तिरुवनंतपुरम : करीब एक महीने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल में सत्ता हासिल करने के अपने सपने की बात कही थी, जहां हमेशा से दो प्रमुख राजनीतिक गठबंधन का वर्चस्व रहा है.
राज्य में एक गठजोड़ सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्ट (माकपा) के नेतृत्व में है और दूसरा विपक्षी दल कांग्रेस के नेतृत्व में है. केरल की राजनीति मुख्य रूप से इन्हीं दोनों गठबंधन के इर्द-गिर्द घूमती रही है. ईसाई बहुल राज्यों नगालैंड और मेघालय में चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन से उत्साहित होकर प्रधानमंत्री मोदी ने दो मार्च को केरल को लेकर अपने सपने की बात की थी.
चार हफ्ते बाद, भाजपा ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री एके एंटनी के बेटे अनिल के एंटनी को अपने पाले में लाकर राज्य में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को चौंका दिया. एंटनी को दक्षिणी राज्य में अपने प्रमुख अल्पसंख्यक चेहरों में से एक के रूप में प्रस्तुत करते हुए, भाजपा अब कह रही है कि ईसाई और मुस्लिम समुदायों के कई लोग आगामी दिनों में पार्टी में शामिल होंगे क्योंकि केरल में राजनीतिक परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल गया है. हालांकि, माकपा और कांग्रेस ने इसका प्रतिकार करते हुए कहा कि मोदी के केरल में सत्ता हासिल करने के सपने हमेशा के लिए अधूरे रहेंगे.
प्रधानमंत्री द्वारा निर्धारित लक्ष्यों के करीब पहुंचने के लिए, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अच्छी तरह जानती है कि उसे उत्तर भारत के राज्यों के विपरीत केरल में एक अलग दृष्टिकोण अपनाना होगा. अल्पसंख्यकों पर ध्यान केंद्रित करने के अलावा अनुसूचित जाति (एससी) /अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में पार्टी को पैठ बनानी होगी.
चुनाव विश्लेषक और केरल विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. सज्जाद इब्राहिम ने कहा, 'भाजपा चुनाव दर चुनाव केरल में आगे बढ़ रही है.' साथ ही उन्होंने कहा कि केरल में मतदाताओं की लगभग आधी संख्या अल्पसंख्यकों से संबंधित हैं, जिसमें पैठ बनाने के लिए भाजपा को कड़ी मशक्कत करनी होगी.
हालांकि, केरल विधानसभा या राज्य से लोकसभा में एक भी सीट नहीं होने के बावजूद, भाजपा दक्षिणी राज्य में दो नगर पालिकाओं और 19 ग्राम पंचायतों पर शासन कर रही है.
भाजपा की केरल इकाई के महासचिव जॉर्ज कुरियन ने कहा, 'केरल में राजनीतिक परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल गया है. हमने देखा कि एके एंटनी के पुत्र अनिल एंटनी भाजपा में शामिल हो गए. काफी लोग भाजपा में शामिल होने के लिए तैयार हैं. इनमें अल्पसंख्यक समुदायों के लोग भी हैं.'
भाजपा को लंबे समय से यह एहसास है कि वह केरल में केवल सवर्ण जातियों से मिल रहे समर्थन की बदौलत सीट नहीं जीत सकती है और उसे अल्पसंख्यकों, एससी/एसटी और ओबीसी का समर्थन हासिल करना होगा. हालांकि, पार्टी 2016 के बाद माकपा के एक प्रमुख वोट बैंक माने जाने वाले एझावा समुदाय से महत्वपूर्ण वोट प्रतिशत हासिल करने में कामयाब रही है, लेकिन भाजपा के लिए अल्पसंख्यकों का वोट एक प्रतिशत से कम है.
भाजपा के नेमोम निर्वाचन क्षेत्र के उपाध्यक्ष के. शशिकुमार ने कहा, 'भाजपा ने जमीनी स्तर पर काम करने का फैसला किया है. अब हम अपने क्षेत्र के प्रत्येक घर में जाकर लोगों को जोड़ने का कार्यक्रम कर रहे हैं, या परिवार की बैठकें आयोजित करके, 10 या अधिक घरों को जोड़कर जागरूकता कार्यक्रम कर रहे हैं.'
2019 में उठाया था सबरीमाला मुद्दा : भाजपा ने 2019 के आम चुनावों के दौरान सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर माकपा के वोट प्रतिशत में महत्वपूर्ण सेंध लगाई थी. हालांकि, माकपा को अब भरोसा है कि 2019 के चुनावों के दौरान जिन लोगों ने भाजपा को वोट दिया उनमें से ज्यादातर अब माकपा की तरफ लौट आए हैं.
माकपा के वरिष्ठ नेता और केरल के पूर्व वित्त मंत्री थॉमस इसाक ने कहा, 'हम अब समझ गए हैं कि उनकी नजर हमारे जनाधार पर भी है, जो मूल रूप से केरल में अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग है.'
इसाक ने कहा कि भाजपा केरल में वास्तव में कभी भी महत्वपूर्ण बढ़त नहीं बना सकेगी क्योंकि हिंदू समुदाय भी भाजपा की सांप्रदायिक विचारधारा को स्वीकार नहीं करेगा. उन्होंने कहा, 'केरल में हिंदू समुदाय की मान्यता बहुत अलग है. वे इस तरह कभी सांप्रदायिक नहीं रहे, वे बहुत धर्मनिरपेक्ष समुदाय रहे हैं.'
हालांकि, आम मतदाताओं के स्वरूप में आया बदलाव भाजपा की उम्मीदों को कायम रखे हुए है. केरल में चुनाव विश्लेषकों द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के अनुसार, लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) दोनों के लिए प्रतिबद्ध मतदाताओं के प्रतिशत में काफी कमी आई है.
इब्राहिम ने कहा, '2000 के दशक के दौरान, कांग्रेस और माकपा जैसी प्रत्येक पार्टी के पास लगभग 25 से 30 प्रतिशत प्रतिबद्ध मतदाता थे. लेकिन 2016-2021 के चुनावों के दौरान, हमने देखा कि प्रतिबद्ध मतदाता प्रतिशत में गिरावट आई है. यह अब घटकर 15 से 20 फीसदी रह गया है.'
भाजपा प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में परिणाम तय करने वाले 5,000 से 8,000 मत प्राप्त करने पर भी ध्यान केंद्रित कर रही है, जिसे तटस्थ मतदाता माना जाता है. हालांकि इसाक ने कहा, 'एलडीएफ और यूडीएफ के बीच का अंतर पूरे राज्य में कभी भी एक लाख या दो लाख वोटों से ज्यादा नहीं रहा. तीन लाख वोट के अंतर से भारी जीत होगी.'
उन्होंने कहा कि एलडीएफ और यूडीएफ के बीच वोट का अंतर बहुत कम है तथा तीसरे मोर्चे के लिए उस बारीक अंतर को हासिल करना बहुत मुश्किल है.
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(पीटीआई-भाषा)