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भारतीय परंपरा और औपनिवेशिक पूर्वग्रह के बीच फंसे थर्ड जेंडर के अधिकार

दुनिया की ज्यादतर लड़ाइयां पहचान पर संकट की वजह से लड़ी गईं. फिर चाहे वह सभ्यताओं का संघर्ष हो या फिर राष्ट्रीयताओं और समुदायों की पहचान का. लेकिन सभ्यता के विकास के लंबे इतिहास के बाद भी हमारे समाज में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें अपनी पहचान के कारण शर्मिंदा होना पड़ता है. ये कहें कि समाज उन्हें अपना हिस्सा मानने को तैयार नहीं. वह है थर्ड जेंडर.

For India's third sex acceptance mired in colonial past
भारतीय पंरपरा और औपनिवेशिक पूर्वग्रह के बीच फंसे थर्ड जेंडर के अधिकार
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Published : Dec 10, 2022, 2:11 PM IST

सामाजिक ढांचे में जेंडर या लैंगिक पहचान एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. इस पहचान को सामाजिक मान्यताओं ने दिनों- दिन पुख्ता किया और समाज जेंडर को स्त्री-पुरुष की 'बाइनरी' में ही देखने व समझने का अभ्यस्त हो गया. इस अभ्यास के कारण ही समाज में थर्ड जेंडर को लेकर जो धारणा बनी वह उनकी पहचान पर भी संकट पैदा करने वाली थी क्योंकि वह प्रचलित बाइनरी से बाहर है. इस पहचान को लेकर थर्ड जेंडर समुदाय लंबे समय से संघर्ष कर रहा है.

यह संघर्ष सामाजिक और संवैधानिक दोनों स्तरों पर चल रहा था. हालांकि 15 अप्रैल 2014 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले ने थर्ड जेंडर को संवैधानिक अधिकार दे दिए और सरकार को निर्देशित किया कि वह इन अधिकारों को लागू करने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करे. 5 दिसंबर, 2019 को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद थर्ड जेंडर के अधिकारों को कानूनी मान्यता भी मिल गई. लेकिन समान अधिकारों को वास्तविकता में हासिल करना अभी भी थर्ड जेंडर के लोगों के लिए दूर की कौड़ी मालूम होती है.

लेकिन क्या हमेशा से ही भारतीय समाजों में किन्नरों या थर्ड जेंडर की ऐसी ही स्थिति थी या यह भेदभाव नया है. महाभारत में शिखंडी की कथा का महत्व और अर्जून के किन्नर भेष में रहने की कहानी कौन नहीं जानता होगा. दरअसल महाभारत का दौर तो फिर भी बेहद पौराणिक है, इतिहास में इस बात के ठोस प्रमाण मौजूद हैं कि थर्ड जेंडर या किन्नर समुदाय को ना केवल मुगलों का विशेष संरक्षण प्राप्त था बल्कि उन्हें मुगल शासकों के राज महलों उन्हें विशेष स्थान प्राप्त था.

इतिहासकार जेसिका हिंकी के मुताबिक इस हत्या से ब्रिटिश समाज में किन्नरों के प्रति व्याप्त नैतिक आतंक का पता चलता है. जेसिका हिंकी बताती हैं कि उनकी हत्या हुई थी, लेकिन उनकी मौत को किन्नरों के अपराध और समुदाय की अनैतिकता से जोड़कर देखा गया. ब्रिटिश अधिकारियों ने यह मानना शुरू कर दिया था कि किन्नर शासन करने योग्य नहीं हैं. विश्लेषकों ने किन्नरों को गंदा, बीमार, संक्रामक रोगी और दूषित समुदाय के तौर पर चित्रित किया. इन्हें पुरुषों के साथ सेक्स करने की लत वाले समुदाय की तरह पेश किया गया.

औपनिवेशिक अधिकारियों ने कहा था कि यह समुदाय न केवल आम लोगों की नैतिकता के लिए खतरा हैं बल्कि औपनिवेशिक राजनीतिक सत्तातंत्र के लिए भी खतरा हैं. सिंगापुर के नायनयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग की अस्सिटेंट प्रोफेसर डॉ. हिंकी ने किन्नरों से संबंधित अंग्रेजों के शासनकाल के समय वाले दस्तावेजों को खंगाला और उस दौरान के कानूनों का इस समुदाय पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया. इस आधार पर उन्होंने औपनिवेशिक भारत के किन्नरों के पहले विस्तृत इतिहास के तौर पर 'गवर्निंग जेंडर एंड सेक्शुअलिटी इन कॉलोनियल इंडिया' की रचना की है.

किन्नर अमूमन महिलाओं की तरह कपड़े पहनते हैं और खुद को नपुंसक बताते हैं. यह समुदाय शिष्य प्रणाली पर आधारित है और कई संस्कृतियों में इनकी बेहद अहम भूमिका है- राजा महराजाओं के हरम की रखवाली करने से लेकर नाचने-गाने जैसे मनोरंजन करने वालों की भूमिका ये निभाते आए हैं. दक्षिण एशियाई देशों में ये भी माना जाता है कि जनन क्षमता को प्रभावित करने का आशीर्वाद और अभिशाप यह समुदाय दे सकता है. इस समुदाय के लोग गोद लिए बच्चों के अलावा अपने पुरुष साथियों के साथ जीवन यापन करते हैं.

ब्रिटिश अधिकारियों ने इन किन्नरों के साथ रहने वाले बच्चों को संक्रामक बीमारी का एजेंट और नैतिकता के लिए खतरा माना था. डॉ. हिंकी बताती हैं कि किन्नरों से भारतीय लड़कों को खतरे को लेकर औपनिवेशिक दौर में इतनी चिंता थी कि समुदाय के साथ रहने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ा चढ़ाकर बताई गई थी. आंकड़ों के मुताबिक, 1860 से 1880 के बीच, किन्नरों के साथ करीब 90 से 100 लड़के रह रहे थे. इनमें से कुछ को ही नपुंसक बनाया गया था और ज्यादातर अपने असली माता-पिता के साथ रहते थे.

डॉ. हिंकी बताती हैं, "उस क़ानून का शॉर्ट टर्म उद्देश्य सार्वजनिक तौर पर किन्नरों की उपस्थिति को समाप्त करके उनका सांस्कृतिक उन्मूलन करना था. ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि लॉन्ग टर्म उद्देश्य किन्नरों का अस्तित्व मिटाना था. औपनिवेशिक काल के उच्च पदस्थ अधिकारियों की नजर में किन्नरों का छोटा सा समूह ब्रिटिश सत्ता प्रतिष्ठानों को खतरे में डाल सकता था.

इतना ही नहीं, ब्रिटिश अधिकारियों ने उन लोगों की निगरानी भी शुरू कर दी थी जो महिला और पुरुष के खांचे में फिट नहीं बैठते थे, इसमें वैसे पुरूष शामिल थे जो महिलाओं की तरह कपड़े पहनते थे, आस पड़ोस के घरों में नाचने गाने का काम करते थे और थिएटरों में महिला कलाकारों की भूमिका निभाते थे. डॉ. हिंकी के मुताबिक पुलिस कानून का इस्तेमाल उन लोगों के खिलाफ भी करने लगी थी जिनके जेंडर की स्पष्ट पहचान करने में उसे मुश्किल होती थी.

(यह लेख रिलिजन न्यूज सर्विस द्वारा लिखित और निर्मित एसोसिएटेड प्रेस द्वारा वितरित की गई सामग्री का संपादित अंश है.)

सामाजिक ढांचे में जेंडर या लैंगिक पहचान एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. इस पहचान को सामाजिक मान्यताओं ने दिनों- दिन पुख्ता किया और समाज जेंडर को स्त्री-पुरुष की 'बाइनरी' में ही देखने व समझने का अभ्यस्त हो गया. इस अभ्यास के कारण ही समाज में थर्ड जेंडर को लेकर जो धारणा बनी वह उनकी पहचान पर भी संकट पैदा करने वाली थी क्योंकि वह प्रचलित बाइनरी से बाहर है. इस पहचान को लेकर थर्ड जेंडर समुदाय लंबे समय से संघर्ष कर रहा है.

यह संघर्ष सामाजिक और संवैधानिक दोनों स्तरों पर चल रहा था. हालांकि 15 अप्रैल 2014 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले ने थर्ड जेंडर को संवैधानिक अधिकार दे दिए और सरकार को निर्देशित किया कि वह इन अधिकारों को लागू करने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करे. 5 दिसंबर, 2019 को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद थर्ड जेंडर के अधिकारों को कानूनी मान्यता भी मिल गई. लेकिन समान अधिकारों को वास्तविकता में हासिल करना अभी भी थर्ड जेंडर के लोगों के लिए दूर की कौड़ी मालूम होती है.

लेकिन क्या हमेशा से ही भारतीय समाजों में किन्नरों या थर्ड जेंडर की ऐसी ही स्थिति थी या यह भेदभाव नया है. महाभारत में शिखंडी की कथा का महत्व और अर्जून के किन्नर भेष में रहने की कहानी कौन नहीं जानता होगा. दरअसल महाभारत का दौर तो फिर भी बेहद पौराणिक है, इतिहास में इस बात के ठोस प्रमाण मौजूद हैं कि थर्ड जेंडर या किन्नर समुदाय को ना केवल मुगलों का विशेष संरक्षण प्राप्त था बल्कि उन्हें मुगल शासकों के राज महलों उन्हें विशेष स्थान प्राप्त था.

इतिहासकार जेसिका हिंकी के मुताबिक इस हत्या से ब्रिटिश समाज में किन्नरों के प्रति व्याप्त नैतिक आतंक का पता चलता है. जेसिका हिंकी बताती हैं कि उनकी हत्या हुई थी, लेकिन उनकी मौत को किन्नरों के अपराध और समुदाय की अनैतिकता से जोड़कर देखा गया. ब्रिटिश अधिकारियों ने यह मानना शुरू कर दिया था कि किन्नर शासन करने योग्य नहीं हैं. विश्लेषकों ने किन्नरों को गंदा, बीमार, संक्रामक रोगी और दूषित समुदाय के तौर पर चित्रित किया. इन्हें पुरुषों के साथ सेक्स करने की लत वाले समुदाय की तरह पेश किया गया.

औपनिवेशिक अधिकारियों ने कहा था कि यह समुदाय न केवल आम लोगों की नैतिकता के लिए खतरा हैं बल्कि औपनिवेशिक राजनीतिक सत्तातंत्र के लिए भी खतरा हैं. सिंगापुर के नायनयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग की अस्सिटेंट प्रोफेसर डॉ. हिंकी ने किन्नरों से संबंधित अंग्रेजों के शासनकाल के समय वाले दस्तावेजों को खंगाला और उस दौरान के कानूनों का इस समुदाय पर पड़ने वाले असर का अध्ययन किया. इस आधार पर उन्होंने औपनिवेशिक भारत के किन्नरों के पहले विस्तृत इतिहास के तौर पर 'गवर्निंग जेंडर एंड सेक्शुअलिटी इन कॉलोनियल इंडिया' की रचना की है.

किन्नर अमूमन महिलाओं की तरह कपड़े पहनते हैं और खुद को नपुंसक बताते हैं. यह समुदाय शिष्य प्रणाली पर आधारित है और कई संस्कृतियों में इनकी बेहद अहम भूमिका है- राजा महराजाओं के हरम की रखवाली करने से लेकर नाचने-गाने जैसे मनोरंजन करने वालों की भूमिका ये निभाते आए हैं. दक्षिण एशियाई देशों में ये भी माना जाता है कि जनन क्षमता को प्रभावित करने का आशीर्वाद और अभिशाप यह समुदाय दे सकता है. इस समुदाय के लोग गोद लिए बच्चों के अलावा अपने पुरुष साथियों के साथ जीवन यापन करते हैं.

ब्रिटिश अधिकारियों ने इन किन्नरों के साथ रहने वाले बच्चों को संक्रामक बीमारी का एजेंट और नैतिकता के लिए खतरा माना था. डॉ. हिंकी बताती हैं कि किन्नरों से भारतीय लड़कों को खतरे को लेकर औपनिवेशिक दौर में इतनी चिंता थी कि समुदाय के साथ रहने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ा चढ़ाकर बताई गई थी. आंकड़ों के मुताबिक, 1860 से 1880 के बीच, किन्नरों के साथ करीब 90 से 100 लड़के रह रहे थे. इनमें से कुछ को ही नपुंसक बनाया गया था और ज्यादातर अपने असली माता-पिता के साथ रहते थे.

डॉ. हिंकी बताती हैं, "उस क़ानून का शॉर्ट टर्म उद्देश्य सार्वजनिक तौर पर किन्नरों की उपस्थिति को समाप्त करके उनका सांस्कृतिक उन्मूलन करना था. ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं है कि लॉन्ग टर्म उद्देश्य किन्नरों का अस्तित्व मिटाना था. औपनिवेशिक काल के उच्च पदस्थ अधिकारियों की नजर में किन्नरों का छोटा सा समूह ब्रिटिश सत्ता प्रतिष्ठानों को खतरे में डाल सकता था.

इतना ही नहीं, ब्रिटिश अधिकारियों ने उन लोगों की निगरानी भी शुरू कर दी थी जो महिला और पुरुष के खांचे में फिट नहीं बैठते थे, इसमें वैसे पुरूष शामिल थे जो महिलाओं की तरह कपड़े पहनते थे, आस पड़ोस के घरों में नाचने गाने का काम करते थे और थिएटरों में महिला कलाकारों की भूमिका निभाते थे. डॉ. हिंकी के मुताबिक पुलिस कानून का इस्तेमाल उन लोगों के खिलाफ भी करने लगी थी जिनके जेंडर की स्पष्ट पहचान करने में उसे मुश्किल होती थी.

(यह लेख रिलिजन न्यूज सर्विस द्वारा लिखित और निर्मित एसोसिएटेड प्रेस द्वारा वितरित की गई सामग्री का संपादित अंश है.)

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