प्रदूषण से लड़ने के लिए साझा कदम
ग्लोबल वॉर्मिंग तेजी से अपने पैर पसार रहा है. इसके कारण सूखा, बेमौसम बरसात और बाढ़ आम बात हो गई है. कृषि के विकास पर भी विपरीत असर पड़ रहा है. पोलर क्षेत्र और ग्लेशियरों पर बर्फ की चादरें तेजी से पिघल रही हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ता जा रहा है. ग्रीनलैंड में मौजूद बर्फ़ के पहले से सात गुना ज्यादा रफ्तार से पिघलने का अनुमान है. साईबेरिया, अलास्का और पूर्वी कनाडा के जंगलों में आग लग रही है. इन दिनों, ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में भी भीषण आग लगी हुई है, जिसके कारण बड़े पैमाने पर पेड़ पौधों का नुकसान हो रहा है और पर्यावरण में प्रदूषण भी फैल रहा है.
इस संदर्भ में, संयुक्त राष्ट्र के बैनर तले, 2-13 दिसंबर 2019, को 25वीं यूएन क्लाइमेट चेंज कॉन्फ़्रेंस का आयोजन किया गया था. हालांकि, इस सम्मेलन में दुनिया में तेजी से फैल रहे प्रदूषण को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने पर सहमति नहीं बन सकी. दुनिया भर में सरकारें, कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने में नाकामयाब रही हैं. अगर दिसंबर 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में कमी नहीं आती है और 2030 तक इसे 45% तक कम नहीं किया जाता तो, वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री पर रोकना नामुमकिन हो जाएगा.
एक नजदीकी खतरा
सरकारें, ऊर्जा कंपनियों की जरूरतों को तरजीह दे रही हैं और इस तरफ ध्यान नहीं दे रही हैं कि इसके कारण आने वाले समय में मानव जीवन पर ही खतरा मंडराने लगेगा. अब समय आ गया है कि लोकतांत्रिक देशों के लोग अपना किरदार निभाएं. नागरिक के तौर पर हम क्या कर सकते हैं, इस बारे में कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बहस हो चुकी है. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है, उत्पाद के लिए जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल और इसे लेकर सरकारों की आर्थिक नीतियां. ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के लिए इन नीतियों में बदलाव की जरूरत है.
समाज के संभ्रांत लोगों की जीवनशैली के कारण भी कार्बन उत्सर्जन एक बड़ी समस्या बना हुआ है. निजी स्तर पर, हम में से कई इस समस्या का कारण नहीं होंगे, लेकिन यह जरूरी है कि इस समस्या की तीव्रता को कम करने के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता फैलाई जाए. लोकतंत्र में सबके साथ के बाद ही बदलाव संभव है. हर व्यक्ति की जागरूकता और उसे लेकर सभी लोगों का साथ आना एक बड़े आंदोलन का रूप ले सकता है. हालांकि, हमारी आबादी के 90% हिस्से का ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाने में भूमिका नहीं है, लेकिन, इसके कारण होने वाले नुकसानों को झेलने के लिए सभी मजबूर हैं.
यह जरूरी है कि ग्लोबल वॉर्मिंग को शुरुआती दौर में काबू कर लिया जाए और इसे अपने पैर पसारने का मौका नहीं मिले. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ग्लोबल वॉर्मिंग पर मांसाहारी खाना न खाकर और हवाई जहाज और गाड़ियों के कम इस्तेमाल से काबू किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, दिल्ली से हैदराबाद के बीच उड़ान में एक हवाई जहाज 0.34 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करता है.
इसी तरह, न्यूयॉर्क से हैदराबाद की उड़ान में 3.93 टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होगा. अगर यातायात के लिए एक गाड़ी का इस्तेमाल न हो तो, सालाना 2.4 टन कार्बन डाईऑक्साइड को रोका जा सकता है.
ग्लोबल वॉर्मिग का खतरा मानव सभ्यता के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है. मनुष्य ने 2.90 लाख सालों तक रहे पाषाण युग में भी शिकार कर अपने अस्तित्व को बरकरार रखा था. मौजूदा औद्योगिक सभ्यता 300 साल ही पुरानी है. यह अच्छी बात नहीं है कि इतने कम समय में मानव सभ्यता और मनुष्यों के जीवन पर ही सवालिया निशान लग जाए.
पहले लुप्त हुई सभ्यताओं की बात करें तो यह साफ है कि, जब भी मनुष्य ने प्रकृति से अपने आप को दूर किया है इसके भारी परिणाम उसे भुगतने पड़े हैं. हमारी सभ्यता में भी हम प्रकृति से दूर जा रहे हैं. हमें यह समझने की जरूरत है कि हम प्रकृति से दूर रह कर नहीं जी सकते हैं. किसी भी समाज की रचना के सिद्धांत में यह बात होती है कि, मनुष्य को प्रकृति के साथ, उसके नियमों को बिना तोड़े रहने की जरूरत है.
संयुक्त राष्ट्र के इंटर गवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि, धरती के तापमान को 1.5 डिग्री से आगे जाने से रोकने के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत है. इस बारे में लोगों की भागीदारी के बिना बदलाव नहीं आ सकते हैं. जो लोग सीधे तौर पर ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, उन्हें भी अपनी जीवनशैली में बदलाव लाने की जरूरत है.
किसानों को रसायनों की मदद से खेती को रोकने की जरूरत है. आधुनिक खेती ने हालांकि उपज को तो बढ़ा दिया है, लेकिन इसके कारण मिट्टी और पानी की गुणवत्ता में कमी आई है. इसके साथ साथ, समुद्रों में टनों टन मिट्टी डाले जाने के कारण इंसानों में बीमारियां बढ़ती जा रही हैं और किसान बाजार का गुलाम हो गया है.
जानकारों की राय में केवल उद्योगों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को रोकने से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकेगा. इसके लिए, कृषि क्षत्र के कूड़े से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को भी रोकने की जरूरत है. बढ़ती जनसंख्या और उसकी बढ़ती खाद्य जरूरतों के चलते यह जरूरी है कि कृषि क्षेत्र के कार्बन उत्सर्जन को भी काबू में किया जाए.
ऑर्गेनिक कृषि अनुसंधान में उत्कृष्ट भूमिका रखने वाले, रोडल संस्थान का कहना है कि, पर्यावरण के संरक्षण के लिए ऐसे कदम उठाने की जरूरत है, जिससे जमीन में कार्बन के स्तर को बढ़त मिले और वायु में यह 25% तक कम हो सके. इसके लिए ऑर्गेनिक कृषि की प्रणालियों को अपनाने की जरूरत है.
विकास के फायदा कुछ लोगों तक ही हैं सीमित...
मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक नीतियों के कारण सामाजिक असंतुलन बढ़ रहा है. ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के 10% लोगों के पास दुनिया की 77% पूंजी है, वहीं, बाकी 90% के पास महज 23% ही है. अमेरिका के 10% अमीर लोगों के पास देश की 77.2% दौलत है. बाकी बची 90% जनता के पास महज 22.8% दौलत ही है. अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह संख्या भी 2050 तक शून्य हो जाएगी.
आज के जमाने में सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन यह इसी 10% आबादी के मुहैया हो पाती है और बाकी 90% जनता सामान्य जीवन जीने को मजबूर है. मौजूदा समय में अधिकतर लोग आज की आर्थिक नीतियों का लाभ नहीं ले पा रहे हैं और अब उनके अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है. धरती पर इंसान के जीवन के लिए ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने वाले आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बदलावों को लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. हमें भी अपने स्तर पर अपने जीवन की रक्षा के लिए सोचने और कदम उठाने की जरूरत है.
(लेखक - डॉ कालापल्ला बाबूरॉव, पर्यावरण विशेषज्ञ)