अजमेर. अजमेर सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह (Claim of Shivalay in Ajmer Sharif) में हिन्दू प्रतीक चिन्ह होने के दावे जैसा दरगाह में कुछ नहीं है. दावे के तहत जो स्वास्तिक (Khadims denied having swastika sign in Dargah) की तस्वीर दिखाई जा रही है. वह दरगाह के समीप ही ने ढाई दिन के झोपड़े की है. अजमेर दरगाह को लेकर उठे नए विवाद को लेकर दरगाह और ढाई दिन के झोपड़े में पुलिस ने सुरक्षा बढ़ा दी है. वहीं दोनों ही जगह पर वीडियो और फोटो लेने पर नजर रखी जा रही है.
अजमेर ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में हिन्दू प्रतीक चिन्ह 'स्वस्तिक' होने का दावा महाराणा प्रताप सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजवर्धन सिंह परमार ने किया था. वहीं अपने बयान के साथ परमार ने एक फोटो के बारे में भी जिक्र किया था. दरगाह में इस तरह के प्रतीक चिन्ह होने के दावों को दरगाह के खादिमों की संस्था अंजुमन कमेटी सिरे से खारिज कर चुकी है. वहीं पड़ताल में सामने आया है कि इस दावे के तार दरगाह से नहीं ढाई दिन के झोपड़े से जुड़े हुए हैं.
बताया जाता है कि वर्षों पहले कभी ढाई दिन के झोपड़े के स्थान पर संस्कृत पाठशाला हुआ करती थी. आज भी ढाई दिन के झोपड़े की इमारत पर हिन्दू संस्कृति और स्थापत्य से जुड़ी कई नक्काशियों देखी जा सकती हैं. ढाई दिन का झोपड़ा भारतीय पुरात्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है. दरगाह आने वाले जायरीन ढाई दिन का झोपड़ा देखने के लिए भी जाते हैं.
ढाई दिन के झोपड़े में लगी पत्थर की जालियां पर बने हैं स्वास्तिक...
दरगाह में हिन्दू प्रतीक चिन्ह होने के दावे के बाद से ही चर्चाओं का बाजार गर्म है. बताया जा रहा है कि ढाई दिन के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही उल्टे हाथ की ओर बनी इमारत में यह पत्थर की झांकिया लगी हुई हैं. उनमें स्वास्तिक चिन्ह हैं. यह वही जाली और स्वास्तिक चिन्ह है जो दावे के मुताबिक तस्वीर में हैं.
यह है ढाई दिन झोपड़े का इतिहास...
बताया जाता है कि ढाई दिन का झोपड़ा होने से पूर्व यहां संस्कृत पाठशाला थी. संस्कृत पाठशाला का निर्माण सम्राट बीसलदेव चौहान ने 1153 ईसवी में करवाया था. संस्कृत विद्यालय को परिवर्तित करके तात्कालिक शासक मोहम्मद गोरी के आदेश पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने वर्ष 1194 में यहां पाठशाला को परिवर्तित कर ढाई दिन के झोपड़ा का निर्माण करवाया था. यह निर्माण महज ढाई दिन में किया गया था जिस कारण इसका नाम 'ढाई दिन का झोपड़ा' पड़ गया.
दरगाह मौजूग मुख्य इमारतों और दावों की हकीकत
अजमेर में विश्व विख्यात सूफी संत ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह पर देश-दुनिया से करोड़ों लोग सजदा करने आते हैं. गंगा जमुनी तहजीब के लिए विख्यात दरगाह को लेकर इन दिनों एक नया विवाद खड़ा हो गया है. दावा किया गया है कि दरगाह परिसर में मौजूद इमारत में हिन्दू मंदिर के प्रतीक चिन्ह हैं. ईटीवी भारत आपको दरगाह के इतिहास के साथ दरगाह में मौजूद मुख्य इमारतों से भी रूबरू कराएगा. इससे उन दावों की हकीकत पर प्रकाश डाल सकेंगे.
ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में हर मजहब के लोग आते हैं. ऐसे में केवल मुसलमान ही नहीं, हिन्दू और अन्य धर्म जाति के करोड़ों लोगों में भी ख्वाजा गरीब नवाज में गहरी आस्था है. देश और दुनिया में ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह साम्प्रदायिक सदभाव की मिसाल है. ऐसे में दरगाह के लिए जो दावे महाराणा प्रताप सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजवर्धन परमार ने किए हैं वह काफी गभीर हैं. इन दावों से दरगाह में आस्था रखने वाले लोग भी हैरान हैं. हालांकि इन दावों के बाद भी दरगाह में आने वाले जायरीन पर कोई फर्क नहीं पड़ा है. ख्वाजा गरीब नवाज के खादिमों की संस्था अंजुमन कमेटी और दरगाह दीवान की ओर से उन दावों को खारिज कर दिया गया है. जाहिर है उन दावों को लेकर दरगाह और अजमेर प्रशासन में हलचल मची है, लेकिन इन दावों को गंभीरता से नहीं लिया गया है.
दरगाह में मीडिया पर भी लगाई रोक
दरगाह में हिन्दू प्रतिक चिन्ह होने के दावों के बाद से प्रशासन और पुलिस हरकत में आ गई है. दरगाह में मीडिया को जाने से रोका जा रहा है. वहीं भीतर मोबाइल पर रिकॉर्डिंग को लेकर भी रोक लगा दी गई है. दरसल दरगाह को लेकर किये गए दावों को लेकर लोगों में रोष है. किसी मीडिया कर्मी के साथ किसी तरह की कोई घटना न हो इसके लिए एतिहातन ऐसा किया गया है.
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दरगाह में हिन्दू प्रतीक चिन्ह और मंदिर जैसा कुछ नहीं
दरगाह में शिवालय और प्रतीक चिन्ह होने के दावे जो किये जा रहे हैं ऐसा दरगाह परिसर में कुछ भी नही हैं. ख्वाजा गरीब नवाज की मजार के गुबंद वाले क्षेत्र, जन्नती दरवाजा, शाहजानी मज्जिद, बेगमी दलान, झालरा, लंगरखाना, बुलंद दरवाजा, अकबरी मज्जिद और मुख्य द्वार निजाम गेट तक कोई ऐसा कुछ नहीं है जिस प्रकार के दावे किए गए थे. इस तस्वीर को दिखाकर दरगाह में लगी पत्थर की जाली में स्वास्तिक चिन्ह होना बताया जा रहा है. ऐसा दरगाह में किसी इमारत पर नहीं है. संभवतः जिस तस्वीर में स्वास्तिक का चिन्ह दिखाया जा रहा है. वह ढाई दिन का झोपड़ा की हो सकती है. दरअसल दरगाह के नजदीक ही ढाई दिन का झोपड़ा भी है. बताया जाता है कि ढाई दिन का झोपड़ा बनने से पहले वह संस्कृत पाठशाला हुआ करती थी.
यह है सूफी का सफर
खादिम सैयद फकर काजमी ने बताया कि सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती ने इराक के संदल से हिंदुस्तान में अजमेर तक का सफर तय किया था. 14 वर्ष की आयु में उनके माता पिता का इंतकाल हो गया था. उसके बाद वह बागवानी और पवन चक्की चलाया करते थे. एक दिन उनकी मुलाकात बुजुर्ग इब्राहिम कंदोजी से हुई. उनसे मिलने के बाद उनमें बदलाव आया और वह खुदा की राह पर चल पड़े. पवन चक्की और बाग बेचकर उन्होंने जो पैसे मिले वह गरीबों और यतीमों में बांट दिए और कुछ पैसे अपने पास रख हज के लिए निकल गए. मक्का मदीना में हाजरी दी. वहां उन्हें पीर ख्वाजा उस्मानी हारूनी मिले.
ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती और ख्वाजा फखरुद्दीन गुर्देजी को एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ने का वादा लेकर दोनों को हिंदुस्तान जाने के लिए कहा. गुरु के आदेश पर दोनों हिंदुस्तान के लिए निकल पड़े. दोनों ईरान, ईराक़, बुखारा, काबुल कंधार तक होते हुए ताशककन्द पंहुचे. वहां से वापस दोनों काबुल होते हुए लाहौर आए और फिर वहां से अमृतसर होते हुए दिल्ली और उसके बाद अजमेर पहुंचे. काजमी ने कहा कि अजमेर में पृथ्वीराज चौहान का शासन था. उन्होंने बताया कि 80 वर्ष तक ख्वाजा गरीब नवाज ने अजमेर में जीवन यापन किया. लोगों में मोहब्बत और भाईचारे का उन्होंने सन्देश दिया.
वहीं कोढ़, बोदरी जैसी बीमारियों से भी लोगों को बचाया. उन्होंने कहा कि जब कोई सूफी संत होता है तो उसका कोई मजहब नहीं होता है. वह धर्म से ऊपर उठ जाता है और उसका धर्म इंसानियत होता है. उन्होंने बताया कि ख्वाजा गरीब नवाज ने रूढ़िवादी परंपराओं को खत्म किया और लोगों को इंसानियत का संदेश दिया. काजमी बताते हैं कि लंबे सफर में ख्वाजा गरीब नवाज को काफी लोग मिले थे जो उनके साथ ही अजमेर आ गए थे. उन्होंने बताया कि 532 हिजरी में ख्वाजा गरीब नवाज पैदा हुए थे और 633 हिजरी में ख्वाजा गरीब नवाज ने दुनिया से पर्दा किया था.
इसलिए कहा जाता है ख्वाजा गरीब नवाज
सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में बादशाह, राजा, महाराजा, नवाब, अमीर-गरीब सभी आया करते थे. आज भी अमीर-गरीब, चोर-साहूकार और हर धर्म के लोग दरगाह आकर मत्था टेकते हैं. यहां से हर किसी की मन्नत पूरी होती है. आज भी दरगाह में आने वाले गरीब तबके के लोग भूखे नहींं रहते हैं. उन्हें किसी न किसी रूप में भोजन मिल ही जाता है. यही वजह है कि लोग उन्हें ख्वाजा गरीब नवाज कहने लगे.
जहां मजार, वहीं थी ख्वाजा की झोपड़ी
खादिम सैयद फकर काजमी बताते हैं कि जहां पर ख्वाजा गरीब नवाज की मजार है. वहीं पर वह झोपड़ी में रहा करते थे. यहीं पर लोग उनसे मिलने आया करते थे और वह लोगों की दुख तकलीफों को दूर किया करते थे. दुनिया से पर्दा करने के बाद उन्हें यहीं पर दफनाया गया. उन्होंने बताया कि बादशाह इल्तुतमिश ने यहां गुम्बद और मजार बनाया था. ख्वाजा गरीब नवाज इल्तुतमिश के दादा पीर थे. इसके बाद दरगाह में अकबर ने अकबरी मज्जिद, शाहजहां ने शाहजानी मज्जिद, औरंगजेब ने संदलखाना मज्जिद बनवाई. ऐसे ही कई नवाबों ने अलग-अलग समय में दरगाह परिसर में निर्माण कार्य करवाये. वहीं क्वीन विक्टोरिया ने दरगाह परिसर में हौज बनाया था. निजाम हैदराबाद ने महफिल खाना और निजाम गेट बनवाया. अलाउद्दीन खिलजी ने बुलंद दरवाजा बनवाया. उन्होंने बताया कि ख्वाजा गरीब नवाज यहीं रहते थे और उनके परिवार के लोग भी उनके साथ रहते थे. ऐसे में दरगाह के आसपास ही उनके खानदान के लोग भी बस गए.
गेरुवा रंग था संतों का लिबास
ख्वाजा गरीब नवाज के पास हर मजहब के लोग आया करते थे. खादिम सैयद फकर काजमी ने कहा कि उस वक्त संतों का लिबास भगवा रंग का था जिसे देखकर लोग खुश हुआ करते थे. ख्वाजा गरीब नवाज ने भी गेरुवा रंग पहने के लिए कहा था. आगे चल कर यह चिश्तिया रंग बन गया. उन्होंने कहा कि यहां गंगा जमुनी तहजीब है. यू तो लोग आपस में मिलकर सभी त्योहार मानते है. बसंत हिंदुओ का त्योहार है लेकिन दरगाह में भी बसंत पेश की जाती है. वहीं होली पर लिखी कव्वालियां भी दरगाह में गवाई जाती है. पुष्कर में गुलाब भी होता है और दरगाह में चढ़ाया जाता है. इससे बड़ी कौमी एकता की मिसाल और कहां देखी जा सकती है.