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विशेष : दो परिपक्व कलाकारों ने एक दिन के अंतर में दुनिया को कहा अलविदा

जिस तरह इरफान खान और ऋषि कपूर दोनों ही एक दिन के अंतर में गुजर गए, आज दुनिया उन्हें एक साथ याद कर रही है. दो परिपक्व कलाकार अपने जीवन के चरम पर, जो केवल बेहतर होने की राह पर थे, अलविदा कह गए. फिर भी, उन दोनों में बहुत अधिक अंतर था.

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Published : May 3, 2020, 5:31 PM IST

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दो परिपक्व कलाकारों ने एक दिन के अंतर में दुनिया को कहा अलविदा

निखिल आडवाणी की 2013 में आई राष्ट्रवादी व रोमांचक फिल्म डी-डे (2013) में 'नए भारत' की परिकल्पना की गई है, जिसमें आतंकवादियों का शिकार उनकी ही मांद में किया जाता है. इसमें एक दृश्य ऐसा आता है, जब ऋषि कपूर, जो गोल्डमैन (दाऊद इब्राहिम पर आधारित) हैं, इरफान एक रॉ एजेंट वली की भूमिका में हैं. वह उनका हाथ पकड़ते हैं और उनसे यह सोचने के लिए कहते हैं कि दुनिया उन्हें हमेशा किस तमगे के साथ याद करेगी.

जिस तरह वह दोनों एक दिन के अंतर में गुजर गए, आज दुनिया उन्हें एक साथ याद कर रही है. दो परिपक्व कलाकार अपने जीवन के चरम पर, जो केवल बेहतर होने की राह पर थे, अलविदा कह गए.

फिर भी उन दोनों में बहुत अधिक अंतर था. ऋषि कपूर (67) मुंबई सिनेमा के पहले परिवार की तीसरी पीढ़ी के अभिनेता थे, जिनको शराब और असुरक्षा के दैत्यों के अलावा कभी संघर्ष नहीं करना पड़ा. 53 साल के इरफान, एक दूसरी ही तरह के साहिबजादे थे, जो राजस्थान के टोंक के एक गौण शाही परिवार से संबंध रखते थे. उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य महाविद्यालय के माध्यम से मुंबई सिनेमा में प्रवेश किया था और फिर उन्हें अपने पैर मजबूती से जमाने में कई साल लग गए. एक सहज अभिनेता, जो कोरी किस्मत और बहुत सारे अंतर्ज्ञान के दम पर आगे बढ़ा और दूसरा शास्त्रीय रूप से प्रशिक्षित और गहरा दार्शनिक था. एक जिसके जीन में अभिनय रचा बसा था, उसने पहली बार तीन साल की उम्र में अपने पिता की फिल्म श्री 420 के एक गीत 'प्यार हुआ इकरार' के लिए कैमरे का सामना किया था. दूसरा जिसके परिवार का टायर का कारोबार था और जो पहली बार एयरकंडिशनर की मरम्मत करने वाले के तौर पर मुंबई आया.

फिर भी इन दोनों के साथ बहुत कुछ समानता थी. कला का एक प्रेम और बकवास न बर्दाश्त करने की क्षमता. न ही दोनों के पास अनावश्यक तामझाम के लिए समय था. ऋषि कपूर ने इसे पुरजोर तरीके से व्यक्त किया. इरफान ने हलके से कहा. दोनों ने ऐसी फिल्मों की विरासत छोड़ी है, जिनको दर्शक हमेशा सराहते रहेंगे.

इरफान हमेशा से ही गंभीर, चिंतनशील, उस टीम में उम्र में सबसे बड़े थे, जिसके साथ मीरा नायर ने सलाम बॉम्बे (1988) की वर्कशॉप की थी. सह-लेखक सोओनी तारापोरवाला याद करती हैं कि जब उनके फोटोग्राफी के निदेशक मुंबई में आए थे, तो उन्हें लगा कि इरफान की उम्र एक लड़के की भूमिका निभाने के लिए ज्यादा है. अफसोस कि नायर को उन्हें जाने देना पड़ा और अंततः फिल्म में उन्हें सड़क किनारे रहने वाले पत्रकार की एक छोटी भूमिका पर समझौता करना पड़ा.

ऋषि कपूर सदाबहार बालक थे, तब जब अवयस्क राज कपूर की भूमिका में अपनी स्कूल शिक्षिका से 'मेरा नाम जोकर' (1970) में प्रेम कर बैठते हैं और तब भी जब परिष्कृत सूट पहनकर, पूर्णतः किशोर रोमांस बॉबी (1973) में एक युवा पुरुष के तौर पर नजर आए. 1970 के दशक में कई बच्चों के लिए बॉबी एक मिसाल बन गई थी. आगे बंधे हुए टॉप और लेदर के जैकेट हर कोई पहनना चाहता था. बिना किसी वर्ग और धर्म की बंदिशों के प्रेम करना भी सिखाया बॉबी ने. ऋषि की शुरुआत ऐसे हुई और फिर उन्होंने कई हल्की-फुल्की रोमानी पिक्चरों में अदाकारी की, जो आगे चल के उम्र के साथ यथार्थवादी सिनेमा में तब्दील होती गई. 2010 आते-आते उन्होंने 'दो दूनी चार' (2011) में जितनी सहजता से एक साधारण से गणित के अध्यापक की भूमिका निभाई, उतनी ही स्वाभाविकता से वह मुल्क (2017) में आतंक के आरोपी मुस्लिम बुज़ुर्ग नजर आए.

हालांकि वह ट्विटर पर हो सकता है कि एक शराबी अंकल के तौर पर पहचाने जाते हों. यह कह सकते हैं कि वह बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात रखना बखूबी जानते थे या जैसा कि उनकी आत्मकथा ने खुल्लम-खुल्ला कहा, वह मुंबई फिल्म उद्योग के उन कुछ लोगों में से एक थे, जिन्होंने अपने मन की बात, हिंदू होने के बावजूद बीफ खाने से लेकर पाकिस्तान के साथ शांति चाहने तक ट्विटर पर रखी. इरफान ने भी पुरजोर तरीके से सच बोला. तब भी नहीं घबराए जब मौलवियों ने उनकी टिप्पणी पर आपत्ति जताई कि बकरों का वध क़ुरबानी की असली परिभाषा नहीं है. अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा के लिए उनके बढ़ते प्रदर्शन के साथ उन्होंने द नेमसेक (2006) के अशोक गांगुली की, इन ट्रीटमेंट (2010) के पाई पटेल की, लाइफ ऑफ पाई (2012) में पी पटेल की या द लंचबॉक्स (2013) में साजन फर्नांडिस जैसे व्यस्क पुरुषों की भूमिका को बखूबी निभाया. यहां तक कि जब उन्होंने जुरासिक वर्ल्ड (2015) और इन्फर्नो (2016) जैसे शोरशराबे वाली हॉलीवुड ब्लॉकबस्टर पिक्चरों में रूढ़िवादी खलनायक की भूमिका निभाई, मगर उन्होंने उन हिस्सों में एक निश्चित स्थिरता ला दी, जिसने फिल्मों के स्तर को ऊपर कर दिया.

दोनों ने कैंसर के खिलाफ अपनी लड़ाई में जबरदस्त गरिमा दिखाई. आखिरी समय तक हंसमुख और हाजिर जवाब बने रहे. अगर इरफान ने अपने शरीर में बिन बुलाए मेहमानों' के बारे में बातचीत करते हुए मजाक किया, तो ऋषि कपूर जल्दी ही शर्माजी नमकीन पर काम करने लगे और ट्विटर पर अपने पुराने तरीकों पर लौट आए. पुरानी तस्वीरों को ट्वीट करते हुए, बिना किसी बदलाव के अपने विचार रखते रहे और त्योहार की शुभकामनाएं भी दीं.

डी-डे में आप दोनों कलाकार फिल्म में अपनी कला को सर्वश्रेष्ठ रूप से प्रदर्शित करते देख सकते हैं - ऋषि कपूर, तेज, बाहुबली और आडंबरपूर्ण, ठीक जैसे उनके चरित्र की मांग थी. वहीं इरफान शांत, गूढ़, रहस्यमय रूप में देखे गए जैसे कि रॉ एजेंट की भूमिका की आवश्यकता थी. हुमा कुरैशी, जिन्होंने डी-डे में दोनों के साथ काम किया, ने दोनों को 'प्रामाणिक और अपने प्रति सच्चा माना जैसे कि वह थे- हमेशा अप्राप्य, बेधड़क और अति प्रतिभाशाली.

निर्देशक आडवाणी, जिनको इन दोनों प्रतिभाओं से साथ इकट्ठा काम करने का बहुत बड़ा सौभाग्य प्राप्त हुआ, कहते हैं कि उनके निधन पर उन्हें 'खालीपन' महसूस होता है. ठीक यही हाल दुनिया के बाकी लोगों का भी है.

किसी की पोस्ट को रीट्वीट करते हुए ऋषि कपूर ने लिखा था कि सब्र करो, दुनिया और इरफान खान ने कहा था, 'मेरा इंतजार करना.' दो महान हस्तियों से जीवन के लिए महान सलाह.

(लेखक- कावेरी बमजई, पूर्व संपादक)

निखिल आडवाणी की 2013 में आई राष्ट्रवादी व रोमांचक फिल्म डी-डे (2013) में 'नए भारत' की परिकल्पना की गई है, जिसमें आतंकवादियों का शिकार उनकी ही मांद में किया जाता है. इसमें एक दृश्य ऐसा आता है, जब ऋषि कपूर, जो गोल्डमैन (दाऊद इब्राहिम पर आधारित) हैं, इरफान एक रॉ एजेंट वली की भूमिका में हैं. वह उनका हाथ पकड़ते हैं और उनसे यह सोचने के लिए कहते हैं कि दुनिया उन्हें हमेशा किस तमगे के साथ याद करेगी.

जिस तरह वह दोनों एक दिन के अंतर में गुजर गए, आज दुनिया उन्हें एक साथ याद कर रही है. दो परिपक्व कलाकार अपने जीवन के चरम पर, जो केवल बेहतर होने की राह पर थे, अलविदा कह गए.

फिर भी उन दोनों में बहुत अधिक अंतर था. ऋषि कपूर (67) मुंबई सिनेमा के पहले परिवार की तीसरी पीढ़ी के अभिनेता थे, जिनको शराब और असुरक्षा के दैत्यों के अलावा कभी संघर्ष नहीं करना पड़ा. 53 साल के इरफान, एक दूसरी ही तरह के साहिबजादे थे, जो राजस्थान के टोंक के एक गौण शाही परिवार से संबंध रखते थे. उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य महाविद्यालय के माध्यम से मुंबई सिनेमा में प्रवेश किया था और फिर उन्हें अपने पैर मजबूती से जमाने में कई साल लग गए. एक सहज अभिनेता, जो कोरी किस्मत और बहुत सारे अंतर्ज्ञान के दम पर आगे बढ़ा और दूसरा शास्त्रीय रूप से प्रशिक्षित और गहरा दार्शनिक था. एक जिसके जीन में अभिनय रचा बसा था, उसने पहली बार तीन साल की उम्र में अपने पिता की फिल्म श्री 420 के एक गीत 'प्यार हुआ इकरार' के लिए कैमरे का सामना किया था. दूसरा जिसके परिवार का टायर का कारोबार था और जो पहली बार एयरकंडिशनर की मरम्मत करने वाले के तौर पर मुंबई आया.

फिर भी इन दोनों के साथ बहुत कुछ समानता थी. कला का एक प्रेम और बकवास न बर्दाश्त करने की क्षमता. न ही दोनों के पास अनावश्यक तामझाम के लिए समय था. ऋषि कपूर ने इसे पुरजोर तरीके से व्यक्त किया. इरफान ने हलके से कहा. दोनों ने ऐसी फिल्मों की विरासत छोड़ी है, जिनको दर्शक हमेशा सराहते रहेंगे.

इरफान हमेशा से ही गंभीर, चिंतनशील, उस टीम में उम्र में सबसे बड़े थे, जिसके साथ मीरा नायर ने सलाम बॉम्बे (1988) की वर्कशॉप की थी. सह-लेखक सोओनी तारापोरवाला याद करती हैं कि जब उनके फोटोग्राफी के निदेशक मुंबई में आए थे, तो उन्हें लगा कि इरफान की उम्र एक लड़के की भूमिका निभाने के लिए ज्यादा है. अफसोस कि नायर को उन्हें जाने देना पड़ा और अंततः फिल्म में उन्हें सड़क किनारे रहने वाले पत्रकार की एक छोटी भूमिका पर समझौता करना पड़ा.

ऋषि कपूर सदाबहार बालक थे, तब जब अवयस्क राज कपूर की भूमिका में अपनी स्कूल शिक्षिका से 'मेरा नाम जोकर' (1970) में प्रेम कर बैठते हैं और तब भी जब परिष्कृत सूट पहनकर, पूर्णतः किशोर रोमांस बॉबी (1973) में एक युवा पुरुष के तौर पर नजर आए. 1970 के दशक में कई बच्चों के लिए बॉबी एक मिसाल बन गई थी. आगे बंधे हुए टॉप और लेदर के जैकेट हर कोई पहनना चाहता था. बिना किसी वर्ग और धर्म की बंदिशों के प्रेम करना भी सिखाया बॉबी ने. ऋषि की शुरुआत ऐसे हुई और फिर उन्होंने कई हल्की-फुल्की रोमानी पिक्चरों में अदाकारी की, जो आगे चल के उम्र के साथ यथार्थवादी सिनेमा में तब्दील होती गई. 2010 आते-आते उन्होंने 'दो दूनी चार' (2011) में जितनी सहजता से एक साधारण से गणित के अध्यापक की भूमिका निभाई, उतनी ही स्वाभाविकता से वह मुल्क (2017) में आतंक के आरोपी मुस्लिम बुज़ुर्ग नजर आए.

हालांकि वह ट्विटर पर हो सकता है कि एक शराबी अंकल के तौर पर पहचाने जाते हों. यह कह सकते हैं कि वह बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात रखना बखूबी जानते थे या जैसा कि उनकी आत्मकथा ने खुल्लम-खुल्ला कहा, वह मुंबई फिल्म उद्योग के उन कुछ लोगों में से एक थे, जिन्होंने अपने मन की बात, हिंदू होने के बावजूद बीफ खाने से लेकर पाकिस्तान के साथ शांति चाहने तक ट्विटर पर रखी. इरफान ने भी पुरजोर तरीके से सच बोला. तब भी नहीं घबराए जब मौलवियों ने उनकी टिप्पणी पर आपत्ति जताई कि बकरों का वध क़ुरबानी की असली परिभाषा नहीं है. अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा के लिए उनके बढ़ते प्रदर्शन के साथ उन्होंने द नेमसेक (2006) के अशोक गांगुली की, इन ट्रीटमेंट (2010) के पाई पटेल की, लाइफ ऑफ पाई (2012) में पी पटेल की या द लंचबॉक्स (2013) में साजन फर्नांडिस जैसे व्यस्क पुरुषों की भूमिका को बखूबी निभाया. यहां तक कि जब उन्होंने जुरासिक वर्ल्ड (2015) और इन्फर्नो (2016) जैसे शोरशराबे वाली हॉलीवुड ब्लॉकबस्टर पिक्चरों में रूढ़िवादी खलनायक की भूमिका निभाई, मगर उन्होंने उन हिस्सों में एक निश्चित स्थिरता ला दी, जिसने फिल्मों के स्तर को ऊपर कर दिया.

दोनों ने कैंसर के खिलाफ अपनी लड़ाई में जबरदस्त गरिमा दिखाई. आखिरी समय तक हंसमुख और हाजिर जवाब बने रहे. अगर इरफान ने अपने शरीर में बिन बुलाए मेहमानों' के बारे में बातचीत करते हुए मजाक किया, तो ऋषि कपूर जल्दी ही शर्माजी नमकीन पर काम करने लगे और ट्विटर पर अपने पुराने तरीकों पर लौट आए. पुरानी तस्वीरों को ट्वीट करते हुए, बिना किसी बदलाव के अपने विचार रखते रहे और त्योहार की शुभकामनाएं भी दीं.

डी-डे में आप दोनों कलाकार फिल्म में अपनी कला को सर्वश्रेष्ठ रूप से प्रदर्शित करते देख सकते हैं - ऋषि कपूर, तेज, बाहुबली और आडंबरपूर्ण, ठीक जैसे उनके चरित्र की मांग थी. वहीं इरफान शांत, गूढ़, रहस्यमय रूप में देखे गए जैसे कि रॉ एजेंट की भूमिका की आवश्यकता थी. हुमा कुरैशी, जिन्होंने डी-डे में दोनों के साथ काम किया, ने दोनों को 'प्रामाणिक और अपने प्रति सच्चा माना जैसे कि वह थे- हमेशा अप्राप्य, बेधड़क और अति प्रतिभाशाली.

निर्देशक आडवाणी, जिनको इन दोनों प्रतिभाओं से साथ इकट्ठा काम करने का बहुत बड़ा सौभाग्य प्राप्त हुआ, कहते हैं कि उनके निधन पर उन्हें 'खालीपन' महसूस होता है. ठीक यही हाल दुनिया के बाकी लोगों का भी है.

किसी की पोस्ट को रीट्वीट करते हुए ऋषि कपूर ने लिखा था कि सब्र करो, दुनिया और इरफान खान ने कहा था, 'मेरा इंतजार करना.' दो महान हस्तियों से जीवन के लिए महान सलाह.

(लेखक- कावेरी बमजई, पूर्व संपादक)

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