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UP : 'एकला चलो रे' की घोषणा के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती की रणनीति

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए टिकटों के बंटवारे में भी बसपा सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाएंगी, जिससे उनकी सत्ता में वापसी का मकसद पूरा हो सके. मायावती दलित, ब्राह्मण, अति पिछड़े, मुस्लिम बिरादरी के चेहरों को चुनाव मैदान में उतार कर सोशल इंजीनियर के सहारे सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने का मायावती सपना देख रही हैं.

बसपा सुप्रीमो मायावती
बसपा सुप्रीमो मायावती
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Published : Jun 28, 2021, 4:44 PM IST

लखनऊ : बसपा सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव मैदान में उतरने का एलान किया है. इस बार मायावती ने किसी भी दल के साथ उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में गठबंधन न करने की बात कहकर बड़ा सियासी संदेश देने की कोशिश की है. उन्होंने 'एकला चलो रे' की राह पर ही आगे बढ़ने और सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने की रणनीति बनानी शुरू कर दी है.

मायावती ने अपने पार्टी संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत करने और कैडर के लोगों को हर स्तर पर चुनाव के लिए अभी से तैयार रहने को कहा है. साथ ही उन्हें चुनाव में जीत का मूल मंत्र देने की रणनीति भी बनानी शुरू कर दी है. बहुजन समाज पार्टी के उच्च स्तरीय सूत्रों के अनुसार, मायावती अकेले विधानसभा चुनाव में उतरने की बात कहने के साथ ही संगठन को धरातल तक यानी बूथ स्तर तक मजबूत करने पर पूरा फोकस कर रही हैं. बसपा का जो आधार वोट बैंक दलित है, उसमें पूरी तरह से पकड़ और पैठ बनाए जाने को लेकर पार्टी संगठन के बड़े नेताओं को अलग-अलग मंडल की जिम्मेदारी भी दी जा रही है.

कैडर के लोगों को 'बूथ जीतो' का दिया जा रहा मंत्र

इससे पहले भी नेताओं को जिम्मेदारी दी जा चुकी है. उन्हें 'बूथ जीतो' का मंत्र दिया जा रहा है. इसके साथ ही मायावती का अधिक फोकस 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह सोशल इंजीनियरिंग पर भी है. सोशल इंजीनियरिंग के तहत वे अपने आधार वोट बैंक के साथ-साथ ब्राह्मणों को भी साधने की कोशिश करेंगी. पंचायत चुनाव में ब्राह्मणों को पंचायत सदस्य के टिकट प्रत्येक विधानसभा स्तर पर आरक्षित करने का काम किया था.

स्पेशल रिपोर्ट.

सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर टिकटों का होगा वितरण

विधानसभा चुनाव के लिए टिकटों के बंटवारे में भी सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाएंगे, जिससे उनकी सत्ता में वापसी का मकसद पूरा हो सके. मायावती दलित, ब्राह्मण, अति पिछड़ा, मुस्लिम समीकरण को साधने पर जोर दे रही हैं. दलित, ब्राह्मण, अति पिछड़े, मुस्लिम बिरादरी के चेहरों को चुनाव मैदान में उतार कर सोशल इंजीनियर के सहारे सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने का मायावती सपना देख रही हैं. मायावती ने जिस प्रकार से 2007 के विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियर के फार्मूले को लागू किया था, ठीक वैसा ही कुछ वे 2022 के चुनाव में करना चाह रही हैं. यही कारण है उन्होंने यूपी में एकला चलो की राह पर चलते हुए अकेले चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है और उसी के अनुसार अपनी रणनीति बना रही हैं.

पुराने नेताओं को साथ लाना और जनाधार बढ़ाना है चुनौती

2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ने के एलान के साथ ही मायावती के सामने कई तरह की चुनौतियां भी होंगी. मुख्य रूप से पार्टी के पुराने नेताओं को साथ लाना और संगठन को बूथ तक मजबूत करना और पार्टी का जनाधार बढ़ाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी. बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने हाल के कुछ वर्षों में पार्टी के तमाम बड़े नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया है. ऐसे में उन नेताओं के बराबर पार्टी के कैडर वाले लोगों को महत्व देना और पार्टी संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत करके वोट बैंक मजबूत करना यह बड़ी चुनौती रहेगी. देखना यह दिलचस्प होगा कि मायावती इस चुनौती को किस प्रकार से अवसर में बदलती हैं.

बसपा का पिछले कुछ विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन

1991 में 386 सीटों पर चुनाव लड़ी और 12 जीती, वोट प्रतिशत 9.44

1993 में 164 पर चुनाव लड़ी और 67 जीती, वोट प्रतिशत 11.12

1996 में 296 सीटों पर चुनाव लड़ी और 67 जीती, वोट प्रतिशत 19.64

2002 में 401 पर चुनाव लड़ी और 98 जीती, वोट प्रतिशत 23.06

2007 में 403 सीटों पर चुनाव लड़ी और 206 जीती, वोट प्रतिशत 30.43

2012 में 403 सीटों पर चुनाव लड़ी और 80 जीती, वोट प्रतिशत 25.91

2017 में 403 पर चुनाव लड़ी और 19 जीती, वोट प्रतिशत 22.2

धुर विरोधी पार्टी सपा से समझौता भी फायदेमंद नहीं रहा

2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान मायावती ने एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम को अंजाम दिया. अपनी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन का दांव चल दिया. गठबंधन में भले ही मायावती को अधिक सीट न मिली हों, लेकिन समाजवादी पार्टी का जो आधार वोट बैंक था, वह जरूर मायावती के साथ आया और 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 10 सीटों पर संतोष करना पड़ा. बसपा का मानना था कि सपा के साथ आने से उन्हें मुसलमान वोट नहीं मिला. चुनाव परिणाम के ठीक बाद मायावती ने फिर कभी सपा के साथ गठबंधन न करने की बात कही थी और इससे हुए सियासी नुकसान की बात भी कही थी.

मायावती को संगठन मजबूती की चिंता तो नेताओं को संभालना है बड़ी मुश्किल

बहुजन समाज पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव को लेकर अपने संगठन को धरातल तक मजबूत करने को लेकर एक तरफ जहां सक्रिय हैं, वहीं कैसे अपनी पार्टी के नेताओं को बचाकर उनका चुनाव में उपयोग किया जा सके उसको लेकर उनका चिंतित होना भी स्वाभाविक है. बहुजन समाज पार्टी में लगातार उठापटक जारी है और पिछले काफी समय से नेता बसपा से दूर हो रहे हैं.

क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक व दलित चिंतक

राजनीतिक विश्लेषक एवं दलित चिंतक प्रोफेसर रविकांत कहते हैं कि मायावती की रैली रही है तो उन्होंने गठबंधन बहुत कम ही किए हैं. चुनाव के बाद गठबंधन उनके लिए ज्यादा मुफीद होता है. पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था और निश्चित रूप से फायदा मिला, लेकिन उससे पहले 2017 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव मैदान में उतरीं तो उन्हें सिर्फ 19 सीटें ही मिलीं थीं. बीजेपी के प्रतिशत सॉफ्ट कॉर्नर के चलते मुसलमान वोट बैंक उनसे दूर हुआ तो दलित वोट बैंक भी भारतीय जनता पार्टी के साथ काफी हद तक शिफ्ट हो गया. यही कारण था कि मायावती को 2007 में मुसलमान और दलित वोट नहीं मिल पाया.

इधर मुझे लग रहा था कि ओमप्रकाश राजभर जरूर कह रहे थे वह बसपा के साथ जाना चाहते हैं, लेकिन कहीं न कहीं सीटों के तालमेल को लेकर बात आगे नहीं बढ़ी होगी. इसलिए उन्होंने अकेले चलने का फैसला किया है. मुझे तो लगता है कि मायावती पोस्ट पोल की संभावनाएं देख रही हैं. हो सकता है कि हंग असेंबली के लिए स्थिति बने और उसमें मायावती को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिले. यह एक रणनीति हो सकती है चुनाव से पहले किसी दल के साथ गठबंधन न करने को लेकर.

2007 के सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर आगे बढ़ सकती हैं मायावती

दलित चिंतक रविकांत कहते हैं कि मायावती 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर चुनाव लड़ें और उसी के अनुरूप टिकटों का बंटवारा करें, लेकिन यह जब होगा तब पता चलेगा. अपने आधार वोट बैंक दलित के साथ ब्राह्मण व अति पिछड़े कार्ड के सहारे चुनाव मैदान में जाने की कोशिश कर सकती हैं और दलित वोट बैंक है उसे संभालने की कवायद जरूर करेंगी.

बीजेपी के प्रति साफ्ट कार्नर से मुसलमान दूर हुए: मायावती

जिस प्रकार से बीजेपी के प्रति आक्रामक नहीं होती हैं उससे मुसलमानों में संदेश ठीक नहीं जाता. मुसलमान भी अखिलेश यादव के साथ जा सकता है. इस बार के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए मुसलमान वोट करेगा और ऐसी स्थिति में उनका झुकाव अखिलेश यादव की तरफ होना स्वाभाविक माना जाता है, लेकिन सोशल इंजीनियर फार्मूले के तहत वह किस प्रकार से टिकटों का बंटवारा करेगी यह तो देखने वाली बात होगी. हो सकता है कि मायावती 2007 को दोहराने की कोशिश करें. दलित वोट के साथ-साथ ब्राह्मणों को साथ लेकर चुनाव मैदान में उतरें तो इसका फायदा हो सकता है.

इस संबंध में बसपा से महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा का कहना है कि कार्यकर्ता पूरी तरह से एकजुट हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव बसपा अपने दम पर लड़ेगी और पूर्ण बहुमत से सरकार बनाएगी. कार्यकर्ताओं में पूरा जोश है और 2022 के लिए तैयार है. विपक्ष का काम है आरोप लगाना. मायावती जननेता हैं. लोगों के बीच अपनी पूरी पकड़ रखती हैं. पंचायत चुनाव में हुए उलटफेर पर मायावती खुद अपनी बात रख चुकी हैं. इसलिए हमें कुछ कहने की जरूरत नहीं.

लखनऊ : बसपा सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव मैदान में उतरने का एलान किया है. इस बार मायावती ने किसी भी दल के साथ उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में गठबंधन न करने की बात कहकर बड़ा सियासी संदेश देने की कोशिश की है. उन्होंने 'एकला चलो रे' की राह पर ही आगे बढ़ने और सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने की रणनीति बनानी शुरू कर दी है.

मायावती ने अपने पार्टी संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत करने और कैडर के लोगों को हर स्तर पर चुनाव के लिए अभी से तैयार रहने को कहा है. साथ ही उन्हें चुनाव में जीत का मूल मंत्र देने की रणनीति भी बनानी शुरू कर दी है. बहुजन समाज पार्टी के उच्च स्तरीय सूत्रों के अनुसार, मायावती अकेले विधानसभा चुनाव में उतरने की बात कहने के साथ ही संगठन को धरातल तक यानी बूथ स्तर तक मजबूत करने पर पूरा फोकस कर रही हैं. बसपा का जो आधार वोट बैंक दलित है, उसमें पूरी तरह से पकड़ और पैठ बनाए जाने को लेकर पार्टी संगठन के बड़े नेताओं को अलग-अलग मंडल की जिम्मेदारी भी दी जा रही है.

कैडर के लोगों को 'बूथ जीतो' का दिया जा रहा मंत्र

इससे पहले भी नेताओं को जिम्मेदारी दी जा चुकी है. उन्हें 'बूथ जीतो' का मंत्र दिया जा रहा है. इसके साथ ही मायावती का अधिक फोकस 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह सोशल इंजीनियरिंग पर भी है. सोशल इंजीनियरिंग के तहत वे अपने आधार वोट बैंक के साथ-साथ ब्राह्मणों को भी साधने की कोशिश करेंगी. पंचायत चुनाव में ब्राह्मणों को पंचायत सदस्य के टिकट प्रत्येक विधानसभा स्तर पर आरक्षित करने का काम किया था.

स्पेशल रिपोर्ट.

सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर टिकटों का होगा वितरण

विधानसभा चुनाव के लिए टिकटों के बंटवारे में भी सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाएंगे, जिससे उनकी सत्ता में वापसी का मकसद पूरा हो सके. मायावती दलित, ब्राह्मण, अति पिछड़ा, मुस्लिम समीकरण को साधने पर जोर दे रही हैं. दलित, ब्राह्मण, अति पिछड़े, मुस्लिम बिरादरी के चेहरों को चुनाव मैदान में उतार कर सोशल इंजीनियर के सहारे सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने का मायावती सपना देख रही हैं. मायावती ने जिस प्रकार से 2007 के विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियर के फार्मूले को लागू किया था, ठीक वैसा ही कुछ वे 2022 के चुनाव में करना चाह रही हैं. यही कारण है उन्होंने यूपी में एकला चलो की राह पर चलते हुए अकेले चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है और उसी के अनुसार अपनी रणनीति बना रही हैं.

पुराने नेताओं को साथ लाना और जनाधार बढ़ाना है चुनौती

2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ने के एलान के साथ ही मायावती के सामने कई तरह की चुनौतियां भी होंगी. मुख्य रूप से पार्टी के पुराने नेताओं को साथ लाना और संगठन को बूथ तक मजबूत करना और पार्टी का जनाधार बढ़ाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी. बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने हाल के कुछ वर्षों में पार्टी के तमाम बड़े नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया है. ऐसे में उन नेताओं के बराबर पार्टी के कैडर वाले लोगों को महत्व देना और पार्टी संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत करके वोट बैंक मजबूत करना यह बड़ी चुनौती रहेगी. देखना यह दिलचस्प होगा कि मायावती इस चुनौती को किस प्रकार से अवसर में बदलती हैं.

बसपा का पिछले कुछ विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन

1991 में 386 सीटों पर चुनाव लड़ी और 12 जीती, वोट प्रतिशत 9.44

1993 में 164 पर चुनाव लड़ी और 67 जीती, वोट प्रतिशत 11.12

1996 में 296 सीटों पर चुनाव लड़ी और 67 जीती, वोट प्रतिशत 19.64

2002 में 401 पर चुनाव लड़ी और 98 जीती, वोट प्रतिशत 23.06

2007 में 403 सीटों पर चुनाव लड़ी और 206 जीती, वोट प्रतिशत 30.43

2012 में 403 सीटों पर चुनाव लड़ी और 80 जीती, वोट प्रतिशत 25.91

2017 में 403 पर चुनाव लड़ी और 19 जीती, वोट प्रतिशत 22.2

धुर विरोधी पार्टी सपा से समझौता भी फायदेमंद नहीं रहा

2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान मायावती ने एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम को अंजाम दिया. अपनी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन का दांव चल दिया. गठबंधन में भले ही मायावती को अधिक सीट न मिली हों, लेकिन समाजवादी पार्टी का जो आधार वोट बैंक था, वह जरूर मायावती के साथ आया और 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 10 सीटों पर संतोष करना पड़ा. बसपा का मानना था कि सपा के साथ आने से उन्हें मुसलमान वोट नहीं मिला. चुनाव परिणाम के ठीक बाद मायावती ने फिर कभी सपा के साथ गठबंधन न करने की बात कही थी और इससे हुए सियासी नुकसान की बात भी कही थी.

मायावती को संगठन मजबूती की चिंता तो नेताओं को संभालना है बड़ी मुश्किल

बहुजन समाज पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव को लेकर अपने संगठन को धरातल तक मजबूत करने को लेकर एक तरफ जहां सक्रिय हैं, वहीं कैसे अपनी पार्टी के नेताओं को बचाकर उनका चुनाव में उपयोग किया जा सके उसको लेकर उनका चिंतित होना भी स्वाभाविक है. बहुजन समाज पार्टी में लगातार उठापटक जारी है और पिछले काफी समय से नेता बसपा से दूर हो रहे हैं.

क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक व दलित चिंतक

राजनीतिक विश्लेषक एवं दलित चिंतक प्रोफेसर रविकांत कहते हैं कि मायावती की रैली रही है तो उन्होंने गठबंधन बहुत कम ही किए हैं. चुनाव के बाद गठबंधन उनके लिए ज्यादा मुफीद होता है. पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था और निश्चित रूप से फायदा मिला, लेकिन उससे पहले 2017 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव मैदान में उतरीं तो उन्हें सिर्फ 19 सीटें ही मिलीं थीं. बीजेपी के प्रतिशत सॉफ्ट कॉर्नर के चलते मुसलमान वोट बैंक उनसे दूर हुआ तो दलित वोट बैंक भी भारतीय जनता पार्टी के साथ काफी हद तक शिफ्ट हो गया. यही कारण था कि मायावती को 2007 में मुसलमान और दलित वोट नहीं मिल पाया.

इधर मुझे लग रहा था कि ओमप्रकाश राजभर जरूर कह रहे थे वह बसपा के साथ जाना चाहते हैं, लेकिन कहीं न कहीं सीटों के तालमेल को लेकर बात आगे नहीं बढ़ी होगी. इसलिए उन्होंने अकेले चलने का फैसला किया है. मुझे तो लगता है कि मायावती पोस्ट पोल की संभावनाएं देख रही हैं. हो सकता है कि हंग असेंबली के लिए स्थिति बने और उसमें मायावती को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिले. यह एक रणनीति हो सकती है चुनाव से पहले किसी दल के साथ गठबंधन न करने को लेकर.

2007 के सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर आगे बढ़ सकती हैं मायावती

दलित चिंतक रविकांत कहते हैं कि मायावती 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर चुनाव लड़ें और उसी के अनुरूप टिकटों का बंटवारा करें, लेकिन यह जब होगा तब पता चलेगा. अपने आधार वोट बैंक दलित के साथ ब्राह्मण व अति पिछड़े कार्ड के सहारे चुनाव मैदान में जाने की कोशिश कर सकती हैं और दलित वोट बैंक है उसे संभालने की कवायद जरूर करेंगी.

बीजेपी के प्रति साफ्ट कार्नर से मुसलमान दूर हुए: मायावती

जिस प्रकार से बीजेपी के प्रति आक्रामक नहीं होती हैं उससे मुसलमानों में संदेश ठीक नहीं जाता. मुसलमान भी अखिलेश यादव के साथ जा सकता है. इस बार के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए मुसलमान वोट करेगा और ऐसी स्थिति में उनका झुकाव अखिलेश यादव की तरफ होना स्वाभाविक माना जाता है, लेकिन सोशल इंजीनियर फार्मूले के तहत वह किस प्रकार से टिकटों का बंटवारा करेगी यह तो देखने वाली बात होगी. हो सकता है कि मायावती 2007 को दोहराने की कोशिश करें. दलित वोट के साथ-साथ ब्राह्मणों को साथ लेकर चुनाव मैदान में उतरें तो इसका फायदा हो सकता है.

इस संबंध में बसपा से महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा का कहना है कि कार्यकर्ता पूरी तरह से एकजुट हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव बसपा अपने दम पर लड़ेगी और पूर्ण बहुमत से सरकार बनाएगी. कार्यकर्ताओं में पूरा जोश है और 2022 के लिए तैयार है. विपक्ष का काम है आरोप लगाना. मायावती जननेता हैं. लोगों के बीच अपनी पूरी पकड़ रखती हैं. पंचायत चुनाव में हुए उलटफेर पर मायावती खुद अपनी बात रख चुकी हैं. इसलिए हमें कुछ कहने की जरूरत नहीं.

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