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जानें मृत आत्माओं की पूजा की 100 साल पुरानी परंपरा - dhulandi holi celebrated

राजस्थान के प्रतापगढ़ में होली दहन के 12 दिन बाद धुलंडी पर अलग ही नजारा देखने को मिलता है.आदिवासी बाहुल्य प्रतापगढ़ जिले में आदिवासी समुदाय आज भी 100 साल पुरानी परंपरा का निर्वाह करते हुए होली के अगले दिन धुलंडी पर रंग नहीं खेलता. पूर्व राजघराने में शोक के चलते होली के 12 दिन बाद रंग तेरस पर रंगों का पर्व मनाया जाता है. जिले भर में होली पर लोक परंपरा के अनुसार गेर नृत्य होते हैं.

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Published : Mar 29, 2021, 11:24 AM IST

प्रतापगढ़ : देशभर में होली के अगले दिन रंगों का पर्व धुलंडी मनाया जाता है, लेकिन आदिवासी बाहुल्य प्रतापगढ़ जिले में आदिवासी समुदाय आज भी 100 साल पुरानी परंपरा का निर्वाह करते हुए होली के अगले दिन धुलंडी पर रंग नहीं खेलता. पूर्व राजघराने में शोक के चलते होली के 12 दिन बाद रंग तेरस पर रंगों का पर्व मनाया जाता है. देश में कई जगहों पर होली मनाने की अलग परंपरा है.

प्रतापगढ़ में आदिवासी समुदाय आज भी 100 साल पुरानी परंपरा के तहत होली मनाते हैं...

प्रतापगढ़ में होली दहन के 12 दिन बाद धुलंडी पर अलग ही नजारा देखने को मिलता है. जिले भर में होली पर लोक परंपरा के अनुसार, गेर नृत्य होते हैं. इसके साथ ही फूलों और गुलाल से होली खेली जाती है. इसमें रंगे नृत्य और आदिवासी संस्कृति का अनूठा समावेश देखने को मिलता है. जिले के धरियावद उपखंड में धुलंडी के दिन ढूंढ़ोत्सव होता है. इसी तरह बारावरदा क्षेत्र में होली के अगले दिन गेर खेलकर होली के सात फेरे लगाए जाते हैं. निकटवर्ती टांडा और मानपुरा गांव में लठमार होली खेली जाती है.

पारंपरिक वेशभूषा के साथ होता है गेर नृत्य...
जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर बारावरदा, मेरियाखेड़ी, मथुरा तालाब, नकोर में आदिवासी पिछले 100 साल से धुलंडी के पर पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर गेर नृत्य करते आ रहे हैं. ऐसी मान्यता है कि पूरे साल के बीच परिणय सूत्र में बंधे वैवाहिक जोड़े को धुलंड़ी के दिन सज धज कर होली के सात फेरे लगाकर गेर नृत्य करना होता है. ऐसा करने से दांपत्य जीवन सुखी और खुशहाल होता है. वहीं, साल भर में जिस किसी के घर में मृत्यु हो जाती है, वह भी धुलंडी को सात फेरे लेकर शोक खत्म करते हैं. शोक खत्म करने से पहले आदिवासी महिलाएं पल्ला लेकर मृत आत्मा के मोक्ष की कामना करती है. होली के बाद शोक वाले घर में शोक नहीं मनाया जाता. घरों में मृत व्यक्ति की मोक्ष की कामना के साथ उसे दोबारा याद नहीं करने का प्रण भी होलिका के सामने लिया जाता है. यहां के लोगों का मानना है कि होली के सात फेरे लेने से साल भर तक व्यक्ति बीमार नहीं होता है. साथ ही, खेतों में फसलें लहलहाती रहती है. इसके साथ ही होली के फेरे लगाकर आदिवासी समाज देश में खुशहाली की कामना करता है.

पढ़ें- पूरे देश में कोरोना संकट के बीच मनाई जा रही होली

लोक देवता को खुश करने के लिए मनाया जाता है उत्सव
आदिवासी समाज के अनुसार, होली दहन के बाद दूसरे दिन राज परिवार में एक शौक के चलते होली तो नहीं खेली जाती, लेकिन होली दहन के बाद समाज के लोग धुलंडी के दिन होली की भस्म के सात फेरे जरूर लगाते हैं. यह एक सामाजिक परंपरा है. इस दौरान होली की फसलों में से आने वाले भविष्य और मौसम की भविष्यवाणी भी समाज के बुजुर्ग करते हैं. वहीं, आदिवासी महिलाएं होली को जल्द से ठंडा कर लोकगीत गाती है. समाज में खुशहाली की प्रार्थना करती है.

प्रतापगढ़ : देशभर में होली के अगले दिन रंगों का पर्व धुलंडी मनाया जाता है, लेकिन आदिवासी बाहुल्य प्रतापगढ़ जिले में आदिवासी समुदाय आज भी 100 साल पुरानी परंपरा का निर्वाह करते हुए होली के अगले दिन धुलंडी पर रंग नहीं खेलता. पूर्व राजघराने में शोक के चलते होली के 12 दिन बाद रंग तेरस पर रंगों का पर्व मनाया जाता है. देश में कई जगहों पर होली मनाने की अलग परंपरा है.

प्रतापगढ़ में आदिवासी समुदाय आज भी 100 साल पुरानी परंपरा के तहत होली मनाते हैं...

प्रतापगढ़ में होली दहन के 12 दिन बाद धुलंडी पर अलग ही नजारा देखने को मिलता है. जिले भर में होली पर लोक परंपरा के अनुसार, गेर नृत्य होते हैं. इसके साथ ही फूलों और गुलाल से होली खेली जाती है. इसमें रंगे नृत्य और आदिवासी संस्कृति का अनूठा समावेश देखने को मिलता है. जिले के धरियावद उपखंड में धुलंडी के दिन ढूंढ़ोत्सव होता है. इसी तरह बारावरदा क्षेत्र में होली के अगले दिन गेर खेलकर होली के सात फेरे लगाए जाते हैं. निकटवर्ती टांडा और मानपुरा गांव में लठमार होली खेली जाती है.

पारंपरिक वेशभूषा के साथ होता है गेर नृत्य...
जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर बारावरदा, मेरियाखेड़ी, मथुरा तालाब, नकोर में आदिवासी पिछले 100 साल से धुलंडी के पर पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर गेर नृत्य करते आ रहे हैं. ऐसी मान्यता है कि पूरे साल के बीच परिणय सूत्र में बंधे वैवाहिक जोड़े को धुलंड़ी के दिन सज धज कर होली के सात फेरे लगाकर गेर नृत्य करना होता है. ऐसा करने से दांपत्य जीवन सुखी और खुशहाल होता है. वहीं, साल भर में जिस किसी के घर में मृत्यु हो जाती है, वह भी धुलंडी को सात फेरे लेकर शोक खत्म करते हैं. शोक खत्म करने से पहले आदिवासी महिलाएं पल्ला लेकर मृत आत्मा के मोक्ष की कामना करती है. होली के बाद शोक वाले घर में शोक नहीं मनाया जाता. घरों में मृत व्यक्ति की मोक्ष की कामना के साथ उसे दोबारा याद नहीं करने का प्रण भी होलिका के सामने लिया जाता है. यहां के लोगों का मानना है कि होली के सात फेरे लेने से साल भर तक व्यक्ति बीमार नहीं होता है. साथ ही, खेतों में फसलें लहलहाती रहती है. इसके साथ ही होली के फेरे लगाकर आदिवासी समाज देश में खुशहाली की कामना करता है.

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लोक देवता को खुश करने के लिए मनाया जाता है उत्सव
आदिवासी समाज के अनुसार, होली दहन के बाद दूसरे दिन राज परिवार में एक शौक के चलते होली तो नहीं खेली जाती, लेकिन होली दहन के बाद समाज के लोग धुलंडी के दिन होली की भस्म के सात फेरे जरूर लगाते हैं. यह एक सामाजिक परंपरा है. इस दौरान होली की फसलों में से आने वाले भविष्य और मौसम की भविष्यवाणी भी समाज के बुजुर्ग करते हैं. वहीं, आदिवासी महिलाएं होली को जल्द से ठंडा कर लोकगीत गाती है. समाज में खुशहाली की प्रार्थना करती है.

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