST
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