छपरा: देश सैकड़ों वर्ष तक अग्रेजों के चुंगल में रहा. आखिरकार 15 अगस्त, 1947 को आजादी मिली. गुलामी की जंजीर से आजादी दिलाने में हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी. सारण जिले के स्तंत्रता सेनानी जगदीश सिंह ने भी देश को आजाद कराने में अपना अहम योगदान दिया. अंग्रजों से लोहा लेने वाले जगदीश सिंह के किस्से आज भी सारणवासियों की जुबां पर है.
'अंग्रेजों की यातनाओं से नहीं डरे'
पुत्र रमाकांत को पिता की बहादुरी पर गर्व है. पुत्र रामाकांत सिंह कहते हैं, 'अग्रजों ने पिता जी को काफी यातनाएं दीं. लेकिन, फिर भी पिताजी उनके आगे झुके नहीं.' उन पर आजादी की धुन ऐसी सवार थी कि सारी यातनाओं को हंस कर झेलते गए. पुत्र रामाकांत सिंह ने ईटीवी भारत के कैमरे पर पिता से जुड़ी कई दस्तावेज भी दिखाए.
थाना और रेलवे स्टेशन को किया था आग के हवाले
पिता जी ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की बिगुल फूंकी थी. 17 अगस्त 1942 का वो दिन, जब सिताब दियारा निवासी और महान स्वतंत्रता सेनानी महेंद्र नाथ सिंह की अगुवाई में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मैदान में उतर गए. हजारों सेनानियों ने मांझी थाना, पोस्ट ऑफिस और रेलवे स्टेशन को आग के हवाले कर दिया. वहीं मांझी-बलिया रेल लाइन को उखाड़ कर यातायात बाधित कर दिया.
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एक साल तक रहे भूमिगत
इस घटना का बाद जगदीश सिंह भूमिगत हो गए. करीब एक साल तक अंग्रजों की आंखों में धूल झोंक देश की आजादी में अपनी भूमिका निभाते रहे. हालांकि एक साल बाद पुलिस की गिरफ्त में आए. जगदीश सिंह को एक साल तक छपरा जेल में रहना पड़ा. जेल में काफी यातनाओं से गुजरना पड़ा. आलम यह रहा कि जबतक जिंदा रहे कमर और शरीर में दर्द उनका साथी रहा.
सरकार से मिलती है आर्थिक मदद
स्वतंत्रता सेनानी महेन्द्र नाथ सिंह की पत्नी अब काफी बुजुर्ग हो गईं हैं. केन्द्र सरकार की तरफ से 28 हजार और बिहार सरकार से 5 हजार रुपये की पेंशन राशि मिलती है. जिससे उनका गुजारा हो रहा है.