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चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार समय की मांग - Time to reform the process

देश में लंबे समय से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर सवाल उठ रहे हैं और हर बार विपक्षी दल नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार की मांग करते हैं. इसकी प्रमुख वजह है कि देश में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र निकाय बनाकर ही चुनावी प्रक्रिया में लोगों के विश्वास को बहाल किया जा सकता है. पढ़ें पूरी खबर...

चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया
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Published : Mar 16, 2021, 4:54 PM IST

Updated : Mar 16, 2021, 5:20 PM IST

हैदराबाद : भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में चुनाव, कुंभ मेले से कम नहीं है. दुर्भाग्य से, लोकतंत्र का यह पवित्र पर्व अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को खो रहा है. देश में चुनावी मूल्य उस समय बहुत गिर गए थे, जब टी.एन. शेषन ने 1990 के दशक में मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) का पद संभाला था. इसमें सुधार करने के लिए पर्याप्त उपायों की कमी थी. इसके पतन के रूप में, चुनाव आयोग की नियुक्ति में राजनीतिक दखल बढ़ गई.

गोवा सरकार के राज्य के विधि सचिव को राज्य चुनाव आयुक्त के रूप में अतिरिक्त प्रभार देने के फैसले को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियां अमूल्य हैं. सुप्रीम कोर्ट ने पहले यह स्पष्ट किया था कि राज्य निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में केंद्रीय निर्वाचन आयोग के समान शक्तियां प्राप्त हैं.

राज्य चुनाव आयुक्त पंचायत और नगर निगम चुनाव कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. लेकिन गलत राजनीति राज्य चुनाव आयुक्त के संवैधानिक अधिकार की पवित्रता को नष्ट करने के लिए इस प्रणाली पर आक्रमण कर रही है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी हालिया टिप्पणी में, देशभर के सभी राज्य चुनाव आयुक्तों को निर्देशित किया है कि सरकारी कर्मचारी या नौकरशाह को चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता है और वर्तमान में जो अतिरिक्त प्रभार संभाल रहे हैं, उन्हें तुरंत पद छोड़ने के लिए कहा है.

राज्य चुनाव आयुक्त स्वतंत्र
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से यह स्पष्ट है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संचालन के लिए जिम्मेदार राज्य चुनाव आयुक्त की स्वतंत्रता के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता है. साथ ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया में सुधार किया जाना चाहिए.

भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक विशेष तंत्र बनाने की इच्छा की थी. लेकिन आज चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों में तमाम तरह की खामियां दिख रही हैं, जो अंबेडकर की इच्छा पर ध्यान न देने का परिणाम है.

भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एम.एस. गिल ने कहा था कि मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को अपने चारों ओर एक घेरा बनाना चाहिए और अपने संवैधानिक तथा नैतिक दायित्वों को पूरा करने के लिए इसके केंद्र में खड़ा होना चाहिए.

जी-हुजूरी करने वालों को मिलता है मौका
ऐसे ईमानदार व्यक्तियों को शीर्ष स्थान पर चुनने के लिए आज देश में कोई तंत्र नहीं है. इस परिदृश्य में, राजनीतिक दलों की इच्छा चयन प्रक्रिया में प्रमुख रूप से शामिल है, जिसके कारण उनकी जी-हुजूरी करने वालों को महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया जाता है.

वर्ष 2017 में, केंद्र सरकार ने संसद में यह स्पष्ट कर दिया था कि उसके पास केंद्रीय मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में शेष राजनीतिक दलों से परामर्श करने की कोई योजना नहीं है, और न ही सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की स्थापना के किसी प्रस्ताव पर विचार कर रही है.

भाजपा के दिग्गज एलके आडवाणी ने वर्ष 2012 में खुद कहा था कि सीईसी की वर्तमान चयन प्रक्रिया बहुत सारी अनियमितताओं से भरी है, इसलिए विपक्षी दलों को भी सीएजी और सीईसी की नियुक्ति प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर दिया जाना चाहिए.

यह भी पढ़ें- ममता की चोट पर तृणमूल कांग्रेस का ज्ञापन 'आक्षेपों' से भरा : चुनाव आयोग

इसी तरह की सिफारिशें 2006 में तत्कालीन सीईसी बीबी टंडन और 2009 में तत्कालीन सीईसी गोपाल स्वामी द्वारा की गई थीं.

2015 में, विधि आयोग ने भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के प्रधान न्यायाधीश की एक कॉलेजियम की स्थापना करने का आह्वान किया था.

सत्तारूढ़ दल पर दुरुपयोग का आरोप
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सत्तारूढ़ पार्टी के एकतरफा फैसलों को समाप्त करने की मांग इस तथ्य से उचित है कि नियुक्ति प्रक्रिया का बार-बार दुरुपयोग किया जाता है.

कनाडा में मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्त हाउस ऑफ कॉमन्स के प्रस्ताव के आधार पर की जाती है, इसलिए वह केवल कनाडा की संसद के प्रति जवाबदेह होता है. यही प्रक्रिया भारत में भी अपनाने के लायक है.

यदि चुनावी प्रक्रिया में लोगों के विश्वास को बहाल करना है, तो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया में पूरी तरह से सुधार किया जाना चाहिए. देश में तत्काल एक ऐसा तंत्र बनाने की जरूरत है, जो स्वतंत्र चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करने में सक्षम हो.

हैदराबाद : भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में चुनाव, कुंभ मेले से कम नहीं है. दुर्भाग्य से, लोकतंत्र का यह पवित्र पर्व अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को खो रहा है. देश में चुनावी मूल्य उस समय बहुत गिर गए थे, जब टी.एन. शेषन ने 1990 के दशक में मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) का पद संभाला था. इसमें सुधार करने के लिए पर्याप्त उपायों की कमी थी. इसके पतन के रूप में, चुनाव आयोग की नियुक्ति में राजनीतिक दखल बढ़ गई.

गोवा सरकार के राज्य के विधि सचिव को राज्य चुनाव आयुक्त के रूप में अतिरिक्त प्रभार देने के फैसले को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियां अमूल्य हैं. सुप्रीम कोर्ट ने पहले यह स्पष्ट किया था कि राज्य निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में केंद्रीय निर्वाचन आयोग के समान शक्तियां प्राप्त हैं.

राज्य चुनाव आयुक्त पंचायत और नगर निगम चुनाव कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. लेकिन गलत राजनीति राज्य चुनाव आयुक्त के संवैधानिक अधिकार की पवित्रता को नष्ट करने के लिए इस प्रणाली पर आक्रमण कर रही है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी हालिया टिप्पणी में, देशभर के सभी राज्य चुनाव आयुक्तों को निर्देशित किया है कि सरकारी कर्मचारी या नौकरशाह को चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता है और वर्तमान में जो अतिरिक्त प्रभार संभाल रहे हैं, उन्हें तुरंत पद छोड़ने के लिए कहा है.

राज्य चुनाव आयुक्त स्वतंत्र
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से यह स्पष्ट है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संचालन के लिए जिम्मेदार राज्य चुनाव आयुक्त की स्वतंत्रता के साथ कोई समझौता नहीं हो सकता है. साथ ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया में सुधार किया जाना चाहिए.

भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक विशेष तंत्र बनाने की इच्छा की थी. लेकिन आज चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों में तमाम तरह की खामियां दिख रही हैं, जो अंबेडकर की इच्छा पर ध्यान न देने का परिणाम है.

भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एम.एस. गिल ने कहा था कि मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को अपने चारों ओर एक घेरा बनाना चाहिए और अपने संवैधानिक तथा नैतिक दायित्वों को पूरा करने के लिए इसके केंद्र में खड़ा होना चाहिए.

जी-हुजूरी करने वालों को मिलता है मौका
ऐसे ईमानदार व्यक्तियों को शीर्ष स्थान पर चुनने के लिए आज देश में कोई तंत्र नहीं है. इस परिदृश्य में, राजनीतिक दलों की इच्छा चयन प्रक्रिया में प्रमुख रूप से शामिल है, जिसके कारण उनकी जी-हुजूरी करने वालों को महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया जाता है.

वर्ष 2017 में, केंद्र सरकार ने संसद में यह स्पष्ट कर दिया था कि उसके पास केंद्रीय मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में शेष राजनीतिक दलों से परामर्श करने की कोई योजना नहीं है, और न ही सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की स्थापना के किसी प्रस्ताव पर विचार कर रही है.

भाजपा के दिग्गज एलके आडवाणी ने वर्ष 2012 में खुद कहा था कि सीईसी की वर्तमान चयन प्रक्रिया बहुत सारी अनियमितताओं से भरी है, इसलिए विपक्षी दलों को भी सीएजी और सीईसी की नियुक्ति प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर दिया जाना चाहिए.

यह भी पढ़ें- ममता की चोट पर तृणमूल कांग्रेस का ज्ञापन 'आक्षेपों' से भरा : चुनाव आयोग

इसी तरह की सिफारिशें 2006 में तत्कालीन सीईसी बीबी टंडन और 2009 में तत्कालीन सीईसी गोपाल स्वामी द्वारा की गई थीं.

2015 में, विधि आयोग ने भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के प्रधान न्यायाधीश की एक कॉलेजियम की स्थापना करने का आह्वान किया था.

सत्तारूढ़ दल पर दुरुपयोग का आरोप
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सत्तारूढ़ पार्टी के एकतरफा फैसलों को समाप्त करने की मांग इस तथ्य से उचित है कि नियुक्ति प्रक्रिया का बार-बार दुरुपयोग किया जाता है.

कनाडा में मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्त हाउस ऑफ कॉमन्स के प्रस्ताव के आधार पर की जाती है, इसलिए वह केवल कनाडा की संसद के प्रति जवाबदेह होता है. यही प्रक्रिया भारत में भी अपनाने के लायक है.

यदि चुनावी प्रक्रिया में लोगों के विश्वास को बहाल करना है, तो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया में पूरी तरह से सुधार किया जाना चाहिए. देश में तत्काल एक ऐसा तंत्र बनाने की जरूरत है, जो स्वतंत्र चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करने में सक्षम हो.

Last Updated : Mar 16, 2021, 5:20 PM IST
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