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#Positive Bharat Podcast: कर्नाटक की 'लक्ष्मीबाई', जिनके जज्बे ने इतिहास में दर्ज की अपनी दास्तां

आज के पॅाडकास्ट में हम रानी चेनम्मा (Rani Chennamma) की शौर्यगाथा (Rani Chennamma gallantry) के बारे में बात करेंगे. जिन्होंने ब्रिटिश सेना को भारतीय महिलाओं की वीरता दिखाई और यह सिद्ध किया कि अगर एक नारी कुछ करने की ठान ले, तो फिर चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन वो हार नहीं मानती हैं.

कर्नाटक की 'लक्ष्मीबाई' रानी चेनम्मा
कर्नाटक की 'लक्ष्मीबाई' रानी चेनम्मा
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Published : Oct 23, 2021, 10:14 AM IST

नई दिल्ली: 19वीं सदी की शुरुआत, हमारे देश में अंग्रेजी शासकों (Rani Chennamma British rulers) की हुकूमत आग की तरह फैल रही थी, अंग्रेजों की इन ओछी नीति को हमारे भारतीय राजा अभी तक समझ नहीं पाए थे, लेकिन उस समय कित्तुरु की रानी चेनम्मा (Kitturu Rani Chennamma) ने अंग्रेजों की इस बदनीयत को भांप लिया और अपनी वीरता दिखाते हुए अकेले ही उनके खिलाफ लड़ाई छेड़ दी.

रानी चेनम्मा की कहानी लगभग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही है. वही स्थिति, वही संघर्ष और वही वीरता भी और शायद इसलिए लिए ही उन्हें 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है. चेन्नम्मा का अर्थ है- सुंदर कन्या'. इस सुंदर बालिका का जन्म 23 अक्तूबर, 1778 में कर्नाटक में हुआ था. पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने इनका पालन-पोषण पुत्रों की भांति किया था. उन्हें संस्कृत, कन्नड़, मराठी और उर्दू भाषा में शिक्षा दी गई थी. साथ ही राजकुमारों के भांती घुड़सवारी भी सिखाई थी. चेनम्मा अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला में भी पारंगत थी. उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई, जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं.

कर्नाटक की 'लक्ष्मीबाई' रानी चेनम्मा

उनका एक बेटा भी था. चेनम्मा अपने वैवाहिक जीवन में बहुत खुश थीं, लेकिन फिर 1824 में उनके बेटे की मौत हो गई और इसके बाद से शुरू हुई, वीरता और बलिदान की एक ऐसी दास्तां, जिसने दुनिया को बहादुरी का मतलब सिखाया. बेटे की मृत्यु के बाद रानी चेनम्मा ने शिवलिंगप्पा (Shivlingappa Rani Chennamma) को गोद लिया और उसे ही अपना वारिस घोषित किया, लेकिन यह बात ब्रिटिश शासकों के गले नहीं उतरी, उन्होंने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दिया, लेकिन चेनम्मा ने इसे स्वीकार नहीं किया. उन्होंने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन (Lieutenant Governor Lord Elphinstone) को एक पत्र भेजा, जिसमें कित्तुरु के मामले में हड़प नीति नहीं लागू करने का आग्रह किया, लेकिन चेनम्मा के आग्रह को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया.

इसके परिणाम स्वरूप ब्रिटिश और कित्तुरु के बीच लड़ाई का आगाज हुआ. अंग्रेजों ने तुच्छ नीति के तहत कित्तुरु के खजाने और आभूषणों को जब्त करने की कोशिश की, उस वक्त इसकी कीमत करीब 15 लाख रुपये थी. अंग्रेजों ने इसे लूटने के मकसद से 20,000 सिपाहियों के साथ कित्तुरु पर हल्ला बोल दिया, लेकिन वह सफल नहीं हो पाए. इस लड़ाई में अंग्रेज शासकों को ना केवल मुंह की खानी पड़ी, बल्कि उन्हें भारी नुकसान भी उठाना पड़ा.

इस दौरान दो ब्रिटिश अधिकारियों को चेनम्मा ने बंधक बना लिया, जिससे अंग्रेज अधिकारियों में चेनम्मा के खिलाफ डर बैठ गया और इसी डर के कारण उन्होंने कित्तुरु से अपने अधिकारियों को रिहा करने को कहा. इसके साथ ही दोबारा युद्ध नहीं करने का वादा भी किया. रानी चेनम्मा ने अंग्रेजों पर भरोसा कर दोनों अधिकारियों को छोड़ दिया, लेकिन अंग्रेजों ने धोखा दिया. अपने अधिकारियों के कित्तुरु से रिहा होते ही दोगुने अस्त्र-शस्त्र के साथ रानी चेनम्मा के खिलाफ फिर युद्ध छेड़ दिया. धोखे से दोबारा लड़ी गई इस लड़ाई में अंग्रेजों को फिर भारी नुकसान हुआ, लेकिन इस बार चेनम्मा अंग्रेजों की भारी भरकम सेना के आगे हार गई. इस युद्ध के बाद उन्हें बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया, जहां वह अपने अंतिम दिनों तक रही और 21 फरवरी 1829 को उनकी मौत हो गई. भले ही चेनम्मा आखिरी लड़ाई में हार गईं, लेकिन उनकी वीरता की यह तस्वीरें हमेशा के लिए हमारे जहन में कैद है.

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नई दिल्ली: 19वीं सदी की शुरुआत, हमारे देश में अंग्रेजी शासकों (Rani Chennamma British rulers) की हुकूमत आग की तरह फैल रही थी, अंग्रेजों की इन ओछी नीति को हमारे भारतीय राजा अभी तक समझ नहीं पाए थे, लेकिन उस समय कित्तुरु की रानी चेनम्मा (Kitturu Rani Chennamma) ने अंग्रेजों की इस बदनीयत को भांप लिया और अपनी वीरता दिखाते हुए अकेले ही उनके खिलाफ लड़ाई छेड़ दी.

रानी चेनम्मा की कहानी लगभग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही है. वही स्थिति, वही संघर्ष और वही वीरता भी और शायद इसलिए लिए ही उन्हें 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है. चेन्नम्मा का अर्थ है- सुंदर कन्या'. इस सुंदर बालिका का जन्म 23 अक्तूबर, 1778 में कर्नाटक में हुआ था. पिता धूलप्पा और माता पद्मावती ने इनका पालन-पोषण पुत्रों की भांति किया था. उन्हें संस्कृत, कन्नड़, मराठी और उर्दू भाषा में शिक्षा दी गई थी. साथ ही राजकुमारों के भांती घुड़सवारी भी सिखाई थी. चेनम्मा अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला में भी पारंगत थी. उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई, जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं.

कर्नाटक की 'लक्ष्मीबाई' रानी चेनम्मा

उनका एक बेटा भी था. चेनम्मा अपने वैवाहिक जीवन में बहुत खुश थीं, लेकिन फिर 1824 में उनके बेटे की मौत हो गई और इसके बाद से शुरू हुई, वीरता और बलिदान की एक ऐसी दास्तां, जिसने दुनिया को बहादुरी का मतलब सिखाया. बेटे की मृत्यु के बाद रानी चेनम्मा ने शिवलिंगप्पा (Shivlingappa Rani Chennamma) को गोद लिया और उसे ही अपना वारिस घोषित किया, लेकिन यह बात ब्रिटिश शासकों के गले नहीं उतरी, उन्होंने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दिया, लेकिन चेनम्मा ने इसे स्वीकार नहीं किया. उन्होंने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन (Lieutenant Governor Lord Elphinstone) को एक पत्र भेजा, जिसमें कित्तुरु के मामले में हड़प नीति नहीं लागू करने का आग्रह किया, लेकिन चेनम्मा के आग्रह को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया.

इसके परिणाम स्वरूप ब्रिटिश और कित्तुरु के बीच लड़ाई का आगाज हुआ. अंग्रेजों ने तुच्छ नीति के तहत कित्तुरु के खजाने और आभूषणों को जब्त करने की कोशिश की, उस वक्त इसकी कीमत करीब 15 लाख रुपये थी. अंग्रेजों ने इसे लूटने के मकसद से 20,000 सिपाहियों के साथ कित्तुरु पर हल्ला बोल दिया, लेकिन वह सफल नहीं हो पाए. इस लड़ाई में अंग्रेज शासकों को ना केवल मुंह की खानी पड़ी, बल्कि उन्हें भारी नुकसान भी उठाना पड़ा.

इस दौरान दो ब्रिटिश अधिकारियों को चेनम्मा ने बंधक बना लिया, जिससे अंग्रेज अधिकारियों में चेनम्मा के खिलाफ डर बैठ गया और इसी डर के कारण उन्होंने कित्तुरु से अपने अधिकारियों को रिहा करने को कहा. इसके साथ ही दोबारा युद्ध नहीं करने का वादा भी किया. रानी चेनम्मा ने अंग्रेजों पर भरोसा कर दोनों अधिकारियों को छोड़ दिया, लेकिन अंग्रेजों ने धोखा दिया. अपने अधिकारियों के कित्तुरु से रिहा होते ही दोगुने अस्त्र-शस्त्र के साथ रानी चेनम्मा के खिलाफ फिर युद्ध छेड़ दिया. धोखे से दोबारा लड़ी गई इस लड़ाई में अंग्रेजों को फिर भारी नुकसान हुआ, लेकिन इस बार चेनम्मा अंग्रेजों की भारी भरकम सेना के आगे हार गई. इस युद्ध के बाद उन्हें बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया, जहां वह अपने अंतिम दिनों तक रही और 21 फरवरी 1829 को उनकी मौत हो गई. भले ही चेनम्मा आखिरी लड़ाई में हार गईं, लेकिन उनकी वीरता की यह तस्वीरें हमेशा के लिए हमारे जहन में कैद है.

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