नई दिल्ली : अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन इस समय भारत दौरे पर हैं. इस दौरान उन्होंने पीएम मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार (एनएसए) के साथ बैठक की. इसके अलावा ब्लिंकन ने तिब्बत के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के प्रतिनिधियों से मुलाकात की. इसे बाइडेन प्रशासन द्वारा चीन को दिया गया साफ संकेत माना जा रहा है कि वह तिब्बत मुद्दे का समर्थन जारी रखेगा.
अमेरिकी विदेश मंत्री के प्रवक्ता से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि विदेश मंत्री ब्लिंकन को आज सुबह नई दिल्ली में माननीय दलाई लामा, केंद्रीय तिब्बत प्रशासन के प्रतिनिधि न्गोडुप डोंगचुंग से संक्षिप्त मुलाकात का अवसर मिला.
नागरिक संस्थाओं के सदस्यों के साथ ब्लिंकन ने की बैठक
इसके अलावा ब्लिंकन ने नागरिक संस्थाओं के सदस्यों के साथ बैठक की. बैठक में दिल्ली में तिब्बत हाउस के निदेशक तिब्बती बौद्ध गुरु वेन गेशे दोरजी दामदुल भी शामिल हुए. बैठक में उपस्थित अन्य लोगों में सुप्रीम कोर्ट की वकील मेनका गुरुस्वामी, इंटर-फेथ फाउंडेशन के संस्थापक इफ्तिखार अहमद और रामकृष्ण मिशन, बहाई, सिख और ईसाई गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि शामिल थे.
ब्लिंकन दो दिनों की यात्रा पर मंगलवार शाम भारत पहुंचे थे. अमेरिकी विदेश मंत्री नियुक्त होने के बाद उनकी भारत की यह प्रथम यात्रा है.
ताइवान और शिनजियांग में उइगरों के साथ उसके व्यवहार के अलावा, चीन तिब्बत के मुद्दे पर किसी भी घटनाक्रम के प्रति बहुत संवेदनशील है. 86 वर्षीय दलाई लामा के उत्तराधिकारी का फैसला करने के लिए चीन आमादा है.
चीन का प्रयास तिब्बत में धर्म का कार्ड खेलने का
चीन ने अगले दलाई लामा को मंजूरी देने और नियुक्त करने के एकमात्र अधिकार का दावा किया कर रहा है. तिब्बत पर कब्जे के चीन की पकड़ उतनी मजबूत नहीं हो पाई है, जितना चीनी कम्युनिस्ट पार्टी चाहती है. इसकी चलते चीन अब तिब्बत में धर्म का कार्ड खेलने की प्रयास कर रहा है. जिनपिंग सरकार अगले दलाई लामा के चयन में तिब्बती लोगों को अपने पक्ष में करने के प्रयास में लगा हुआ है.
वर्ष 1959 में 14वें दलाई लामा भारत चले आए थे. चीन के सरकारी अधिकारियों और दलाई लामा या उनके प्रतिनिधियों के बीच वर्ष 2010 से कोई बातचीत नहीं हुई है.
दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन को लेकर भारत-अमेरिका का रुख
दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन में चीन की दिलचस्पी को भारत और अमेरिका ने 'धार्मिक स्वतंत्रता का हनन' करार दिया है. भारत-अमेरिका का मानना है कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन की प्रक्रिया में चीनी सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए.
दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन को लेकर सीटीए का रुख
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) का रुख यह है कि अगले दलाई लामा को चुनना वर्तमान दलाई लामा का विशेषाधिकार है, जो भारत में रह रहे हैं और इस मामले में चीन को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और यह उसका अधिकार भी नहीं है.
दिलचस्प बात है कि भारत ने भी तिब्बत के प्रति अपना रुख स्पष्ट किया है, दरअसल छह जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दलाई लामा को फोन करके उनके 86वें जन्मदिन पर बधाई दी थी, जिसे कुछ धड़ों द्वारा पूर्वी लद्दाख की सीमा पर चीन के साथ चल गतिरोध की पृष्ठभूमि में बीजिंग को दिया गया कड़ा संदेश माना जा रहा है.
21 मई को चीन ने जारी किया श्वेत पत्र
21 मई को, चीन के राज्य परिषद सूचना कार्यालय ने एक श्वेत पत्र निकाला जारी किया था. इस श्वेत पत्र में दावा किया गया था कि किंग राजवंश (1677-1911) के बाद से केंद्र सरकार द्वारा दलाई लामा और अन्य आध्यात्मिक बौद्ध नेताओं को मान्यता दी जाती है.
पत्र में यह भी कहा गया था कि प्राचीन समय से ही तिब्बत चीन का अविभाज्य हिस्सा है. इसमें कहा गया है, '1793 में गोरखा आक्रमणकारियों के जाने के बाद से किंग सरकार ने तिब्बत में व्यवस्था बहाल की और तिब्बत में बेहतर शासन के लिए अध्यादेश को मंजूर किया.'
दस्तावेज के मुताबिक अध्यादेश में कहा गया था कि दलाई लामा और अन्य बौद्ध धर्मगुरु के अवतार के संबंध में प्रक्रिया का पालन करना होता है और चुनिंदा उम्मीदवारों को मान्यता चीन की केंद्रीय सरकार के अधीन है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक दशक में तिब्बत की राजधानी की यह उनकी पहली यात्रा थी. निंगची और ल्हासा की अचानक तीन दिवसीय यात्रा को भारत को चिंता के साथ देखना चाहिए.
शी की तिब्बत यात्रा
दूसरी ओर, 22 जुलाई को अचानक यात्रा में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अरुणाचल प्रदेश की सीमा से लगे तिब्बती शहर निंगची का दौरा किया है. जिनपिंग ल्हासा में दलाई लामा के आधिकारिक निवास पोटाला पैलेस के पास दिखाई दिए. शी के 2013 में राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभालने के बाद यह उनका पहला तिब्बत दौरा है. वह बतौर उपराष्ट्रपति 2011 में हिमालय क्षेत्र आए थे.
भारत-चीन और तिब्बत का कनेक्शन
भारत-चीन सीमा विवाद का दायरा लद्दाख, डोकलाम, नाथूला से होते हुए अरुणाचल प्रदेश की तवांग घाटी तक जाता है. अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके पर चीन की निगाहें हमेशा से रही हैं. वे तवांग को तिब्बत का हिस्सा मानते हैं और कहते हैं कि तवांग और तिब्बत में सांस्कृतिक समानता है. तवांग बौद्धों का प्रमुख धर्मस्थल भी है.
तिब्बत पर भारत का रुख
अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों का मानना है कि तिब्बत के मामले में भारत की नीति बेहद लचर रही है. दरअसल, साल 1914 में शिमला समझौते के तहत मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया था. बाद में 1954 में तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू ने एक समझौते के तहत तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया.इसके बाद मार्च 1962 में नेहरू का चीन के साथ तिब्बत पर करार खत्म हो गया और यह यथास्थिति 2003 तक बनी रही. फिर 2003 में जब वाजपेयी चीन के दौरे पर गए तो उन्होंने तिब्बत पर समझौता कर लिया. स्पष्ट है कि भारत के इसी लचर रवैये की वजह से चीन तिब्बत को लेकर भारत पर आंखें तरेरता रहता है.