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लिपुलेख सीमा तक पहुंचा ईटीवी भारत- जानें, भारत व नेपाल विवाद की पूरी कहानी - lipulekh kalapani dispute

भारतीय राजनायिक दबाव के बाद नेपाल को अपने दावे से हाथ पीछे खींचने पड़े हैं. नेपाल ने अपने देश के राजनीतिक नक्शे में किए गए बदलावों को वापस ले लिया है. पहले नेपाल ने भारत के लिपुलेख और कालापानी को शामिल कर एक नक्शा जारी किया था और दोनों को अपनी सीमा का हिस्सा बताया था. देखिए स्पेशल रिपोर्ट...

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नेपाल के लिपुलेख पर दावे का सच
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Published : May 28, 2020, 9:41 PM IST

Updated : Jun 10, 2020, 10:54 AM IST

पिथौरागढ़ : भारतीय राजनायिक दबाव के बाद नेपाल को अपने दावे से हाथ पीछे खींचने पड़े हैं. नेपाल ने अपने देश के राजनीतिक नक्शे में किए गए बदलावों को वापस ले लिया है. पहले नेपाल ने भारत के लिपुलेख और कालापानी को शामिल कर एक नक्शा जारी किया था और दोनों को अपनी सीमा का हिस्सा बताया था. नेपाल के कदम वापस खींचने के बाद जहां इसे भारत की बड़ी जीत माना जा रहा है, वहीं सीमा पर भी हलचल बढ़ गई है.

लिपुलेख सड़क उद्धाटन के बाद उठा विवाद

आठ मई को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह द्वारा लिपुलेख सड़क का उद्घाटन करने के बाद से चीन और नेपाल ने भारत को घेरना शुरू कर दिया था.

नेपाल ने जहां लिपुलेख सड़क पर अपना दावा जताते हुए कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को अपना भू-भाग बताया था तो वहीं चीन ने लद्दाख सीमा पर भारत से उलझना शुरू कर दिया था.

चीन बॉर्डर पर पहुंचा ईटीवी भारत

लिपुलेख सड़क बनने के बाद पहली बार ईटीवी भारत चीन सीमा तक पहुंचा. चीन सीमा को जोड़ने वाली लिपुलेख सड़क को काटने में बीआरओ को 12 साल का समय लगा है.

हिमालय की गोद में इस कठिन टास्क को पूरा करने में बीआरओ के दर्जन भर कर्मचारी और मजदूरों को भी जान गंवानी पड़ी है. करीब 400 करोड़ की लागत से बीआरओ ने घटियाबगड़ से लिपुलेख तक भारत का रास्ता तैयार कर दिया है.

देखें ईटीवी भारत की रिपोर्ट

बीआरओ को करनी पड़ी है कड़ी मशक्कत

चीन सीमा को जोड़ने वाली सड़क को काटने के लिए बीआरओ ने दो प्लान तैयार किए थे. प्लान-ए के मुताबिक घटियाबगड़ से ऊपरी इलाके की ओर सड़क को काटा गया था, जबकि प्लान-बी के तहत लिपुलेख से निचले इलाकों की ओर सड़क बनाई गई थी.

बीआरओ के लिए घटियाबगड़ से मालपा तक सड़क की कटिंग करना खासा चुनौतियों से भरा था. यहां हार्ड रॉक को काटकर सड़क बनाई गई है.

घटियाबगड़ से मालपा तक आठ किलोमीटर सड़क काटने में बीआरओ को 11 साल लगे, जिसके चलते घटियाबगड से लिपुलेख तक 74 किलोमीटर सड़क तैयार होने में 12 साल का लम्बा वक्त लगा.

चीन सीमा को जोड़ने वाली इस सड़क में मालपा और बूंदी नाले में दो बड़े पुल बनने बाकी हैं. ग्लेशियर से निकलने वाले इन नालों में दिन ढलने के साथ ही पानी बढ़ेने लगता है. फिलहाल दोनों नालों को पार करने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है.

बूंदी के बाद इनरलाइन छियालेख पहुंचने के लिए रूट का सबसे कठिन सफर शुरू होता है. बूंदी से छियालेख तक 10 किलोमीटर के सफर में कुल 32 बैंड हैं. इस रास्ते में 610 मीटर की चढ़ाई पार करनी होती है.

छियालेख देश की सुरक्षा के लिहाज से खासा अहम है. यहां से आगे बिना परमिट के किसी को भी जाने की इजाजत नहीं है. यहां से आगे रहने वाले स्थानीय लोगों को उनके पहचान पत्र के आधार पर प्रवेश दिया जाता है, जबकि बाहरी लोगों के लिए इनरलाइन परमिट जरूरी है.

सुरक्षा का प्रमुख केंद्र है गुंजी

छियालेख के बाद गर्ब्यांग गांव को पार कर गुंजी गांव आता है. छियालेख के बाद गुंजी इस बॉर्डर में सुरक्षा का प्रमुख केंद्र है.

नदियों के बीच बसे गुंजी में हर वक्त सुरक्षा तंत्र एक्टिव मोड में नजर आता है. यहां आईटीबीपी की सातवीं वाहिनी के साथ ही सेना और एसएसबी की भी अच्छी खासी तैनाती है. यहां आईटीबीपी के पुरुष जवानों के साथ ही महिला जवानों की भी तैनाती की गई है.

नेपाल के दावों की हकीकत क्या?

गुंजी से कालापानी 10 किलोमीटर का सफर है. 11 हजार 700 फीट की ऊंचाई पर मौजूद कालापानी भारत-नेपाल विवाद का सबसे पुराना केंद्र है.

नेपाली कम्यूनिस्ट 1990 के बाद से ही कालापानी पर अपना दावा जताते रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि इस जगह पर 1955 से ही भारतीय सुरक्षा एजेंसी तैनात है. यही नहीं, कालापानी की जमीन भी गर्ब्यांग गांव के खाते में दर्ज है.

1960-62 के बंदोबस्त में कैम्प कालापानी के नाम से यहां की जमीन भारतीय भूमि दस्तावेजों में शामिल है. दरअसल, भारत-नेपाल के बीच सीमा का निर्धारण 1816 की सिगौली संधि के तहत हुआ था.

नेपाली राजा और ब्रिटिश भारत के बीच हुई संधि में साफ है कि काली नदी के पश्चिम का हिस्सा ब्रिटिश भारत का होगा, जबकि पूरब का हिस्सा ब्रिटिश भारत के अधीन होगा.

हालांकि, दो शताब्दी पूर्व हुई सुगौली संधि में कहीं भी काली नदी के श्रोत के बारे में कुछ भी साफ नहीं है. भारत कालापानी को काली नदी का उद्गम मानता है, जबकि नेपाल का दावा है कि लिम्पियाधुरा से निकलने वाली कुटी यांगती नदी काली नदी का उद्गम स्थल है.

यह लिपुलेख और लिम्पियाधुरा का इलाका गुंजी गांव की वन भूमि के रूप में भारतीय दस्तावेजों में दर्ज है.

कालापानी में काली नदी का उद्गम स्थल काली माता का मंदिर है, जिसकी देखरेख का जिम्मा आईटीबीपी के पास है. काली मंदिर के ठीक नीचे गर्भगृह से काली नदी का उद्गम श्रोत है.

यहां से निकलती काली नदी की जलधारा लिपुलेख से निकलने वाली लिपु नदी में मिल जाती है. यहीं से शुरू होने वाली काली नदी आगे जाकर शारदा और घाघरा के नाम से जानी जाती है.

लिपुलेख तक पहुंची सड़क, भारत हुआ मजबूत

चीन सीमा से सटे लिपुलेख तक सड़क पहुंचने से भारतीय सुरक्षा तंत्र मजबूत हुआ है. 1962 में हुए चीनी हमले के बाद से ही यहां चप्पे-चप्पे की निगरानी की जाती है.

15 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित नाभीढांग में भारतीय सेना की अंतिम चौकी है. इससे आगे लिपुलेख तक भारतीय सेना के साथ आईटीबीपी के जवान भी गश्त के लिए जाते हैं.

नाभीढांग का ये इलाका सुरक्षा के लिहाज से बेहद अहम है. यहां से दिखने वाले ओम पर्वत से 4 किलोमीटर दायीं ओर भारत-चीन और नेपाल का ट्राई जंक्शन है, जो सालभर बर्फ से ढका रहता है.

इस बॉर्डर इलाके में सड़क पहुंचने के बाद जहां भारत सामरिक दृष्टि से मजबूत हुआ है वहीं सीमांत क्षेत्र के लोगों को भी लाभ मिल रहा है.

पिथौरागढ़ : भारतीय राजनायिक दबाव के बाद नेपाल को अपने दावे से हाथ पीछे खींचने पड़े हैं. नेपाल ने अपने देश के राजनीतिक नक्शे में किए गए बदलावों को वापस ले लिया है. पहले नेपाल ने भारत के लिपुलेख और कालापानी को शामिल कर एक नक्शा जारी किया था और दोनों को अपनी सीमा का हिस्सा बताया था. नेपाल के कदम वापस खींचने के बाद जहां इसे भारत की बड़ी जीत माना जा रहा है, वहीं सीमा पर भी हलचल बढ़ गई है.

लिपुलेख सड़क उद्धाटन के बाद उठा विवाद

आठ मई को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह द्वारा लिपुलेख सड़क का उद्घाटन करने के बाद से चीन और नेपाल ने भारत को घेरना शुरू कर दिया था.

नेपाल ने जहां लिपुलेख सड़क पर अपना दावा जताते हुए कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को अपना भू-भाग बताया था तो वहीं चीन ने लद्दाख सीमा पर भारत से उलझना शुरू कर दिया था.

चीन बॉर्डर पर पहुंचा ईटीवी भारत

लिपुलेख सड़क बनने के बाद पहली बार ईटीवी भारत चीन सीमा तक पहुंचा. चीन सीमा को जोड़ने वाली लिपुलेख सड़क को काटने में बीआरओ को 12 साल का समय लगा है.

हिमालय की गोद में इस कठिन टास्क को पूरा करने में बीआरओ के दर्जन भर कर्मचारी और मजदूरों को भी जान गंवानी पड़ी है. करीब 400 करोड़ की लागत से बीआरओ ने घटियाबगड़ से लिपुलेख तक भारत का रास्ता तैयार कर दिया है.

देखें ईटीवी भारत की रिपोर्ट

बीआरओ को करनी पड़ी है कड़ी मशक्कत

चीन सीमा को जोड़ने वाली सड़क को काटने के लिए बीआरओ ने दो प्लान तैयार किए थे. प्लान-ए के मुताबिक घटियाबगड़ से ऊपरी इलाके की ओर सड़क को काटा गया था, जबकि प्लान-बी के तहत लिपुलेख से निचले इलाकों की ओर सड़क बनाई गई थी.

बीआरओ के लिए घटियाबगड़ से मालपा तक सड़क की कटिंग करना खासा चुनौतियों से भरा था. यहां हार्ड रॉक को काटकर सड़क बनाई गई है.

घटियाबगड़ से मालपा तक आठ किलोमीटर सड़क काटने में बीआरओ को 11 साल लगे, जिसके चलते घटियाबगड से लिपुलेख तक 74 किलोमीटर सड़क तैयार होने में 12 साल का लम्बा वक्त लगा.

चीन सीमा को जोड़ने वाली इस सड़क में मालपा और बूंदी नाले में दो बड़े पुल बनने बाकी हैं. ग्लेशियर से निकलने वाले इन नालों में दिन ढलने के साथ ही पानी बढ़ेने लगता है. फिलहाल दोनों नालों को पार करने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है.

बूंदी के बाद इनरलाइन छियालेख पहुंचने के लिए रूट का सबसे कठिन सफर शुरू होता है. बूंदी से छियालेख तक 10 किलोमीटर के सफर में कुल 32 बैंड हैं. इस रास्ते में 610 मीटर की चढ़ाई पार करनी होती है.

छियालेख देश की सुरक्षा के लिहाज से खासा अहम है. यहां से आगे बिना परमिट के किसी को भी जाने की इजाजत नहीं है. यहां से आगे रहने वाले स्थानीय लोगों को उनके पहचान पत्र के आधार पर प्रवेश दिया जाता है, जबकि बाहरी लोगों के लिए इनरलाइन परमिट जरूरी है.

सुरक्षा का प्रमुख केंद्र है गुंजी

छियालेख के बाद गर्ब्यांग गांव को पार कर गुंजी गांव आता है. छियालेख के बाद गुंजी इस बॉर्डर में सुरक्षा का प्रमुख केंद्र है.

नदियों के बीच बसे गुंजी में हर वक्त सुरक्षा तंत्र एक्टिव मोड में नजर आता है. यहां आईटीबीपी की सातवीं वाहिनी के साथ ही सेना और एसएसबी की भी अच्छी खासी तैनाती है. यहां आईटीबीपी के पुरुष जवानों के साथ ही महिला जवानों की भी तैनाती की गई है.

नेपाल के दावों की हकीकत क्या?

गुंजी से कालापानी 10 किलोमीटर का सफर है. 11 हजार 700 फीट की ऊंचाई पर मौजूद कालापानी भारत-नेपाल विवाद का सबसे पुराना केंद्र है.

नेपाली कम्यूनिस्ट 1990 के बाद से ही कालापानी पर अपना दावा जताते रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि इस जगह पर 1955 से ही भारतीय सुरक्षा एजेंसी तैनात है. यही नहीं, कालापानी की जमीन भी गर्ब्यांग गांव के खाते में दर्ज है.

1960-62 के बंदोबस्त में कैम्प कालापानी के नाम से यहां की जमीन भारतीय भूमि दस्तावेजों में शामिल है. दरअसल, भारत-नेपाल के बीच सीमा का निर्धारण 1816 की सिगौली संधि के तहत हुआ था.

नेपाली राजा और ब्रिटिश भारत के बीच हुई संधि में साफ है कि काली नदी के पश्चिम का हिस्सा ब्रिटिश भारत का होगा, जबकि पूरब का हिस्सा ब्रिटिश भारत के अधीन होगा.

हालांकि, दो शताब्दी पूर्व हुई सुगौली संधि में कहीं भी काली नदी के श्रोत के बारे में कुछ भी साफ नहीं है. भारत कालापानी को काली नदी का उद्गम मानता है, जबकि नेपाल का दावा है कि लिम्पियाधुरा से निकलने वाली कुटी यांगती नदी काली नदी का उद्गम स्थल है.

यह लिपुलेख और लिम्पियाधुरा का इलाका गुंजी गांव की वन भूमि के रूप में भारतीय दस्तावेजों में दर्ज है.

कालापानी में काली नदी का उद्गम स्थल काली माता का मंदिर है, जिसकी देखरेख का जिम्मा आईटीबीपी के पास है. काली मंदिर के ठीक नीचे गर्भगृह से काली नदी का उद्गम श्रोत है.

यहां से निकलती काली नदी की जलधारा लिपुलेख से निकलने वाली लिपु नदी में मिल जाती है. यहीं से शुरू होने वाली काली नदी आगे जाकर शारदा और घाघरा के नाम से जानी जाती है.

लिपुलेख तक पहुंची सड़क, भारत हुआ मजबूत

चीन सीमा से सटे लिपुलेख तक सड़क पहुंचने से भारतीय सुरक्षा तंत्र मजबूत हुआ है. 1962 में हुए चीनी हमले के बाद से ही यहां चप्पे-चप्पे की निगरानी की जाती है.

15 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित नाभीढांग में भारतीय सेना की अंतिम चौकी है. इससे आगे लिपुलेख तक भारतीय सेना के साथ आईटीबीपी के जवान भी गश्त के लिए जाते हैं.

नाभीढांग का ये इलाका सुरक्षा के लिहाज से बेहद अहम है. यहां से दिखने वाले ओम पर्वत से 4 किलोमीटर दायीं ओर भारत-चीन और नेपाल का ट्राई जंक्शन है, जो सालभर बर्फ से ढका रहता है.

इस बॉर्डर इलाके में सड़क पहुंचने के बाद जहां भारत सामरिक दृष्टि से मजबूत हुआ है वहीं सीमांत क्षेत्र के लोगों को भी लाभ मिल रहा है.

Last Updated : Jun 10, 2020, 10:54 AM IST
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