हैदराबाद : सिल्वर स्क्रीन वास्तव में लाखों लोगों के लिए सपनों की दुनिया रही है. अभिनेताओं द्वारा निभाए गए चरित्रों ने उन पर जादू जैसा काम किया है. कुछ चरित्र तो अमर हो चुके हैं. छोटे पर्दे ने बड़े पर्दे की पहुंच घर-घर तक कर दी है. इसके जरिए अभिनेताओं की लोकप्रियता घर-घर तक फैल गई. अब तो बस रिमोट का बटन दबाएं और फिर डिनर टेबल पर सबकुछ हाजिर है.
अब, ओवर-द-टॉप (ओटीटी) मीडिया के साथ मनोरंजन के विकास ने वर्गीकरण को निरर्थक बना दिया है. जल्द ही यह बड़े पर्दे के अनुभव को अतीत की बात बना सकता है. वह समय गया, जब आप उनके द्वारा निर्धारित समय पर सिनेमा या टीवी देखते थे. अब तो आपकी एक क्लिक पर सबकुछ हाजिर है. अभिनेताओं और उनके स्टारडम का वर्गीकरण भी ऐसे ही रैंडम बदलाव से गुजर रहा है.
कई पुराने कलाकारों ने ओटीटी के जरिए अपने करियर को नई दिशा दी है. उनकी लोकप्रियता फिर से बढ़ने लगी. प्रतिस्पर्धी जगत में कई नए और उभरते हुए अभिनेताओं को ओटीटी ने मंच प्रदान किया, जिन्हें शायद मंच मिल पाता या नहीं भी.
वैसे, एक अभिनेता की बात करना यहां जरूरी है. आप इसके जरिए ओटीटी का वैल्यू समझ सकते हैं. उनका नाम है सैफ अली खान. उन्होंने इस तकनीक का भरपूर फायदा उठाया है. ओटीटी पर उन्होंने अलग पहचान बना ली. उनकी हालिया फिल्म तांडव और सैक्रेड गेम्स विवादों में भी रही. वह समय गया, जब लोग सास-बहू सीरियल देखा करते थे. वह जमाना नब्बे के दशक का था. 2000 में यह खत्म सा हो गया. उसके बाद भारतीय दर्शकों की च्वाइस भी बदली. उनमें बदलाव होता रहा. जाहिर है, ऐसे में कहानी कहने के तरीके में भी बदलाव जरूरी ही था.
बदलाव ग्रामीण दर्शकों में भी दिख रहा है. वे अभी ट्रांजिशन के फेज में हैं. शहरी दर्शक नई सहस्राब्दी की कहानी चाहते हैं. वे हकीकत को ज्यादा पसंद करते हैं. वे कहानी में आदर्श जैसी स्थिति नहीं चाहते हैं. वे चाहते हैं कि उनका नायक वास्तविक दुनिया की वास्तविक समस्याओं से जूझे. बिल्कुल नेचुरल और मानवीय.
मनोज बाजपेयी की 'फैमिली मैन' वैसी ही कहानी कहती है. वह भारतीय मध्यमवर्गीय चुनौतियों से जूझ रहा है, लेकिन एक एजेंट के तौर पर वह देश की रक्षा से समझौता नहीं करता है. सुष्मिता सेन और चंद्र सिंह की 'आर्या' एक सामान्य भारतीय परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है. उनका परिवार अपराध की दुनिया में दाखिल होने के लिए मजबूर कर दिया जाता है, क्योंकि ऐसा नहीं करेगा, तो उसके अस्तित्व पर बात बन आई. बॉबी देवल की आश्रम भी सच्चाई के आस-पास घूमती रहती है.
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ऐसी फिल्में भले ही अनग्लैमरस होती हैं, लेकिन यह लोगों को अपील करती हैं. अभिनेताओं को अच्छा प्रदर्शन करने के लिए कहानी प्रेरित करती हैं. समय की भी बाध्यता नहीं रहती है. वेब सीरिज ने तो उसका तोड़ निकाल डाला है. इस पर न तो आधे घंटे की बंदिश लागू होती है और न ही ढाई घंटे की बाध्यता. यह 500 करोड़ का बिजनेस करने वाली फिल्मों से बिल्कुल हट कर होती हैं.
ओटीटी मंच पर प्रसारित होने वाली फिल्मों पर अब सरकार की भी नजर जा रही है. उसे नियामक प्रणाली के तहत लाने की कोशिश की जा रही है. अभी ओटीटी का दायरा अपरिभाषित है. वैसी प्रतिभाओं को मौका मिल रहा है, जिन्हें आम तौर पर साइडलाइऩ कर दिया गया या मुख्य धारा से कट चुके थे. यहां किसी की लॉबी का कोई असर नहीं पड़ने वाला है. यह सारे बंधनों से मुक्त है.