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Supreme court Comment: देर से दर्ज कराई गई FIR वाले मामलों में अदालतें सतर्क रहें : सुप्रीम कोर्ट

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Sep 7, 2023, 1:14 PM IST

Updated : Sep 12, 2023, 2:57 PM IST

उच्चतम न्यायालय ने 1989 को हत्या के आरोप में उच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है. 5 सितंबर को दिए गए अपने फैसले में पीठ ने कहा कि जब उचित स्पष्टीकरण के अभाव में एफआईआर में देरी होती है, तो अदालतों को सतर्क रहना चाहिए. स्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने इस मामले में पहले की सजा को यह कहते हुए पलट दिया कि छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने मामले में सबूतों और गवाहों के बयानों की पर्याप्त जांच नहीं की थी।

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नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा है कि जब किसी मामले में बिना किसी उचित स्पष्टीकरम के FIR देरी से दर्ज कराई जाती है तो अदालतों को सतर्क रहना चाहिए और साक्ष्यों का सावधानीपूर्वक परीक्षण करना चाहिए. शीर्ष अदालत ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के फैलसे को पलटते हुए उन दो लोगों को बरी कर दिया जिनको 1989 में दर्ज एक मामले में हत्या के अपराध के लिए दोषसिद्धि और आजीवन कारावास की सजा हुई थी. कोर्ट ने यह भी कहा कि हालांकि एफआईआर दर्ज करने में देरी के संबंध में मुखबिर, जो मामले में अभियोजन पक्ष का गवाह था, से कोई विशेष सवाल नहीं पूछा गया होगा, लेकिन तथ्य यह है कि 'यह एक देरी से एफआईआर थी' इसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

पीठ ने अपीलकर्ताओं - हरिलाल और परसराम - द्वारा दायर अपीलों पर अपना फैसला सुनाया, जिसमें उच्च न्यायालय के फरवरी 2010 के फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसने ट्रायल कोर्ट के जुलाई 1991 के आदेश को बरकरार रखा था. और उन्हें हत्या के लिए दोषी ठहराया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. इसमें कहा गया है कि तीन लोगों पर कथित तौर पर हत्या करने का मुकदमा चलाया गया था और निचली अदालत ने उन सभी को दोषी ठहराया था.

न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि 25 अगस्त 1989 को एक व्यक्ति की कथित हत्या के लिए आरोपियों पर मुकदमा चलाया गया था, जबकि मामले में प्राथमिकी अगले दिन बिलासपुर जिले में दर्ज की गई थी. 5 सितंबर को दिए गए अपने फैसले में पीठ ने कहा, 'जब उचित स्पष्टीकरण के अभाव में एफआईआर में देरी होती है, तो अदालतों को सतर्क रहना चाहिए और अभियोजन की कहानी में बढ़ाव चढ़ाव की संभावना को खत्म करने के लिए साक्ष्यों का सावधानीपूर्वक परीक्षण करना चाहिए, क्योंकि देरी से विचार-विमर्श और अनुमान लगाने का अवसर मिलता है' न्यायालय ने आगे कहा कि इससे भी अधिक, ऐसे मामले में जहां घटना को किसी के न देखने की संभावना अधिक होती है, जैसे कि रात में किसी खुली जगह या सार्वजनिक सड़क पर घटना होने का मामला वहां और अधिक सतर्क हो जाना चाहिए.

यह भी पढ़ें : न सिर्फ अपराध बल्कि अपराधी, उसकी मानसिक स्थिति को ध्यान में रखना अदालतों का कर्तव्य है : SC

पीठ ने लोगों को बरी करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में सक्षम नहीं है कि अपराध की उत्पत्ति कैसे हुई और हत्या कैसे हुई और किसने की. पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष के साक्ष्य इस बात की प्रबल संभावना को जन्म देते हैं कि हत्या मृतक पर महिला के साथ उसकी कथित संलिप्तता के कारण भीड़ की कार्रवाई का परिणाम थी. उच्च न्यायलय ने अपील की अनुमति देते हुए कहा, 'उच्च न्यायालय के साथ-साथ ट्रायल कोर्ट के फैसले और आदेश को रद्द कर दिया गया है. अपीलकर्ताओं को उस आरोप से बरी किया जाता है जिसके लिए उन पर मुकदमा चलाया गया था'

(अतिरिक्त इनपुट-भाषा)

नई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा है कि जब किसी मामले में बिना किसी उचित स्पष्टीकरम के FIR देरी से दर्ज कराई जाती है तो अदालतों को सतर्क रहना चाहिए और साक्ष्यों का सावधानीपूर्वक परीक्षण करना चाहिए. शीर्ष अदालत ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के फैलसे को पलटते हुए उन दो लोगों को बरी कर दिया जिनको 1989 में दर्ज एक मामले में हत्या के अपराध के लिए दोषसिद्धि और आजीवन कारावास की सजा हुई थी. कोर्ट ने यह भी कहा कि हालांकि एफआईआर दर्ज करने में देरी के संबंध में मुखबिर, जो मामले में अभियोजन पक्ष का गवाह था, से कोई विशेष सवाल नहीं पूछा गया होगा, लेकिन तथ्य यह है कि 'यह एक देरी से एफआईआर थी' इसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

पीठ ने अपीलकर्ताओं - हरिलाल और परसराम - द्वारा दायर अपीलों पर अपना फैसला सुनाया, जिसमें उच्च न्यायालय के फरवरी 2010 के फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसने ट्रायल कोर्ट के जुलाई 1991 के आदेश को बरकरार रखा था. और उन्हें हत्या के लिए दोषी ठहराया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. इसमें कहा गया है कि तीन लोगों पर कथित तौर पर हत्या करने का मुकदमा चलाया गया था और निचली अदालत ने उन सभी को दोषी ठहराया था.

न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि 25 अगस्त 1989 को एक व्यक्ति की कथित हत्या के लिए आरोपियों पर मुकदमा चलाया गया था, जबकि मामले में प्राथमिकी अगले दिन बिलासपुर जिले में दर्ज की गई थी. 5 सितंबर को दिए गए अपने फैसले में पीठ ने कहा, 'जब उचित स्पष्टीकरण के अभाव में एफआईआर में देरी होती है, तो अदालतों को सतर्क रहना चाहिए और अभियोजन की कहानी में बढ़ाव चढ़ाव की संभावना को खत्म करने के लिए साक्ष्यों का सावधानीपूर्वक परीक्षण करना चाहिए, क्योंकि देरी से विचार-विमर्श और अनुमान लगाने का अवसर मिलता है' न्यायालय ने आगे कहा कि इससे भी अधिक, ऐसे मामले में जहां घटना को किसी के न देखने की संभावना अधिक होती है, जैसे कि रात में किसी खुली जगह या सार्वजनिक सड़क पर घटना होने का मामला वहां और अधिक सतर्क हो जाना चाहिए.

यह भी पढ़ें : न सिर्फ अपराध बल्कि अपराधी, उसकी मानसिक स्थिति को ध्यान में रखना अदालतों का कर्तव्य है : SC

पीठ ने लोगों को बरी करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में सक्षम नहीं है कि अपराध की उत्पत्ति कैसे हुई और हत्या कैसे हुई और किसने की. पीठ ने कहा कि अभियोजन पक्ष के साक्ष्य इस बात की प्रबल संभावना को जन्म देते हैं कि हत्या मृतक पर महिला के साथ उसकी कथित संलिप्तता के कारण भीड़ की कार्रवाई का परिणाम थी. उच्च न्यायलय ने अपील की अनुमति देते हुए कहा, 'उच्च न्यायालय के साथ-साथ ट्रायल कोर्ट के फैसले और आदेश को रद्द कर दिया गया है. अपीलकर्ताओं को उस आरोप से बरी किया जाता है जिसके लिए उन पर मुकदमा चलाया गया था'

(अतिरिक्त इनपुट-भाषा)

Last Updated : Sep 12, 2023, 2:57 PM IST
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