चंडीगढ़ : पंजाब में वाम पार्टियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहीं हैं. 1984 में 'ब्लू स्टार ऑपरेशन' और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद से वाम दलों का ग्राफ लगातार गिरता चला जा रहा है. वाम दलों के पुराने नेता अपने पद को छोड़ने को तैयार नहीं हो रहे हैं और नई पीढ़ी को मौका मिल नहीं रहा है. ऊपर से वाम दलों का विभाजन रही सही कसर पूरी कर रहा है.
पार्टी के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं ने विचारधारा का त्याग कर दिया. कुछेक ने दूसरी पार्टियों को ज्वाइन कर लिया. कुछेक नेता बचे हैं, वे पार्टी को बचाने की कोशिश में जुटे हुए हैं. हालांकि, इस बार भी वाम दलों ने राज्य विधानसभा की सभी 117 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. उम्मीद थी कि किसान आंदोलन के दौरान उनकी भूमिका की वजह से उन्हें किसानों से सहानुभूति मिलेगी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. किसान नेताओं ने भी उनमें रूचि नहीं दिखाई. हां, जब भी संघर्ष की जरूरत पड़ती है, तो लोग वाम पार्टियों को ओर रूख जरूर करते हैं. पर, जब चुनाव की बारी आती है, तो वे उन्हें मौका नहीं देना चाहते हैं. पिछले 20 सालों से पंजाब विधानसभा में वाम दलों का एक भी प्रतनिधि विधानसभा का सदस्य नहीं बना है. उनके अधिकांश उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जाती है.
हां, सीपीआई और सीपीएम पार्टियां विधानसभा के हर चुनाव में मैदान में उतरती जरूर हैं. एक वक्त था, जब 1977 में सीपीआई ने 18 में से सात सीटें जीती थीं, और सीपीएम ने आठ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिसमें से उन्हें सभी सीटों पर जीत मिली थी. यह उनका गोल्डेन फेज था. 1957 में वाम दल का वोट प्रतिशत 13.56 फीसदी था, जबकि उन्हें छह सीटों पर जीत मिली थी. 2007 से उन्हें एक भी सीट नहीं मिल रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में सीपीआई का वोट प्रतिशत 0.22 फीसदी और सीपीएम का वोट प्रतिशत 0.07 फीसदी था.
पार्टी की असफलता के पीछे दो प्रमुख कारण हैं. पहला- बदलती हुई परिस्थिति के मुताबिक अपने को ढालने में असमर्थ और दूसरा- आंतरिक संघर्ष. 2002 विधानसभा चुनाव में सीपीआई के दो उम्मीदवार नाथूराम (मालौत से) और गुरजंत सिंह कुट्टीवाल (बठिंडा ग्रामीण से) कांग्रेस की मदद से जीते थे. बाद में दोनों नेताओं ने कांग्रेस ज्वाइन कर ली. विगत में प्रकाश सिंह बादल का गृह क्षेत्र गिद्दरबाहा कभी लेफ्ट का गढ़ हुआ करता था. चिरंजी लाल धीर बादल ने बादल परिवार के खिलाफ मोर्चा संभाल रखा था. ऐसा कहा जाता है कि बादल ने उस क्षेत्र में बड़े उद्योगों को जान-बूझकर स्थापित होने नहीं दिया, ताकि 'लाल झंडा' वाले मजदूरों को वहां पर पनपने का मौका न मिले. लेकिन धीर की अगली पीढ़ी, उनके बेटे अशोक धीर, पेशे से वकील, ने अकाली दल ज्वाइन कर लिया. कम्युनिस्ट पार्टी के कई नेताओं ने अकाली दल का दामन थाम लिया. उसके बाद कई नेताओं ने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का भी साथ दिया.
पंजाब में जब आतंकवाद हावी था, उस समय खालिस्तानियों और आतंकियों के खिलाफ वाम नेताओं ने मोर्चा खोल रखा था. परिणामस्वरूप कई वाम नेता मारे गए. पर, ब्लूस्टार ऑपरेशन और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वाम नेताओं का प्रभाव घटने लगा. उनका जनाधार लगातार सिकुड़ता चला गया. कुछ मामलों में पार्टी की विचारधारा राज्य की जनता की आम भावना के अनुकूल ही नहीं थी. इसलिए युवाओं के बीच वाम पार्टी के प्रति कोई आकर्षण नहीं रह गया था, बल्कि उनका झुकाव सिख संस्थाओं की ओर होने लगा. 1985 में पंजाब विधानसभा चुनाव में सीपीआई का मत 4.44 प्रतिशत और सीपीएम का वोट प्रतिशत 1.92 रह गया.
राजनीतिक विश्लेषक सरबजीत धालीवाल कहते हैं कि 1980 से पहले दोनों ही वाम पार्टियों का ग्राफ ठीक था. लेकिन बाद में पंजाब के कई मामलों में पार्टी ने जो रवैया अपनाया, उसने उन्हें सीमित कर दिया. यहां तक कि चरमपंथी भी उनसे दूरी बनाने लगे. पिछले 40 सालों से वाम पार्टियों को कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार गुरुपदेश भुल्लर का कहना है कि कम्युनिस्टों का आपस में विभाजित होना उन्हें भारी पड़ गया. पार्टी में नए लोगों को जोड़ा जाए, ऐसी कोई प्रवृत्ति ही नहीं दिखी. उम्र होने के बावजूद सीनियर नेता अपना पद छोड़ना नहीं चाहते हैं. वे नए लोगों को मौका देने को तैयार नहीं हैं.
सीपीआईएमएल के राजविंदर सिंह राणा का मानना है कि वास्तविक लड़ाई पूंजीवादियों के खिलाफ है. उनके अनुसार पूंजीवादी शक्ति गरीबों को खरीद लेते हैं. राणा नहीं चाहते थे कि वाम नेता किसान आंदोलन का समर्थन करें. दूसरी ओर ये भी हकीकत है कि उनके नेता पूंजीवादियों के प्रभाव में आए हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. सीपीआई महासचिव बंत सिंह ने कहा कि लड़ाई हमेशा विचारधारा की होती है. हमारी पार्टी हमेशा से गरीबों के लिए लड़ी है. पिछड़ों के लिए खड़ी रही है. इसलिए अमीर और सांप्रदायिक उनकी पार्टी को कमजोर करने का प्रयत्न करते रहते हैं.
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