नई दिल्ली : सीजेआई रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ CJI कार्यालय को सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे में बताया है. सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनाया है.
फैसले का बिंदुवार विवरण
- सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. 3:2 के बहुमत से सुनाया फैसला.
- प्रधान न्यायाधीश, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने एक फैसला लिखा.
- न्यायमूर्ति एन वी रमण और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ ने अलग निर्णय लिखे.
- शीर्ष अदालत ने कहा कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय एक पब्लिक अथॉरिटी है.
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कॉलेजियम द्वारा सिफारिश किए गए नामों का खुलासा किया जा सकता है. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि सिफारिश के कारणों का खुलासा नहीं किया जा सकता.
- आजादी प्रभावित न होने का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पारदर्शिता की बात करते समय न्यायिक आजादी का भी ख्याल रखा जाना चाहिए.
- पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को सही ठहराया.
जिस संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एन वी रमण, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना भी शामिल हैं.
उच्चतम न्यायालय की पीठ ने फैसला देते हुए आगाह किया कि सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल निगरानी रखने के हथियार के रूप में नहीं किया जा सकता. कोर्ट ने कहा कि निजता का अधिकार एक महत्वपूर्ण पहलू है, और प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय से जानकारी देने के बारे में निर्णय लेते समय निजता और पारदर्शिता के बीच संतुलन कायम करना होगा.
88 पेज के इस फैसले को 2010 में प्रधान न्यायाधीश रहे केजी बालाकृष्ण के लिये व्यक्तिगत रूप से एक झटका माना जा रहा है क्योंकि वह सूचना के अधिकार कानून के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना की जानकारी देने के पक्ष में नहीं थे.
आरटीआई कार्यकर्ताओं ने शीर्ष न्यायालय के इस फैसले की सराहना की और साथ ही कहा कि 'कानून से ऊपर कोई नहीं है.' सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने फैसले का स्वागत किया है. उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने सबसे अहम बात कही है कि सूचना का अधिकार मौलिक अधिकार है. सुभाष अग्रवाल द्वारा मांगी गई सूचना पर प्रशांत भूषण ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये सूचना देनी होगी.
प्रशांत भूषण ने कहा कि जजों की नियुक्ति पर कॉलेजियम में हुई चर्चा को सार्वजनिक करने की मांग की गई थी. उन्होंने बताया कि इस सवाल पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि ये सूचना दी जानी चाहिए, इसे छिपाना नहीं चाहिए.
आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है. ईटीवी भारत से बात करते हुए सुभाष चंद्र अग्रवाल ने कहा कि ये पारदर्शिता के दौर में एक ऐतिहासिक फैसला है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही जन सूचना पदाधिकारी के खिलाफ फैसला सुनाया है.
सुभाष अग्रवाल ने कहा कि न्यायिक प्रक्रिया आरटीआई के दायरे में नहीं आती है. सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासनिक जानकारियों को आरटीआई के दायरे में करार दिया है.
बता दें कि पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने उच्च न्यायालय और केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के आदेशों के खिलाफ 2010 में शीर्ष अदालत के महासचिव और केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी द्वारा दायर अपीलों पर गत चार अप्रैल को निर्णय सुरक्षित रख लिया था.
प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ ने सुनवाई पूरी करते हुए कहा था कि कोई भी 'अपारदर्शिता की व्यवस्था' नहीं चाहता, लेकिन पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका को नष्ट नहीं किया जा सकता.
इसने कहा था, 'कोई भी अंधेरे की स्थिति में नहीं रहना चाहता या किसी को अंधेरे की स्थिति में नहीं रखना चाहता. आप पारदर्शिता के नाम पर संस्था को नष्ट नहीं कर सकते.'
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 10 जनवरी 2010 को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय आरटीआई कानून के दायरे में आता है. उच्च न्यायालय ने कहा था कि न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपी गयी है.
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इस 88 पृष्ठ के फैसले को तब तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के लिए निजी झटके के रूप में देखा गया था जो आरटीआई कानून के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना का खुलासा किए जाने के विरोध में थे.
उच्च न्यायालय ने शीर्ष अदालत की इस दलील को खारिज कर दिया था कि सीजेआई कार्यालय को आरटीआई के दायरे में लाए जाने से न्यायिक स्वतंत्रता 'बाधित' होगी.
(एक्सट्रा इनपुट- भाषा)