हैदराबाद : रक्षा मंत्रालय ने 30 नवंबर को 2.23 लाख करोड़ रु. के रक्षा खरीद को मंजूरी प्रदान कर दी. इस खरीद से सेना, नौसेना और वायु सेना- यानी तीनों बलों को मजबूती मिलेगी. इनमें से 2.20 लाख करोड़ रु. यानी 98 फीसदी की खरीद घरेलू उद्योगों से की जाएगी. इससे 'आत्मनिर्भर भारत अभियान' को एक नया बल मिलेगा.
यह सच है कि रक्षा खरीद को मंजूरी मिल चुकी है, इसके बावजूद भारत में रक्षा सामग्री खरीद प्रक्रिया में विलंब होता है. उसे बहुत सारी कठिन और जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है. यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि यह सब तब है जबकि रक्षा सामग्री खरीदने की प्रक्रियाओं को काफी हद तक सुधारा गया है. इसका मतलब है कि अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है.
शुरुआत में भारत में रक्षा उत्पादन को औद्योगिक नीति 1956 के तहत नियंत्रित किया जाता था. बाद में जैसे-जैसे जरूरत और आपूर्ति के बीच खाई बढ़ती गई, उदारीकरण की नीति की वजह से जिस तरह से निजी उद्योगों को बल मिला और सोवियत संघ का विघटन हुआ, अन्य विकल्पों पर विचार किया जाने लगा. निश्चित दिशा-निर्देश और स्पष्ट नीति के अभाव में पहली बार 1989 में लोकलेखा समिति की 187वीं रिपोर्ट में खरीद प्रक्रियाओं का उल्लेख किया गया था.
कारिगल युद्ध के बाद 2001 में मंत्रिमंडल समूह की अनुशंसाओं के आधार पर सैन्य सामानों की खरीद पर नीति निर्धारण और कैपिटल प्राप्ति के लिए रक्षा अधिग्रहण परिषद का गठन किया गया. इसके ठीक एक साल बाद 2002 में रक्षा खरीद प्रक्रिया (डिफेंस प्रोक्योरमेंट प्रक्रिया) को लाया गया. यह एक प्रकार का गाइडिंग दस्तावेज था. तब से इसे 18 बार संशोधित किया जा चुका है. 2020 में इसका नाम डीपीपी से बदलकर डिफेंस एक्विजिशन प्रोसिज्योर (डीएपी) कर दिया गया. आत्मनिर्भर भारत की दिशा में उठाया गया यह एक बड़ा कदम था.
डीएपी 2020 ने अंतर-सरकारी समझौतों में ऑफसेट क्लॉज की आवश्यकता को हटा दिया और सैन्य उपकरणों के पट्टे के लिए एक नई श्रेणी की शुरुआत की. ऑफसेट क्लॉज के तहत किसी भी विदेशी कंपनी को रक्षा डील प्राप्त होने पर कॉन्ट्रैक्ट वैल्यू का 30 फीसदी भारत में निवेश करना होता था. मकसद यह था कि स्किल और टेक्नोलॉजी भारत आएगी. रोजगार भी बढ़ेगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
ऑफसेट की नीति 17 सालों तक चली, लेकिन उसकी आलोचना इसलिए की जाती रही क्योंकि यह इच्छित परिणाम नहीं ला सका. इससे किसी भी लोकल एंटरप्राइजेज को कोई फायदा नहीं पहुंचा. न ही उन्हें कोई तकनीक ट्रांसफर किया गया. इसलिए सरकार ने इसकी जगह पर उपकरणों को लीज पर लेना शुरू किया.
लेकिन डीएपी ने भी रक्षा खरीद व्यवस्था में कई लेयर जोड़ दिए, जिसकी वजह से जटिलताएं बढ़ती गईं. डीएपी ने प्रक्रियाओं के पूरे करने के लिए 74-106 सप्ताह का समय निर्धारित कर दिया. हालांकि, इनका पालन शायद ही कभी किया गया. जैसे, 66 बीएई सिस्टम हॉक 132 एडवांस्ड जेट ट्रेनर के लिए 2003 में समझौता हुआ था. इस समझौते को पूरे होने में 20 साल लग गए. एयरबस डिफेंस एंड स्पेस के साथ 56 सी295एमड्बूल मीडियम ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट की खरीद प्रक्रिया पूरी होते-होते 10 साल का समय लग गया. इसे सितंबर 2021 में अंतिम स्वरूप दिया गया.
डीएपी ने रक्षा खरीद प्रक्रियाओं के लिए कुल 12 स्टेप फाइनल किए थे. इनमें उपकरणों की आवश्यकता की स्वीकृति, प्रस्ताव के लिए अनुरोध, तकनीकी मूल्यांकन, ट्रेल, जनरल स्टाफ मूल्यांकन, कॉन्ट्रैक्ट नेगोशिएशन और अप्रूवल शामलि हैं. जिस वक्त कॉन्ट्रैक्ट नेगोशिएशंस चल रहा होता है, मोलभाव के लिए कमेटी बनती है. उसके अनुमोदन में भी कई लेयर शामिल होते हैं. आर्मी, नेवी और वायु सेना के प्रमुखों को 300 करोड़ तक के सौदों को अंतिम रूप देने की शक्ति होती है. रक्षा सचिव 500 करोड़ तक के सौदे को मंजूरी दे सकते हैं. रक्षा मंत्री 2000 करोड़ रु तक के सौदे को मंजूरी दे सकते हैं. वित्त मंत्री के पास 3000 करोड़ रु तक के सौदे को मंजूरी देने की शक्ति होती है. इससे बड़ी राशि पर कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी तय करती है. इस कमेटी की अध्यक्षता पीएम करते हैं.
2020-21 से लेकर 2022-23 तक कुल 122 कॉन्ट्रैक्ट पर हस्ताक्षर किए गए. इनमें से 87 फीसदी का वैल्यू 100 कॉन्ट्रैक्ट से जुड़ा है. और ये सभी भारतीय वैंडर से जुड़े हैं. यह बात सही है कि डीएपी 2020 ने रक्षा सेक्टर में घरेलू सेक्टर को प्राथमिकता दिया, फिर भी इस व्यवस्था में कमी है. डीएपी 2020 ने तीन कैटेगरी बनाई. बाय इंडियन, बाय एंड मेक इंडियन, बाय ग्लोबल-मैन्युफैक्चर इन इंडिया. बाय ग्लोबल में 30 फीसदी इंडियन कॉंटेंट होना जरूरी है. फिर चाहे वह लार्ज प्रोजेक्ड से जुड़ा हो या फिर दो सरकारों के बीच डील हो. बाकी की दो कैटेगरी में 50 फीसदी तक इंडियन कॉन्टेंट का होना जरूरी है.
सैन्य मामलों के जानकार बताते हैं कि इस व्यवस्था में भी खामियां हैं. उनका मानना है कि आयातित कॉंटेंट को सुविधा की वजह से मंगाया जा रहा है या फिर किसी बाध्यता की वजह से. दूसरी बात यह है कि इंडियन कॉन्टेंट का निर्धारण कॉस्ट की वजह से तय किया जाता है.
उनका कहना है कि इंडियन कॉंटेंट को परिभाषित किया जाना चाहिए. यानी कि क्रिटिकल टेक्नोलॉजी को आयात कर कभी भी आत्म निर्भरता को नहीं अपना सकते हैं. हमारे विनिर्माताओं को अनुसंधान और विकास पर अधिक से अधिक निवेश करना होगा, ताकि वे उस क्रिटिकल कंपोनेंट का निर्माण कर सकें.
बेहतर होगा कि भारत में भी ब्रिटेन, फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया जैसी यूनिफाइड कंट्रोल सिस्टम बने. फ्रांस में हथियार अधिग्रहण और रक्षा औद्योगिक विकास की दोहरी जिम्मेवारी तय की गई है. यहां पर रक्षा खरीद प्रक्रिया एकीकृत है. भारत में 2005 में केलकर कमेटी ने भी फ्रांस जैसी व्यवस्था अपनाने की सलाह दी थी.
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