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क्या अकाली-बसपा गठबंधन से होगा बदलाव या सिर्फ चुनावी रणनीति? - Schedule Caste voters

हाल ही में शिरोमणि अकाली दल (Shromani Akali Dal) और बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) ने अगले विधानसभा चुनाव (assembly election) के लिए गठबंधन किया है. हालांकि माना जा रहा है कि इस गठबंधन से दोनों राजनीतिक दलों में से किसी को फायदा नहीं होगा.

अकाली-बसपा गठबंधन
अकाली-बसपा गठबंधन
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Published : Jun 16, 2021, 5:13 PM IST

Updated : Jun 16, 2021, 6:49 PM IST

हैदराबाद : ग्रौच मार्क्स (Grouch Marx) ने कहा था कि राजनीति मुसीबत को पड़ने, उसे हर जगह ढूंढने, गलत निदान करने और गलत उपाय करने की कला है. ग्रौच मार्क्स का यह उद्धरण (quote) पंजाब के राजनीतिक परिदृश्य (Punjab political scenario ) में पूरी तरह से अनुकूल है, जहां हाल ही में शिरोमणि अकाली दल (Shromani Akali Dal) और बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) ने अगले विधानसभा चुनाव ( assembly election) के लिए गठबंधन किया है.

यह गठबंधन मूल रूप से अनुसूचित जाति के वोटरों (Schedule Caste voters) को लुभाने के लिए बनाया गया है. हालांकि शुरुआती प्रतिक्रियाओं में और राजनीतिक विश्लेषकों (political analysts) का मानना है कि यह गठबंधन किसी भी पार्टी को वांछित परिणाम (desired result ) नहीं देगा.

अकाली दल और बसपा ने यह कदम क्यों उठाया ?

हाल के दिनों में अकाली दल ने किसान समुदाय (farmer community) के रोष का सामना किया है, जो उसका बैंक वोट (key voter base) है, जो तीन कृषि कानूनों (farm laws) को रद्द करने का अनुरोध कर रहा है. साथ ही पार्टी हाल ही मे किसानों कअपने नकारात्मक राजनीतिक प्रभाव (negative political effect) को कम करने के लिए अनुसूचित जातियों के वोटों पर हावी होने के लिए रणनीति तैयार कर रहा है.

बसपा ने 1992 में पहली बार दलित वोट (Dalit vote) को एक राजनीतिक बोर्ड (political board) के रूप में इस्तेमाल किया, लेकिन बाद में पार्टी को राज्य में हर पहलू से गिरावट मिली है.

1992 में इसे पंजाब में नौ सीटों पर जीत हासिल की और इसे 16% से अधिक वोट मिले. वहीं, 2012 के विधानसभा चुनाव में यह वोट शेयर घटकर लगभग 4% रह गया.

2017 में बसपा का वोट शेयर 1.5% से भी नीचे चला गया. वर्तमान में नए गठबंधन से बसपा प्रदेश में प्रासंगिक' बने रहने का प्रयास कर रही है.

महत्वपूर्ण दलित वोट

पंजाब में जहां दलित आबादी (Dalit population ) का प्रतिशत सबसे अधिक है. यहां लगभग 32% दलित वोट है. राजनीतिक दल दलित वोट बैंक के महत्व को अच्छी तरह जानते हैं और इसे पाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं.

हाल ही में गठबंधन को अकाली दल के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है, खासकर तब जब उसने कृषि कानूनों के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया. अकाली दल ने प्रभावी रूप से कहा है कि अगर वो सरकार बनाता है, तो वह एक दलित को उपमुख्यमंत्री (Deputy Chief Minister) के रूप में नामित करेगा.

विभाजन करने वाले फैक्टर

इसके अतिरिक्त राज्य में जाति विभाजन (caste partition) के मुश्किल फैक्टर को देखते हुए, यह बहुत दूर की कौड़ी लगती है कि अनुसूचित जाति के वोट अकाली दल को मिलें.

साथ ही अन्य राज्यों के जनजाति की तरह पंजाब के अनुसूचित जाति एक सजातीय वर्ग (homogeneous class) नहीं हैं. वे आपस में 39 जातियों में विभाजित हैं. इतना ही नहीं वह विभिन्न धर्मों और समन्वित मान्यताओं में भी विभाजित हैं, जो डेरों में बंटे हुए हैं.

अकाली- बीएसपी गठबंधन से दलितों का वोट अकाली दल की पक्ष में ट्रांस्फर नहीं हो सकता है. इसी तरह बसपा को अकाली दल के साथ गठबंधन के परिणामों पर ध्यान देने की आवश्यकता पड़ सकती है.

बसपा का वो वोट, जो अकाली दल से खुश नहीं था. वे गठबंधन के बाद खुद को अलग कर सकता है.

सेफोलोजिस्ट्स (Psychologists) के कारण गठबंधन होगा विफल

कई चुनाव विशेषज्ञों का मानना है कि आगामी चुनाव में यह गठबंधन महत्वहीन होगा. उन्हें लगता है कि इस गठबंधन से चुनाव परिणाम पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा.

व्यावहारिक रूप से बसपा का राज्य में कोई आधार नहीं है. वह अपना वोटर बेस खोती जा रही है. उसको आखिरी सफलता 1997 में उस समय मिली थी, जब उसने राज्य में एक विधानसभा सीट हासिल की थी.

अनुसूचित जातियों को जाति के आधार पर और धार्मिक आधार पर अलग किया जाता है. बसपा के पास बमुश्किल एक आधार है, जिसका लाभ अकाली दल को मिल सकता है.

वहीं अकाली दल 2015 बरगारी की बेअदबी (Bargari sacrilege) और उसके बाद पुलिस फायरिंग (police firing case) मामले में अपने परंपरागत आधार को खोने की स्थिति में है.

पढ़ें - पंजाब में अकाली-बसपा गठबंधन नई राजनीतिक व सामाजिक पहल : मायावती

जाट (स्थानीय क्षेत्र के किसान) का समर्थन करने वाले अकाली शायद दलित उम्मीदवारों के पक्ष में नहीं जा रहे हैं. अंत मे दोनों पक्षों को गठबंधव से शायद ही कोई महत्वपूर्ण लाभ हो.

हो सकता है कि अकाली दल यह सोच रहा हो कि उसके लिए अपनी विरासत को बनाए रखना कठिन है और सिखों की एक पंथिक पार्टी होने के नाते राज्य के किसानों के हितों की रक्षा नहीं कर पा रही है. इन किसानों में से अधिकतर जाट सिख हैं. वहीं बसपा राज्य में खुद को जिंदा रखने के लिए कड़ा संघर्ष कर रही है.

हैदराबाद : ग्रौच मार्क्स (Grouch Marx) ने कहा था कि राजनीति मुसीबत को पड़ने, उसे हर जगह ढूंढने, गलत निदान करने और गलत उपाय करने की कला है. ग्रौच मार्क्स का यह उद्धरण (quote) पंजाब के राजनीतिक परिदृश्य (Punjab political scenario ) में पूरी तरह से अनुकूल है, जहां हाल ही में शिरोमणि अकाली दल (Shromani Akali Dal) और बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) ने अगले विधानसभा चुनाव ( assembly election) के लिए गठबंधन किया है.

यह गठबंधन मूल रूप से अनुसूचित जाति के वोटरों (Schedule Caste voters) को लुभाने के लिए बनाया गया है. हालांकि शुरुआती प्रतिक्रियाओं में और राजनीतिक विश्लेषकों (political analysts) का मानना है कि यह गठबंधन किसी भी पार्टी को वांछित परिणाम (desired result ) नहीं देगा.

अकाली दल और बसपा ने यह कदम क्यों उठाया ?

हाल के दिनों में अकाली दल ने किसान समुदाय (farmer community) के रोष का सामना किया है, जो उसका बैंक वोट (key voter base) है, जो तीन कृषि कानूनों (farm laws) को रद्द करने का अनुरोध कर रहा है. साथ ही पार्टी हाल ही मे किसानों कअपने नकारात्मक राजनीतिक प्रभाव (negative political effect) को कम करने के लिए अनुसूचित जातियों के वोटों पर हावी होने के लिए रणनीति तैयार कर रहा है.

बसपा ने 1992 में पहली बार दलित वोट (Dalit vote) को एक राजनीतिक बोर्ड (political board) के रूप में इस्तेमाल किया, लेकिन बाद में पार्टी को राज्य में हर पहलू से गिरावट मिली है.

1992 में इसे पंजाब में नौ सीटों पर जीत हासिल की और इसे 16% से अधिक वोट मिले. वहीं, 2012 के विधानसभा चुनाव में यह वोट शेयर घटकर लगभग 4% रह गया.

2017 में बसपा का वोट शेयर 1.5% से भी नीचे चला गया. वर्तमान में नए गठबंधन से बसपा प्रदेश में प्रासंगिक' बने रहने का प्रयास कर रही है.

महत्वपूर्ण दलित वोट

पंजाब में जहां दलित आबादी (Dalit population ) का प्रतिशत सबसे अधिक है. यहां लगभग 32% दलित वोट है. राजनीतिक दल दलित वोट बैंक के महत्व को अच्छी तरह जानते हैं और इसे पाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं.

हाल ही में गठबंधन को अकाली दल के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है, खासकर तब जब उसने कृषि कानूनों के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया. अकाली दल ने प्रभावी रूप से कहा है कि अगर वो सरकार बनाता है, तो वह एक दलित को उपमुख्यमंत्री (Deputy Chief Minister) के रूप में नामित करेगा.

विभाजन करने वाले फैक्टर

इसके अतिरिक्त राज्य में जाति विभाजन (caste partition) के मुश्किल फैक्टर को देखते हुए, यह बहुत दूर की कौड़ी लगती है कि अनुसूचित जाति के वोट अकाली दल को मिलें.

साथ ही अन्य राज्यों के जनजाति की तरह पंजाब के अनुसूचित जाति एक सजातीय वर्ग (homogeneous class) नहीं हैं. वे आपस में 39 जातियों में विभाजित हैं. इतना ही नहीं वह विभिन्न धर्मों और समन्वित मान्यताओं में भी विभाजित हैं, जो डेरों में बंटे हुए हैं.

अकाली- बीएसपी गठबंधन से दलितों का वोट अकाली दल की पक्ष में ट्रांस्फर नहीं हो सकता है. इसी तरह बसपा को अकाली दल के साथ गठबंधन के परिणामों पर ध्यान देने की आवश्यकता पड़ सकती है.

बसपा का वो वोट, जो अकाली दल से खुश नहीं था. वे गठबंधन के बाद खुद को अलग कर सकता है.

सेफोलोजिस्ट्स (Psychologists) के कारण गठबंधन होगा विफल

कई चुनाव विशेषज्ञों का मानना है कि आगामी चुनाव में यह गठबंधन महत्वहीन होगा. उन्हें लगता है कि इस गठबंधन से चुनाव परिणाम पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा.

व्यावहारिक रूप से बसपा का राज्य में कोई आधार नहीं है. वह अपना वोटर बेस खोती जा रही है. उसको आखिरी सफलता 1997 में उस समय मिली थी, जब उसने राज्य में एक विधानसभा सीट हासिल की थी.

अनुसूचित जातियों को जाति के आधार पर और धार्मिक आधार पर अलग किया जाता है. बसपा के पास बमुश्किल एक आधार है, जिसका लाभ अकाली दल को मिल सकता है.

वहीं अकाली दल 2015 बरगारी की बेअदबी (Bargari sacrilege) और उसके बाद पुलिस फायरिंग (police firing case) मामले में अपने परंपरागत आधार को खोने की स्थिति में है.

पढ़ें - पंजाब में अकाली-बसपा गठबंधन नई राजनीतिक व सामाजिक पहल : मायावती

जाट (स्थानीय क्षेत्र के किसान) का समर्थन करने वाले अकाली शायद दलित उम्मीदवारों के पक्ष में नहीं जा रहे हैं. अंत मे दोनों पक्षों को गठबंधव से शायद ही कोई महत्वपूर्ण लाभ हो.

हो सकता है कि अकाली दल यह सोच रहा हो कि उसके लिए अपनी विरासत को बनाए रखना कठिन है और सिखों की एक पंथिक पार्टी होने के नाते राज्य के किसानों के हितों की रक्षा नहीं कर पा रही है. इन किसानों में से अधिकतर जाट सिख हैं. वहीं बसपा राज्य में खुद को जिंदा रखने के लिए कड़ा संघर्ष कर रही है.

Last Updated : Jun 16, 2021, 6:49 PM IST
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