दुमका: आदिवासी समाज और संस्कृति हमारे देश में जितनी प्राचीन है, उसकी जानकारी उतनी ही कम है. आदिवासियों में अद्भुत और विलक्षण क्या है, उनका जीवन और व्यवहार हमसे कितना अलग है, इसकी चर्चा हमेशा आम लोगों के लिए कौतूहल का विषय रहा है. इनके जीवन, रीति रिवाज, जादू-टोने और विलक्षण अनुष्ठानों के बारे में चर्चा तो खूब होती है लेकिन उनके पारिवारिक जीवन की मानवीय व्यथा के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है. झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनाए जाने के बाद इस समुदाय के प्रति आमजनों में जहां सम्मान बढ़ा. वहीं इनके बारे में जानने के लिए लोगों में ललक भी देखी जा रही है. झारखंड में आदिवासी समाज की संरचना क्या है. वो कितने वर्गों में बंटा है, जातियों में विभाजन का आधार क्या है. इन सारे सवालों को हमने जानने की कोशिश की.
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32 वर्गों में बंटा है आदिवासी समाज: सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय की पूर्व प्रतिकुलपति डॉक्टर प्रमोदिनी हांसदा की मानें तो झारखंड में आदिवासियों के 32 वर्ग हैं. जिनमें संथाल, मुंडा, हो, उरांव, महली, बिरहोर, खड़िया आदि प्रमुख हैं. सामान्यतः क्षेत्र और भाषाओं के आधार पर इनका विभाजन हुआ है. डॉक्टर प्रमोदिनी हांसदा का कहना है कि इसमें संथाल समाज की आबादी काफी ज्यादा है. इस समाज के लोग भारत के कई राज्यों झारखंड, बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल के साथ-साथ नेपाल, बांग्लादेश, मॉरीशस के अलावा कई अन्य देशों में भी रहते हैं. प्रमोदिनी हांसदा का कहना है कि आदिवासी समाज कहीं भी रहे उनकी विशेषता होती है कि वे एक दूसरे के संपर्क में रहते हैं.
कई भाषा बोलते हैं आदिवासी: अगर आदिवासियों की भाषाई विविधता पर बात करें तो संथाल समाज की भाषा संथाली है. वहीं उरांव की कुडुख, मुंडा की मुंडारी, हो की भाषा हो है तो खड़िया की खड़िया. इसमें मुंडारी, हो और संथाली भाषा में काफी समानताएं हैं. जबकि उरांव जाति की कुडुख भाषा बिल्कुल अलग है. कहा जाता है कि यह तेलुगु और तमिल से मिलती जुलती है. अगर हम क्षेत्रीय आधार पर इन आदिवासी समाज के वर्गों की बात करें तो झारखंड में उरांव जाति गुमला, लोहरदगा और रांची में मुख्यतः निवास करते हैं. जबकि मुंडा खूंटी और रांची में. हो जनजाति चाईबासा, जमशेदपुर और सरायकेला में, जबकि खड़िया समाज सिमडेगा में बहुतायत मात्रा में पाए जाते हैं. कुल मिलाकर कहें तो झारखंड के दक्षिणी छोटानागपुर, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम और संथाल परगना में आदिवासी समाज की संख्या काफी अधिक है.
जंगलों से निकलकर बना रहे हैं अलग पहचान: आदिवासी समाज जिसके बारे में कहा जाता है कि वे जंगलों और पहाड़ों में निवास करते थे लेकिन आज वे वहां से निकल कर समाज की मुख्यधारा में जुड़ रहे हैं और अपनी पहचान बना रहे हैं. पूर्व प्रति कुलपति प्रमोदिनी हांसदा ने कहा कि आज आदिवासी, समाज की मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं. पहले जंगल का कंद मूल खाने वाले इस समाज के लोग भी अब चाउमीन, चिकेन चिल्ली, बर्गर, पिज्जा खाने लगे हैं. वैसे चावल इनका प्रमुख खाद्य पदार्थ है. इसके साथ ही मांसाहारी भोजन भी ये चाव से खाना पसंद करते हैं.
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प्रकृति के उपासक हैं आदिवासी: सोहराय पर्व को आदिवासियों का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है. वहीं कर्मा, सरहुल पर्व को भी ये काफी धूमधाम से मनाते हैं. इनके पर्व त्योहार की खास बात यह है कि यह सभी प्रकृति पूजा से जुड़े रहते हैं. कुल मिलाकर कहा जाए तो आदिवासी प्रकृति के उपासक होते हैं. एक और खास बात यह है कि पालतू मवेशियों को भी ये पूजते हैं. सोहराय पर खेत जोतने वाले बैलों की ईश्वर की तरह पूजा की जाती है. उन्हें आकर्षक ढंग से सजाया जाता है. डॉक्टर प्रमोदिनी हांसदा बताती है कि यह मवेशी हमारे जीवन के अहम हिस्सा हैं चाहे खेत जोतने का काम है या फिर अन्य कार्य, सभी जगह इनकी अहम भूमिका होती है. गांव में तो जिसके पास जितने मवेशी होते हैं वे उतने धनवान माने जाते हैं.
अब भी पिछड़ा है आदिवासी समाज: डॉक्टर प्रमोदिनी हांसदा बताती हैं कि वक्त के साथ-साथ काफी संख्या में आदिवासी समाज के लोग प्रगति कर चुके हैं. वे समाज की मुख्यधारा में जुड़ कर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन इसकी संख्या काफी कम है. आज भी इनकी स्थिति दयनीय है. आदिवासी समाज को अगर हमें आगे लाना है उनका उत्थान करना है तो इसमें सबसे बड़ी भूमिका शिक्षा की होगी. ज्ञानवान बन कर ही आगे बढ़ा जा सकता है. उन्होंने कहा कि सरकार के साथ साथ आदिवासी समाज से जो लोग आगे बढ़ गए हैं उनकी भी जिम्मेदारी है कि वे अपने समाज के पिछड़े भाइयों और बहनों को आगे लाने में अपना 100% योगदान दें.