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फ्लैग स्टाफ टावर : विद्रोही सैनिकों के डर से भागे थे अंग्रेज, ऐसे बचाई थी जान

1828 में बना फ्लैग स्टाफ टावर दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस के पास रिज क्षेत्र में है. 11 मई 1857 में जब विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली पर धावा बोल दिया, तब अंग्रेज अधिकारी उनसे डर कर यहां छिपे थे. कुछ समय बाद अंग्रेजों ने यहां फिर से कब्जा कर लिया और दोबारा अंग्रेजी हुकूमत का झंडा फहराया.

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Published : Aug 15, 2021, 7:58 PM IST

नई दिल्ली : देश की राजधानी दिल्ली, कई ऐतिहासिक क्षणों की गवाह रही है. कालचक्र के पन्ने बताते हैं कि दिल्ली का इतिहास महाभारत जितना ही प्राचीन है. चाहे इंद्रप्रस्थ के तौर पर पांडवों का निवास हो या फिर मुगल शासकों द्वारा ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण, दिल्ली हर दौर की साक्षी रही है.

1947 की क्रांति और उससे पूर्व हुए स्वाधीनता आंदोलन में भी दिल्ली, वैश्विक पटल पर प्रथम भूमिका में रही. दिल्ली ने देश की मिट्टी की आज़ादी के लिए लड़ने वाले कई वीरों का हौसला देखा है, उनका जुनून, उनकी दीवानगी देखी है. दिल्ली ने कई वीरों के बलिदान भी देखे, जिनके शहीद होने पर दिल्ली ने उन्हें अपनी मिट्टी में पनाह भी दी है.

विद्रोही सैनिकों के डर से भागे थे अंग्रेज

इन्ही एतिहासिक वृत्तांतों की एक तस्वीर है, दिल्ली स्थित फ्लैगस्टाफ टावर. कमला नेहरू रिज के बीचों-बीच स्थित यह स्थान आज़ादी की पहली लड़ाई का महत्वपूर्ण प्रमाण रहा है. वर्तमान में सिविल लाइंस का यह स्थान दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस के पास स्थित है, जहां उस वक्त अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा करने के बाद अपनी छावनी बनाई थी. यहीं अग्रंजों ने एक टावर का निर्माण कराया था, जिस पर अंग्रेजी शासन का झंडा लहराता था. इसी कारण आज भी पुरानी दिल्ली के लोगों में यह स्थान बावटा नाम से मशहूर है, जिसका मतलब है झंडा फहराने वाला स्थान, लेकिन अंग्रेजी शासकों का झंडा ज्यादा वक्त तक नहीं लहरा सका. 1857 की क्रांति ने इस जगह की भूमिका पर नया अध्याय लिख दिया.

11 मई 1857 को विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली पर धावा बोला और देखते ही देखते पूरी दिल्ली में फैल गए. उस वक्त दिल्ली में रह रहे अंग्रेज अधिकारी विद्रोही सैनिकों से डरकर खुद और अपने परिजनों के लिए किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में थे, तब उन्होंने बड़ी संख्या में इस फ्लैग स्टाफ टावर में शरण लेने का फैसला किया. अंग्रेजी अधिकारियों ने अपने सैनिक और उनके परिजनों के साथ इसी स्थान से छिपते हुए हरियाणा के करनाल का सफर तय किया था.

बाद में जब जुलाई 1857 में अंग्रेज वापस दिल्ली आए तब इस जगह पर दोबारा कब्जे के लिए भी उन्हें विद्रोही सैनिकों का सामना करना पड़ा.

सदियों का इतिहास अपने अंदर संजोए यह इमारत आज भी दिल्ली की सरजमीं पर खड़ी है. इस इमारत में आज भी विद्रोही सैनिकों से अंग्रेजों का डर गूंजता है और आजादी की पहली जंग की हुंकार को सलामी देता है. इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में इस फ्लैग स्टाफ टावर पर झंडे का डंडा तो है, लेकिन झंडा नहीं. वहीं अंग्रेजी शासन में वीरान जैसी दिखने वाली यह जगह आज पूरी तरह से हरा-भरा पर्यटन स्थल है, जहां आकर लोग देश के अतीत को याद करते हैं.

ये भी पढ़ें- करगिल युद्ध में 17 गोलियां झेलने वाले जवान की कहानी, खुद उन्हीं की जुबानी

नई दिल्ली : देश की राजधानी दिल्ली, कई ऐतिहासिक क्षणों की गवाह रही है. कालचक्र के पन्ने बताते हैं कि दिल्ली का इतिहास महाभारत जितना ही प्राचीन है. चाहे इंद्रप्रस्थ के तौर पर पांडवों का निवास हो या फिर मुगल शासकों द्वारा ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण, दिल्ली हर दौर की साक्षी रही है.

1947 की क्रांति और उससे पूर्व हुए स्वाधीनता आंदोलन में भी दिल्ली, वैश्विक पटल पर प्रथम भूमिका में रही. दिल्ली ने देश की मिट्टी की आज़ादी के लिए लड़ने वाले कई वीरों का हौसला देखा है, उनका जुनून, उनकी दीवानगी देखी है. दिल्ली ने कई वीरों के बलिदान भी देखे, जिनके शहीद होने पर दिल्ली ने उन्हें अपनी मिट्टी में पनाह भी दी है.

विद्रोही सैनिकों के डर से भागे थे अंग्रेज

इन्ही एतिहासिक वृत्तांतों की एक तस्वीर है, दिल्ली स्थित फ्लैगस्टाफ टावर. कमला नेहरू रिज के बीचों-बीच स्थित यह स्थान आज़ादी की पहली लड़ाई का महत्वपूर्ण प्रमाण रहा है. वर्तमान में सिविल लाइंस का यह स्थान दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस के पास स्थित है, जहां उस वक्त अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा करने के बाद अपनी छावनी बनाई थी. यहीं अग्रंजों ने एक टावर का निर्माण कराया था, जिस पर अंग्रेजी शासन का झंडा लहराता था. इसी कारण आज भी पुरानी दिल्ली के लोगों में यह स्थान बावटा नाम से मशहूर है, जिसका मतलब है झंडा फहराने वाला स्थान, लेकिन अंग्रेजी शासकों का झंडा ज्यादा वक्त तक नहीं लहरा सका. 1857 की क्रांति ने इस जगह की भूमिका पर नया अध्याय लिख दिया.

11 मई 1857 को विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली पर धावा बोला और देखते ही देखते पूरी दिल्ली में फैल गए. उस वक्त दिल्ली में रह रहे अंग्रेज अधिकारी विद्रोही सैनिकों से डरकर खुद और अपने परिजनों के लिए किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में थे, तब उन्होंने बड़ी संख्या में इस फ्लैग स्टाफ टावर में शरण लेने का फैसला किया. अंग्रेजी अधिकारियों ने अपने सैनिक और उनके परिजनों के साथ इसी स्थान से छिपते हुए हरियाणा के करनाल का सफर तय किया था.

बाद में जब जुलाई 1857 में अंग्रेज वापस दिल्ली आए तब इस जगह पर दोबारा कब्जे के लिए भी उन्हें विद्रोही सैनिकों का सामना करना पड़ा.

सदियों का इतिहास अपने अंदर संजोए यह इमारत आज भी दिल्ली की सरजमीं पर खड़ी है. इस इमारत में आज भी विद्रोही सैनिकों से अंग्रेजों का डर गूंजता है और आजादी की पहली जंग की हुंकार को सलामी देता है. इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में इस फ्लैग स्टाफ टावर पर झंडे का डंडा तो है, लेकिन झंडा नहीं. वहीं अंग्रेजी शासन में वीरान जैसी दिखने वाली यह जगह आज पूरी तरह से हरा-भरा पर्यटन स्थल है, जहां आकर लोग देश के अतीत को याद करते हैं.

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