देहरादून: उत्तराखंड में कई चर्चित प्रत्याशियों पर पूरे प्रदेश की नजर टिकी हुई है. अब जबकि, निर्णय की घड़ी आई है तो चुनाव मैदान में डटे प्रत्याशियों के साथ ही दिग्गजों की साख भी दांव पर है. मतणना की डेट सामने आते ही इन दिग्गजों की आंखों से नींद गायब होना स्वाभाविक है. लेकिन यश-अपयश की इस लड़ाई में दिग्गज वोटिंग गणित बैठाने में लगे रहे. उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में इस बार बागी (दल-बदल) प्रत्याशियों की साख भी दांव पर लगी है. पार्टी में अपनी उपेक्षा के चलते चुनाव से ठीक पहले इन सभी ने अन्य दलों का दामन थाम लिया. इनमें यशपाल आर्य, हरक सिंह रावत, किशोर उपाध्याय जैसे बड़े नाम शामिल हैं.
किशोर उपाध्याय: सबसे पहले बात करते हैं पूर्व पीसीसी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय की. कांग्रेस के भीतर लगातार उपेक्षा के चलते किशोर काफी समय से नाराज चल रहे थे. ऐसे में उन्होंने कांग्रेस से अपना 45 साल का रिश्ता तोड़ भाजपा का दामन थाम लिया. किशोर उपाध्याय के राजनीतिक सफर की बात करें तो यह गांधी परिवार के काफी करीबी रहे हैं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जब यूपी के अमेठी से चुनाव लड़े थे तो किशोर उपाध्याय ने इस चुनाव में अहम भूमिका निभाई थी.
राज्य आंदोलन में सक्रिय भूमिका: उत्तराखंड राज्य आंदोलन में भी किशोर उपाध्याय काफी सक्रिय रहे थे. राज्य गठन के बाद साल 2002 में पहले विधानसभा चुनाव में किशोर उपाध्याय टिहरी सीट से विधायक चुने गए और इन्हें एनडी तिवारी सरकार में औद्योगिक राज्य मंत्री बनाया गया. वहीं, 2007 के विधानसभा चुनाव में भी किशोर लगातार दूसरी बार टिहरी से विधायक चुने गए. जबकि, 2012 के विधानसभा चुनाव में किशोर उपाध्याय टिहरी सीट से निर्दलीय प्रत्याशी दिनेश धनै से महज 377 वोटों के मामूली मार्जिन से चुनाव हार गए.
कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष तक का सफर: वहीं, साल 2014 में किशोर उपाध्याय को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया और साल 2017 तक किशोर इस पद पर बने रहे. 2017 के विधानसभा चुनाव में किशोर उपाध्याय ने देहरादून की सहसपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा. जहां बीजेपी के सहदेव सिंह पुंडीर ने उन्हें 18,863 वोटों के मार्जिन से शिकस्त दी. ऐसे में अब भाजपा का दामन थामने के बाद किशोर उपाध्याय एक बार फिर टिहरी विधानसभा सीट से चुनाव मैदान में हैं. वहीं, कांग्रेस ने यहां धन सिंह नेगी पर दांव खेला है, जो टिहरी के सीटिंग विधायक भी हैं. इसके अलावा उत्तराखंड जन एकता पार्टी के संस्थापक और पूर्व पर्यटन मंत्री दिनेश धनै भी इस सीट से चुनाव मैदान में हैं.
धन सिंह नेगी: इस विधानसभा चुनाव में बागी नेताओं की फेहरिस्त में एक नाम टिहरी के सीटिंग विधायक धन सिंह नेगी का भी है. जिन्होंने बीजेपी में किशोर उपाध्याय की एंट्री के बाद पार्टी को अलविदा कहकर कांग्रेस का हाथ थाम लिया. धन सिंह नेगी टिहरी विधानसभा सीट से अपना टिकट कटने से नाराज थे.
धन सिंह नेगी का राजनीतिक सफर: धन सिंह नेगी के राजनीतिक सफर की बात करें तो नेगी साल 2009 से 2012 तक टिहरी गढ़वाल में आंचल मिल्क कोऑपरेटिव सोसाइटी के अध्यक्ष रह चुके हैं. वहीं, साल 2017 में धन सिंह नेगी ने बीजेपी के उम्मीदवार के रूप में टिहरी से चुनाव लड़ा और इस सीट पर जीत हासिल की. नेगी ने इस चुनाव में अपने निकटतम प्रतिद्वंदी दिनेश धनै को 6,840 वोटों के मार्जिन से हराया था. वहीं, इस चुनाव में टिहरी विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने धन सिंह नेगी पर दांव खेला है.
यशपाल आर्य: इस विधानसभा चुनाव से ठीक पहले वरिष्ठ नेता यशपाल आर्य और उनके पुत्र संजीव आर्य बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस में घर वापसी कर चुके हैं. जहां एक ओर यशपाल आर्य बाजपुर सीट से चुनाव मैदान में हैं तो संजीव आर्य नैनीताल विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. यशपाल के राजनीतिक सफर की बात करें तो उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी इन्हें राजनीति में लेकर आए थे. यशपाल ने ग्राम प्रधान के पद से अपना सियासी सफर शुरू किया. राज्य गठन के बाद से यशपाल आर्य लगातार विधानसभा चुनाव जीतते आ रहे हैं.
साल 2002 और 2007 के चुनाव में कांग्रेस नेता यशपाल आर्य मुक्तेश्वर विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. वहीं, साल 2012 में यशपाल आर्य ने बाजपुर विधानसभा सीट (अनुसूचित आरक्षित) से चुनाव जीता. वहीं, 2017 में दल-बदल के बाद यशपाल आर्य ने बाजपुर सीट से ही बीजेपी के टिकट से चुनाव लड़ा और अपनी प्रतिद्वंदी कांग्रेस प्रत्याशी सुनीता टम्टा को 12 हजार से ज्यादा वोटों से हराकर विधानसभा पहुंचे. वहीं, यशपाल आर्य ने चुनाव से ठीक पहले घर वापसी की है. वह दोबारा कांग्रेस में शामिल होकर बाजपुर विधानसभा सीट से चुनाव मैदान में हैं. वहीं, बीजेपी ने इस सीट पर राजेश कुमार को चुनाव में खड़ा किया है.
संजीव आर्य: वरिष्ठ नेता यशपाल आर्य से साथ उनके बेटे संजीव आर्य ने भी बीजेपी का दामन छोड़कर कांग्रेस का हाथ थाम लिया है. संजीव आर्य के राजनीतिक सफर की बात करें तो साल 2006 से 2011 तक संजीव हल्द्वानी मंडी समिति के चेयरमैन रहे. वहीं, साल 2010-2012 में संजीव ने उत्तराखंड कांग्रेस कमेटी के मीडिया प्रभारी का पदभार संभाला. वहीं, 2013 से 2017 तक संजीव आर्य उत्तराखंड राज्य सहकारी बैंक के अध्यक्ष के पद पर रहे. 2017 में अपने पिता यशपाल आर्य के साथ संजीव भाजपा में शामिल हो गए और 2017 के चुनाव में संजीव नैनीताल सीट से अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़े. इस चुनाव में संजीव ने जीत हासिल की और कांग्रेस प्रत्याशी सरिता आर्य को 7,247 वोटों के अंतर से हराया. वहीं, अब संजीव दोबारा कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं और नैनीताल विधानसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. इस बार भी उनका मुकाबला सरिता आर्य से है, लेकिन पार्टियां बदली हुई हैं.
सुनीता टम्टा: इस विधानसभा चुनाव में टिकट न मिलने पर बागी हुए कार्यकर्ताओं में एक नाम सुनीता टम्टा बाजवा का भी है. उन्हें बाजपुर विधानसभा सीट (अनुसूचित आरक्षित) से कांग्रेस का टिकट मिलने की आस थी. ऐसे में अब इन्होंने आम आदमी पार्टी ज्वाइन कर ली है. सुनीता बाजपुर के किसान नेता जगतार सिंह बाजवा की पत्नी हैं, जो 2017 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस से लड़ चुकी हैं. वहीं, इस बार वो आम आदमी पार्टी से इस सीट पर चुनाव लड़ रही हैं.
करियर की शुरुआत: सुनीता टम्टा के राजनीतिक करियर की बात करें तो भाजपा व बाद में इन्होंने कांग्रेस में रहते हुए अनेक दायित्वों का निर्वहन किया. कांग्रेस छोड़कर आम आदमी पार्टी में शामिल हुई किसान नेता जगतार बाजवा की पत्नी सुनीता टम्टा बाजवा को बाजपुर विधानसभा सीट से प्रत्याशी बनाए जाने के बाद अब त्रिकोणीय मुकाबला होने की संभावना है. इस सीट से कांग्रेस ने यशपाल आर्य को प्रत्याशी बनाया है. जबकि, बीजेपी के टिकट से राजेश कुमार चुनाव मैदान में हैं.
संजय डोभाल: इन बागी नेताओं में एक नाम संजय डोभाल का भी है. जो साल 2017 में कांग्रेस के टिकट से यमुनोत्री विधानसभा सीट से चुनाव लड़े थे. इस सीट से बीजेपी के सीटिंग विधायक केदार सिंह रावत को 2017 के चुनाव में संजय डोभाल ने अच्छी खासी टक्कर दी थी और डोभाल बेहद कम मार्जिन से हारे थे. ऐसे में इस बार संजय डोभाल ने टिकट न मिलने पर बगावत कर दी और वो निर्दलीय ही चुनाव मैदान में हैं.
उत्तराखंड राज्य गठन के बाद अस्तित्व में आयी यमुनोत्री विधानसभा सीट, गंगा घाटी और यमुना घाटी को जोड़ती है. इस विधानसभा क्षेत्र में टिहरी झील (Tehri Jheel) के किनारे चिन्यालीसौड़ नगर पालिका है. यहां की खास बात ये है कि यहां का भूगोल और मतदाताओं का मूड इसे सबसे अलग करता है. 76 हजार मतदाताओं वाली इस विधानसभा सीट के लोगों ने बीजेपी, कांग्रेस और निर्दलीय सभी नेताओं को मौका दिया है. लेकिन इस बार इस सीट पर लड़ाई बेहद दिलचस्प बन गई है. कांग्रेस से बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे संजय डोभाल की सक्रियता ने यहां पर मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है. वहीं, इस बार कांग्रेस ने दीपक बिजल्वाण को चुनाव मैदान में उतारा है.
राजकुमार ठुकराल: राजकुमार ठुकराल जो रुद्रपुर विधानसभा सीट से सीटिंग विधायक हैं और अब इस चुनाव में निर्दलीय ही चुनाव मैदान में हैं. राजकुमार ठुकराल के राजनीतिक करियर की बात करें तो राजकुमार ठुकराल साल 1991 में पहली बार रुद्रपुर में छात्रसंघ अध्यक्ष पद पर निर्वाचित हुए और लगातार 3 सालों तक डिग्री कॉलेज के अध्यक्ष पद पर जीत हासिल करते रहे. वहीं, साल 2003 में राजकुमार ठुकराल रुद्रपुर नगर पालिका के अध्यक्ष पद पर भारी मतों से निर्वाचित हुए थे.
साल 2012 में विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों में राजकुमार ठुकराल ने पहला विधानसभा चुनाव लड़ा और पूर्व स्वास्थ्य मंत्री एवं लगातार 20 सालों से विधायक रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तिलक राज बेहड़ को हराकर रुद्रपुर विधानसभा से जीत हासिल की. वहीं, 2017 में पूरे प्रदेश में सर्वाधिक मतों से जीत हासिल कर राजकुमार ठुकराल ने प्रदेश में एक नया कीर्तिमान स्थापित कर लगातार दूसरी बार रुद्रपुर के विधायक बने थे. ऐसे में इस बार भाजपा से टिकट कटने के बाद राजकुमार ठुकराल निर्दलीय ही चुनाव मैदान में हैं. बीजेपी ने इस चुनाव में शिव अरोड़ा को प्रत्याशी बनाया है और कांग्रेस ने एक बार फिर वरिष्ठ नेता तिलक राज बेहड़ को मैदान में उतारा है. लिहाजा, निर्दलीय रुद्रपुर विधानसभा सीट से चुनावी मैदान में उतरकर ठुकराल ने यह चुनाव दिलचस्प बना दिया है.
रेनू बिष्ट: विधानसभा चुनाव में यमकेश्वर विधानसभा क्षेत्र में भी एक बड़ा दल बदल हुआ है. कांग्रेस नेत्री रेनू बिष्ट ने यहां चुनाव से ठीक पहले बीजेपी का दामन थाम लिया है और बीजेपी ने रेनू बिष्ट को इस सीट से अपना प्रत्याशी बनाया है. रेनू बिष्ट के राजनीतिक करियर की बात करें तो रेनू बिष्ट ने पंचायत चुनाव से राजनीति में कदम रखा. वह 2007 से यमकेश्वर विधानसभा सीट से लगातार चुनाव लड़ती आ रही हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से टिकट न मिलने पर उन्होंने निर्दलीय ही इस सीट से ताल ठोकी थी. बीजेपी की रितु खंडूड़ी ने इस सीट पर जीत हासिल की थी और रेनू बिष्ट दूसरे स्थान पर रहीं. यमकेश्वर विधानसभा सीट उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का गढ़ रही है.
साथ ही यहां हर बार महिला प्रत्याशी ने ही जीत का परचम लहराया है. साल 2002 से लेकर 2017 के बीच कुल चार दफे इस सीट के लिए विधानसभा चुनाव हुए हैं और हर दफे इस सीट पर बीजेपी के उम्मीदवार काबिज रहे हैं. 2002 से 2012 तक बीजेपी की विजया बड़थ्वाल इस सीट से लगातार तीन बार विधायक रही थीं. वहीं, 2017 में बीजेपी की रितु खंडूड़ी ने इस सीट पर जीत हासिल की थी. वहीं, इस बार रेनू बिष्ट को बीजेपी ने चुनाव मैदान में उतरा है और उनके खिलाफ कांग्रेस के शैलेंद्र सिह रावत चुनाव लड़ रहे हैं.
राजकुमार: विधानसभा चुनाव एक और नाम है जिसने चुनाव से ऐन पहले पाला बदल लिया है. पुरोला विधानसभा से सीटिंग विधायक राजकुमार ने कांग्रेस छोड़ बीजेपी का दामन थाम लिया है. उत्तरकाशी जिले की पुरोला सीट से विधायक रहे राजकुमार के राजनीति सफर की बात करें तो ये देहरादून जिले की सहसपुर सीट से 2007 के चुनाव में आरक्षित थी और यहां से राजकुमार को बीजेपी ने प्रत्याशी बनाया था. जिसके बाद राजकुमार इस सीट से विधायक चुने गए. वहीं, साल 2012 के चुनाव में बीजेपी से टिकट ना मिलने पर राजकुमार ने पुरोला विधानसभा सीट (आरक्षित) से निर्दलीय चुनाव लड़ा और हार का सामना किया. वहीं, साल 2017 में वह कांग्रेस के टिकट पर पुरोला से जीतकर विधानसभा में पहुंचे थे.
हरक सिंह रावत: उत्तरांखड में अपनी प्रेशर पॉलिटिक्स और दबंग अंदाज के लिए एक जाना-माना नाम है हरक सिंह रावत. इन्होंने चुनाव से ठीक पहले बीजेपी को अलविदा कहकर कांग्रेस का दामन थाम लिया. हरक सिंह रावत ने इस बार खुद चुनाव न लड़ते हुए अपनी पुत्रवधू अनुकृति गुसाईं को लैंसडाउन विधानसभा सीट से चुनाव मैदान में उतारा है. अनुकृति की ये पहली चुनावी पारी है. अनुकृति अपने एनजीओ के जरिये सामाजिक और महिला उत्थान के कार्यों में सक्रिय हैं लेकिन उन्हें राजनीति का कोई अनुभव नहीं है. ऐसे में हरक सिंह रावत उनके राजनीतिक गुरु हैं और अनुकृति के बहाने वह अपना राजनीतिक भविष्य भी देख रहे हैं.
कद्दावर नेताओं में होती है गिनती: हरक सिंह रावत के पॉलिटिकल करियर की बात करें तो श्रीनगर गढ़वाल विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले हरक ने भाजपा व उसके आनुषांगिक संगठनों में कार्य किया. साल 1984 में पहली बार वह भाजपा के टिकट पर पौड़ी सीट से चुनाव लड़े, लेकिन सफलता नहीं मिली. इसके बाद साल 1991 में उन्होंने पौड़ी सीट पर जीत दर्ज की और तब उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार में उन्हें पर्यटन राज्यमंत्री बनाया गया. उस समय वे सबसे कम आयु के मंत्रियों में शामिल थे.
राज्य गठन के बाद साल 2002 में हुए राज्य विधानसभा के पहले चुनाव में वह कांग्रेस के टिकट पर लैंसडाउन सीट से जीत दर्ज करने में सफल रहे. तब नारायण दत्त तिवारी सरकार में उन्हें मंत्री पद मिला. लेकिन बहुचर्चित जैनी प्रकरण के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. साल 2007 में हरक सिंह रावत ने एक बार फिर लैंसडाउन सीट से जीत दर्ज की. साथ ही उन्हें नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी मिली. साल 2012 के चुनाव में हरक ने सीट बदलते हुए रुद्रप्रयाग से चुनाव लड़ा और विधानसभा में पहुंचे.
गौर हो कि उत्तराखंड की राजनीति में साल 2016 में सबसे बड़ा दल बदल हुआ और हरक सिंह रावत कांग्रेस के नौ अन्य विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए. वहीं, साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें कोटद्वार सीट से मौका दिया और वह विधानसभा में पहुंचे. उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया गया. वहीं, इस बार हरक सिंह रावत चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं काफी बढ़ गई हैं. उनकी निगाहें 2024 के लोकसभा चुनाव पर हैं.