देहरादून : 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा' और 'दिल्ली चलो' जैसे नारों से लोगों में आजादी का जुनून पैदा करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज (23 जनवरी) 123वीं जयंती है. वहीं, नेताजी और उनके द्वारा स्थापित आजाद हिन्द फौज का उत्तराखंड से काफी गहरा नाता रहा. कहा जाता है कि विद्रोह के साथ-साथ लड़ने की प्रेरणा भी नेताजी को देवभूमि से ही मिली थी.
देहरादून से मिली नेताजी को विद्रोह और लड़ने की प्रेरणा
मसान साम्राज्य के राजा महेंद्र प्रताप सिंह का कार्यक्षेत्र देहरादून था. आज भी उनकी कोठियां देहरादून राजपुर रोड पर मौजूद हैं. साल 1914 में उन्होंने यहां से भाग कर अफगानिस्तान के काबुल में जाकर निर्वासित भारत सरकार का गठन किया था और खुद उसके राष्ट्रपति बन गए. राजा महेंद्र प्रताप सिंह वहीं से विश्व के अन्य नेताओं जैसे कि स्टर्लिंग, हिटलर आदि से भारत के राष्ट्रपति की हैसियत से मिला करते थे. राजा महेंद्र प्रताप के विद्रोह और इस रणनीति से प्रेरणा लेते हुए नेता सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द सेना का गठन किया.
पेशावर महानायक वीरचन्द्र गढ़वाली से मिला भरोसा
साल 1930 में उत्तराखंड के पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र गढ़वाली से भी नेताजी प्रेरित हुए थे. दरअसल, 23 अप्रैल 1930 को हवलदार मेजर वीर चंद्र गढ़वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ़वाल राइफल के जवानों ने भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर दिया था, जिससे नेताजी को आत्मविश्वास मिला.
इन सभी घटनाओं के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत से विद्रोह कर रंगून चले गए. जहां, उन्होंने आजाद हिन्द फौज की स्थापना की. इतना ही नहीं देहरादून FRI में काम कर रहे रासबिहारी बोस ने अंग्रेज वायसराय पर बम फेंका था. यह घटना भी उत्तराखंड के देहरादून से जुड़ी हुई है.
ये भी पढ़ें: 23 जनवरी : भारत के महानायक सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिन
आजाद हिन्द फौज को था उत्तराखंड के शौर्य पर भरोसा
आजाद हिन्द फौज के गठन के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस का उत्तराखंड से आने वाले सैनिकों पर सबसे ज्यादा भरोसा था. वह उत्तराखंडियों की देशभक्ति से काफी प्रभावित थे. यही वजह थी कि आजाद हिन्द फौज में पूरी दो बटालियन गढ़वालियों की थीं. आजाद हिन्द फौज में दूसरी गढ़वाल और पांचवी गढ़वाल दो बटालियन मौजूद थीं. सेकेंड गढ़वाल की कमांड कैप्टन बुद्धि सिंह रावत के पास थी तो वहीं फिफ्थ गढ़वाल का नेतृत्व पितृ शरण रतूड़ी ने किया था जोकि टिहरी के बहुत ही लोकप्रिय सैनिक थे.
इसके अलावा आजाद हिन्द फौज के रंगून में मौजूद ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल के चीफ भी उत्तराखंड से थे, जिनका नाम चंद्र सिंह नेगी था. बाद में आजाद हिन्द फौज के इन तीनों वीर सैनिकों को मेजर में प्रमोट किया गया और फिर ये कर्नल के पोस्ट तक प्रमोट किए गए.
उत्तराखंडी सैनिकों ने आजाद हिन्द फौज में दी शहादत
इन तीनों अफसरों के अलावा ज्ञान सिंह बिष्ट, कैप्टन महेंद्र सिंह बागड़ी, मेजर पदम सिंह गुसाईं और मेजर देव सिंह दानू ने भी आजाद हिन्द फौज में प्रमुख भूमिका निभाई थी. लेफ्टिनेट ज्ञान सिंह 1945 में टांगजीन मोर्चे पर गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व कर रहे थे, जहां उन्होंने 40 गढ़वाली सैनिकों के साथ वीरगति को प्राप्त किया, जिसका जिक्र आजाद हिन्द फौज के जनरल शाहनवाज खान ने अपनी किताब में किया था.