हैदराबाद : 2014 में मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने तब भारतीय रेल ने अपने ट्रैक पर निजी कंपनियों के प्रवेश के लिए बच्चों की तरह धीरे-धीरे कदम बढ़ाने शुरू किए. पिछले वर्ष चार अक्टूबर 2019 को इन प्रयासों को तब बल मिला जब भारत की पहली निजी ट्रेन लखनऊ-दिल्ली तेजस एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाई गई.
19 जनवरी 2020 को भारतीय रेलवे की पटरियों पर दूसरी निजी ट्रेन अहमदाबाद-मुंबई तेजस एक्सप्रेस शुरू हुई. पहले दो निजी ट्रेनों को चलाने के लिए मोदी सरकार ने अप्रत्यक्ष मार्ग को चुना. बिना किसी निविदा के रेलवे पीएसयू इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉर्पोरेशन (आईआरसीटीसी ) ने परियोजना शुरू की. चूंकि इसमें निजी पक्षों का भी शेयर है इसलिए आईआरसीटीसी तकनीकी दृष्टि से एक 'गैर-रेलवे' ऑपरेटर है.
आईआरसीटीसी की ओर से संचालित दो निजी ट्रेनों की सफलता के बाद भारतीय रेलवे ने इस साल जुलाई में अपनी पटरियों पर 151 यात्री ट्रेनों को चलाने के लिए पूरी तरह से निजी खिलाड़ियों को आमंत्रित करने के अगले चरण में प्रवेश किया. इस मकसद के लिए रेलवे ने दिल्ली, मुंबई, सिकंदराबाद, नागपुर, चेन्नई, हावड़ा, बेंगलुरु, जयपुर और पटना सहित 12 समूहों में फैले 109 मूल-गंतव्य मार्गों की पहचान की है.
पूरी परियोजना एक निजी सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) उद्यम के रूप में तैयार की गई है. भारतीय रेल ट्रैक के अलावा चालक और गार्ड जैसे चालक दल मुहैया कराएगा. शेष कर्मचारी उन निजी कंपनियों के होंगे जो ट्रेन का संचालन करेंगे.
निजी कंपनियां अपनी पसंद के किसी भी स्रोत से ट्रेन-कोच और लोकोमोटिव की खरीद के लिए स्वतंत्र होंगी. निजी एयरलाइंस की तरह, निजी ट्रेन ऑपरेटरों को भी यात्रियों से किराया तय करने और कोचों में विज्ञापनों से गैर-किराया राजस्व अर्जित करने की स्वतंत्रता होगी. उन्हें यात्रा के दौरान ट्रेनों का ठहराव तय करने की भी स्वतंत्रता होगी.
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गौरतलब है कि इस प्रस्ताव पर बहुत उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली है. इस प्रकार अब तक रेलवे को 15 घरेलू और विदेशी कंपनियों से 120 निविदाएं मिली हैं. इनमें स्पेन की सीएएफ, जर्मनी के सिमेंस एजी एंड अल्टम ट्रांसपोर्ट, एल एंड टी, अडानी समूह, जीएमआर समूह, वेल्सपन इंटरप्राइजेज, आईआरबी और भारत सरकार के स्वामित्व वाले सार्वजनिक क्षेत्र के लोक उपक्रम भेल और आईआरसीटीसी शामिल हैं.
उनकी प्रतिक्रिया के आधार पर सरकार ने परियोजना को सौंपने के लिए फरवरी 2021 का लक्ष्य रखा है. इसके बाद सरकार ने वर्ष 2023 के मार्च तक 12 और वर्ष 2024 के मार्च तक 45 निजी ट्रेनों को पेश करने का लक्ष्य निर्धारित किया है.
निजीकरण के लिए रेल मंत्री पीयूष गोयल का सबसे बड़ा तर्क मौजूदा ट्रेनों में क्षमता की कमी है. पिछले वर्षों में स्थिति और खराब हुई है. वर्ष 2019-20 के दौरान 7.44 करोड़ प्रतीक्षा सूची वाले आवेदक आरक्षित बर्थ प्राप्त करने में नाकाम रहे. इसमें आश्चर्य नहीं कि हवाई-यातायात और सड़क-यातायात की सुविधा की वजह से रेलवे लगातार अपने यात्रियों को खो रहा है.
30 हजार करोड़ रुपए का निवेश आकर्षित करना सरकार की निजी गाड़ियों के पक्ष में एक और तर्क है. इसके अलावा सरकार का तर्क है कि निजीकरण से बेहतर ऑन-बोर्ड सेवाएं और यात्रा के समय में कमी आएगी, लेकिन निजीकरण की राह में कई खतरे भी हैं. यह वास्तविकता है कि निजी संस्थाएं कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विपरीत शुद्ध रूप से लाभ से प्रेरित होती हैं.
निजी ट्रेनों में बेहतर सेवाएं होने पर अमीर यात्री निश्चित रूप से अधिक भुगतान करने को तैयार होंगे. ऐसे यात्रियों से राजस्व का बड़ा हिस्सा पाकर ट्रेनों का संचालन करने वाली निजी कंपनियां बाद में उन कोचों को चरणबद्ध ढंग से हटा सकते हैं जो मूल रूप से निम्न-आय वर्ग के यात्रियों के लिए हैं.
सार्वजनिक क्षेत्र की ट्रेनों को केवल कम आय वाले समूह के यात्रियों के साथ छोड़ दिया गया तो भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है. यदि बढ़ते नुकसान की वजह से भारतीय रेलवे एक विशेष मार्ग से पूरी तरह से हटने पड़ता है तो निजी निकाय उस मार्ग पर एकाधिकार कर लेंगे और बाद में किराया बढ़ा देंगे. इससे उस मार्ग पर निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए यात्रा करने के लिए टिकट के पैसे देना मुश्किल हो जाएगा. यह भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में गाड़ियों के मूल उद्देश्य यानी समाज के कमजोर वर्गों की सेवा करने को नाकाम करता है.
इसके बाद भी यह स्पष्ट नहीं है कि नई रेल गाड़ियों को मौजूदा रेल मार्गों में समायोजित किया जाएगा जो पहले से ही सार्वजनिक रेलगाड़ियों की अधिकता की वजह से जाम की स्थिति में हैं. सरकार ने वादा किया है कि भारतीय रेल उस मार्ग पर निजी ट्रेन के निर्धारित प्रस्थान के 60 मिनट के भीतर अपनी सार्वजनिक ट्रेन नहीं चलाएगी, लेकिन 61वें मिनट के बाद ऐसी कोई रोक नहीं होगी. इसका मतलब यह है कि कई यात्री जो बहुत जल्दी में नहीं हैं वे अधिक लागत वाली निजी ट्रेन में यात्रा नहीं करके कम लागत वाली सार्वजनिक ट्रेन को पसंद करेंगे.
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एक और उलझाऊ मुद्दा नियामक का है. सरकार ने हालांकि एक स्वतंत्र नियामक बनाने का वादा किया है, लेकिन प्रस्तावित नियामक में भारतीय रेलवे की भूमिका को लेकर कुछ भी स्पष्ट नहीं है. अभी रेल मंत्रालय नीति-निर्माता, सेवा-प्रदाता और सभी ट्रेनों का नियामक है. जब सार्वजनिक ट्रेनें निजी ट्रेनों से प्रतिस्पर्धा करेंगी तो निश्चित रूप से हितों का टकराव होगा.
एक ऐसी स्थिति की कल्पना करें जहां एक ही मार्ग पर कोहरे के कारण दो ट्रेनें देरी से चल रही हैं. एक सार्वजनिक और दूसरी निजी. यह किसी के लिए भी आसान नहीं हो सकता है कि किसे पहले जाने की प्राथमिकता दी जाए.
निजी गाड़ियों के संचालकों की ओर से सरकारी अधिकारियों को घूस देकर प्राथमिकता पाने की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता. जब सार्वजनिक गाड़ियों से लगातार दूसरे दर्जे का व्यवहार किया जाएगा तो यात्रियों को इसे बदनाम करने के लिए कारण मिल जाएगा. वास्तव में सार्वजनिक ट्रेनों के वजूद को बचाए रखने के लिए स्वतंत्र नियामक जरूरी है. सार्वजनिक ट्रेनें विशेष रूप से कम आय वाले यात्रियों के लिए होती हैं. निजी गाड़ियों के लिए भी नियामक की निष्पक्षता आवश्यक है. भारतीय रेलवे के साथ काम करने वाले निजी माल गाड़ियों के संचालकों का इसे लेकर कड़वा अनुभव है.
वर्ष 2006 से एक सीमित रूप से निजी मालगाड़ियों का परिचालन करने वाले टीआईएमआईएलएल एंड आर्शिया ने संचालन के लिए बराबरी का मौका देने में असफल होने का आरोप लगाया है. उसने समय पर गंतव्य तक ट्रेन के पहुंचाने के बारे में दी गई गारंटी के वादे सम्मान नहीं करने के लिए भारतीय रेलवे को जिम्मेदार ठहराया है. उनका आरोप है कि अक्सर निजी मालगाड़ियों को राजधानी, शताब्दी, दूरंतो जैसी ऊंचे दर्जे वाली ट्रेनों को रास्ता देने के लिए बीच में रोक दिया जाता है. इसने समय पर ग्राहकों को सामान पहुंचाने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का सम्मान करने के उनके प्रयासों को विफल कर दिया है.
आश्चर्य नहीं कि निजी मालगाड़ी संचालक के लिए बराबरी का एक स्तर मिलना तब तक अनिश्चित हैं जब तक भारतीय रेल खुद एक प्रतियोगी के साथ वास्तविक नियामक भी है. यही कारण है कि निजी यात्री ट्रेनों के लिए वादे के मुताबिक वास्तव में स्वतंत्र केवल तभी हो सकता है जब इसमें भारतीय रेलवे के पास कोई भी सहायक भूमिका नहीं हो, अन्यथा रेलवे और निजी संचालकों के बीच बहुत टकराव होना निश्चित है. इस टकराव से मुकदमेबाजी को बढ़ावा मिलेगा. भारत में इसमें कई साल लगते हैं.
मेट्रोमैन के नाम से चर्चित ई.श्रीधरन मुख्य रूप से इसी वजह से निजी गाड़ियों की सफलता को लेकर आशंकित हैं. उनका कहना है कि मेरा अपना मेट्रो के साथ अनुभव यह है कि हमें उम्मीद थी कि कई निजी पार्टियां उत्साह के साथ आगे आएंगी, लेकिन वास्तव में दिल्ली एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन, मुंबई मेट्रो लाइन और हैदराबाद मेट्रोल केवल थ्री आईं. दुर्भाग्य से सभी गंभीर कानूनी लफड़े में फंस गईं.
श्रीधरन को यह भी डर है कि निजी संस्थाओं के लिए भारतीय रेलवे के साथ काम करना मुश्किल होगा और वे बीच में ही छोड़ सकती हैं, लेकिन विमानन और दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में निजी संस्थाएं सार्वजनिक उद्यमों के साथ लंबे समय से सफलतापूर्वक काम कर रही हैं, लेकिन दो बुनियादी फर्क है.
दूरसंचार क्षेत्र में भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (टीआरएआई) पर कभी भी सरकार की ओर से संचालित बीएसएनएल और एमटीएनएल के प्रति नरम होने का आरोप नहीं लगा है. इसी तरह विमानन क्षेत्र में एयर इंडिया की ओर कोई पक्षपात न करते हुए निजी एयरलाइंस ने सरकार पर कभी भी सौतेला व्यवहार करने का आरोप नहीं लगाया है. दूसरी बात कि सरकार विमानन क्षेत्र से पूरी तरह से हटने की अपनी इच्छा को बता चुकी है जो रिकॉर्ड में है. इसी तरह सरकार की इच्छा दूरसंचार क्षेत्र से भी धीरे-धीरे हट जाने के संकेत हैं, लेकिन क्या मोदी सरकार की उसी तरह से रेलवे से हटने की दीर्घकालिक योजना है?
विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश का लक्ष्य निर्धारित करते हुए वित्त मंत्रालय के अधिकारी बार-बार कहते हैं कि सरकार का काम कोई व्यवसाय करना नहीं है. क्या मोदी सरकार भारतीय रेल को एक व्यवसाय मानती है? कुल मिलाकर सरकार की ओर से संचालित रेलवे को 'आम जनता की सावरी' कहा जाता है. कोविड-19 महामारी के प्रकोप से पहले भारत में 13 हजार यात्री ट्रेनों में 2.30 करोड़ यात्री प्रतिदिन यात्रा करते थे. चुनावी नतीजों को देखते हुए क्या सरकार राजनीतिक रूप से तैयार है?