देहरादून (उत्तराखंड): एक दिलेर युद्ध नायक की कहानी को फिल्म के पर्दे पर खूब प्रशंसा मिल रही है. यूं तो पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को हर कोई जानता है. लेकिन अब युवा पीढ़ी भी फिल्म के माध्यम से उनकी बहादुरी को करीब से जान रही है. देशभर में अभी बड़े पर्दे पर लगी निर्देशक मेघना गुलजार की फिल्म (सैम बहादुर) खूब चर्चाओं में हैं. लेकिन इन्हीं सुर्खियों के बीच देहरादून में उनकी आखिरी निशानी को मिटाने की कागजी औपचारिकताएं पूरी हो रही हैं. बात देहरादून के 58 जीटीसी यानी गोरखा ट्रेनिंग सेंटर जूनियर हाई स्कूल की हो रही है. जिसके कैंट स्थित इस विद्यालय की आधारशिला 11 अक्टूबर 1966 को रखी गई थी.
खास बात ये है कि खुद पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने इसकी नींव रखी. उस दौरान सेना के जवानों के बच्चों को इसमें शिक्षा दी जाती थी. साथ ही आसपास में रहने वाले लोगों ने भी अपने बच्चों को इसमें दाखिला दिलवाया था. लेकिन कभी हजार से ज्यादा बच्चों की संख्या वाला ये विद्यालय अब करीब 50 बच्चों तक ही सिमट गया है. हैरानी की बात यह है कि इसी तर्क के साथ अब इस विद्यालय को बंद करने के लिए चिट्ठी लिखने का दौर भी शुरू हो चुका है.
विद्यालय बंद करने के लिए दी जा रही दलीलें: ऐतिहासिक भवन में शिक्षा के मंदिर को बनाए रखने की कोशिश होने के बजाय इसे बंद करने के प्रयास किए जा रहे हैं. इसके लिए कभी कैंट बोर्ड द्वारा विद्यालय के भवन की खराब हालत को लेकर चिट्टी पत्री लिखी जा रही है तो कभी शिक्षा विभाग द्वारा इसे बंद करने से जुड़ी औपचारिकताओं पर काम किया जा रहा है. जबकि हकीकत ये है कि भवन की स्थिति ना तो जर्जर दिख रही है और ना ही इस विद्यालय की लोकेशन ऐसी है जहां छात्र संख्या को नहीं बढ़ाया जा सकता. इसके बावजूद विद्यालय को बंद करने के लिए लगातार पत्र लिखे जा रहे हैं.
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1966 में किया गया शिफ्ट: सेना के स्वामित्व वाले इस विद्यालय को वैसे तो 1952 में ही शुरू कर दिया गया था. लेकिन बाद में सैम मानेकशॉ ने जिस भवन का 1966 में शुभारंभ किया, उसी में इसे शिफ्ट कर दिया गया. यह विद्यालय कक्षा आठवीं तक है और इसे बंद किए जाने की खबर के बाद से ही विद्यालय के स्टाफ की चिंता बढ़ गई है. विद्यालय के प्रधानाचार्य अनिल कुमार कहते हैं कि जिस विद्यालय में उन्होंने अपना पूरा जीवन दे दिया. उसके बंद होने की सूचना उनके लिए बेहद दुखद है. वह चाहते हैं कि पहले फील्ड मार्शल की इस आखिरी निशानी को तबाह ना किया जाए.
भवन की मरम्मत के लिए कई बार हुए एस्टीमेट तैयार: देहरादून का यह विद्यालय सहायता प्राप्त है और उत्तराखंड सरकार यहां काम करने वाले शिक्षकों और दूसरे स्टाफ को वेतन देती है. सैम बहादुर जिनके किस्से और किताबें स्कूलों में ही नहीं, बल्कि सेना में भी सुने और पढ़े जाते हैं. उनकी आखिरी निशानी को बचाने की अपील ना ही सुनी जा रही है और ना ही राज्य सरकार की तरफ से कोई प्रयास होता हुआ दिखाई दे रहा है. विद्यालय से जुड़े लोग कहते हैं कि कई बार विद्यालय के भवन की मरम्मत को लेकर एस्टीमेट तैयार किया गया. लेकिन कोई नहीं जानता कि इसके लिए आर्थिक सहायता क्यों नहीं भेजी गई. हालांकि अब भी स्कूल के शिक्षक और स्टाफ की उम्मीदें टूटी नहीं है. उन्हें लगता है कि वीर बहादुर सेना नायक की यादों को इस तरह नहीं मिटाया जा सकता.
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बच्चों के भविष्य पर सकंट: फिलहाल इस विद्यालय में अब जो बच्चे बचे हैं. वे अनुसूचित जाति और निर्धन परिवार के हैं. यह वे बच्चे हैं जिनके माता-पिता कैंट में मौजूद सेना के अफसरों के यहां काम करते हैं. ऐसे में यदि यह स्कूल बंद होता है तो इससे इन छात्रों की आगे की पढ़ाई पर भी इसका सीधा असर हो सकता है.