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सत्ता संग्राम : ऐसी भगदड़ मध्य प्रदेश ने पहले कभी नहीं देखी

हनुमान भक्त कमलनाथ ने अभी हाल ही में एक मंगलवार को भाजपा वालों को चित किया था और अब इस मंगलवार को खुद उनके चारों खाने चित होने की नौबत आ गई. आखिर ये सब हुआ कैसे? क्या अचानक बगावत हुई या पहले से स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी थी?

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Published : Mar 10, 2020, 10:38 PM IST

Updated : Mar 10, 2020, 11:59 PM IST

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भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक प्रयोगशाला रहे मध्य प्रदेश में आज एक बार फिर संविद सरकार के दौर की भगदड़ है. तब उस समय के मुख्यमंत्री और राजनीति के चाणक्य डीपी मिश्र की सरकार को गिराने में राजमाता विजयराजे सिंधिया ने मुख्य भूमिका निभाई थी. 53 बरस बाद उनके पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्य प्रदेश कांग्रेस के स्वयंभू हिज हाइनेस कमलनाथ की सरकार गिराने में वही भूमिका निभाई और कांग्रेस सरकार के चाणक्य दिग्विजय सिंह की सभी चालों को मात दे दी. संविद के दौर में भोपाल का होटल इंपीरियल सेबरे विधायकों को छिपाने का ठिकाना बना था, अभी बेंगलुरु के आलीशॉन रिसार्ट से यह खेल खेला गया.

हनुमान भक्त कमलनाथ ने अभी हाल ही में एक मंगलवार को भाजपा वालों को चित किया था. इस मंगलवार को उनके चारों खाने चित होने की नौबत आ गई. आखिर ये सब हुआ कैसे? क्या अचानक बगावत हुई या पहले से स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी थी? जितने सवाल उतने जवाब हैं. मध्य प्रदेश की जनता ने पंद्रह साल की शिवराज सिंह चौहान सरकार के बाद इस बार एक ऐसी सरकार चुनी थी, जो बैसाखी के सहारे टिकी थी.

इस बैसाखी वाले तंबू के शीर्ष पर कमलनाथ जैसे दिल्ली की राजनीति के अनुभवी नेता को बैठा कर आपसी संघर्ष को टालने का जतन किया गया. लेकिन सत्ता शीर्ष पर बैठे छिंदवाड़ा नरेश और महाकौशल के क्षत्रप कमलनाथ मध्य प्रदेश कांग्रेस की क्षत्रपों वाली सियासत का संतुलन नहीं साध पाए. कमलनाथ को भ्रम था या उनके सामने भ्रमजाल रचा गया कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का साथ उन्हें कांग्रेसी अंतर्कलह की तमाम मुश्किलों से निजात दिला सकता है. सो वे दिग्विजय सिंह पर ऐसे आश्रित हुए कि बाकी नेताओं की उपेक्षा होने लगी.

अपनी दादी की तरह ही बगावत के हीरो बने ज्योतिरादित्य सिंधिया वो नेता हैं, जिन पर कांग्रेस आलाकमान ने लगातार दो बार विधानसभा चुनाव अभियान का जिम्मा सौंपा था. साल 2013 और 2018 के चुनाव में वह इस भूमिका में रहे. 2013 में कांग्रेस पराजित हुई थी. पिछले चुनाव में सत्ता मिली तो मुख्यमंत्री की कुर्सी के वह प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ के साथ बराबरी के दावेदार थे. विधायकों ने पर्ची से कमलनाथ को अपना नेता चुना और सिंधिया मायूस रह गए. फिर आए लोकसभा चुनाव में सिंधिया अपनी परंपरागत गुना संसदीय सीट से पहली बार चुनाव हार कर दिल्ली की सक्रिय राजनीति से बाहर हो गए. अब उनके पास मध्य प्रदेश कांग्रेस के लिए की गई अपनी पुण्याई का हिस्सा लेने के अलावा कोई चारा नही था, लेकिन बड़े भाई-छोटे भाई की जोड़ी ने उनको पीसीसी यानी प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में जगह नहीं बनाने दी. इसके उलट दिग्विजय राज्य मंत्रालय में भी अपना दखल बनाए रहे.

मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी मांग रहे सिंधिया के सामने अब राज्यसभा में जाने का विकल्प आया तो यहां भी बाधाएं उनके द्वारा खड़ी की गईं, जिन्होंने उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया था. प्रदेशाध्यक्ष पद को लेकर भी इंतजार हद से गुजर गया. ऐसे में अपना आस्तित्व बचाने सिंधिया को हुंकार भरनी पड़ी. टीकमगढ़ जिले के कुड़ीला में उन्होंने अतिथि विद्वानों की मांग पूरी न होने पर सड़क पर उतरने की चेतावनी देकर बगावती तेवर क्या दिखाए, उन्हें मनाने की बजाए भड़काने का काम शुरू हो गया. अंतिम कील राज्यसभा चुनाव को लेकर कमलनाथ की कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से हुई मुलाकात में कल लग गई और सिंधिया समर्थक छह मंत्रियों समेत 19 विधायक दिल्ली से चार्टर्ड प्लेन से बंगलुरू के रिसॉर्ट में जा डटे.

सिंधिया इसके बाद भी सिर्फ दबाव की राजनीति खेल रहे थे, लेकिन उन्हें मनाने की बजाए मुख्यमंत्री ने माफिया के साथ मिल कर सरकार को अस्थिर करने संबंधी बयान जारी कर उनके गुस्से को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया. उधर राहुल और प्रियंका गांधी की पैरवी भी सोनिया दरबार में काम नहीं आई और मंगलवार सुबह सिंधिया की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अमित शाह का मौजूदगी में मुलाकात के बाद एक दिन पुरानी तारीख का उनका इस्तीफा बाहर आ गया. कांग्रेस ने भी तत्काल उनके निष्कासन का एलान कर दिया. इतना सब होने के बाद भी सिंधिया ने अब तक भाजपा की सदस्यता न लेकर कांग्रेस से समझौते की एक पतली सी गली खुली रखी है, लेकिन सरकार बचाने की बजाए सरकार गिरा कर फिर जनता की अदालत में जाने के मंसूबे पाले बैठे कमलनाथ और दिग्विजय इस गली को ओर देखना भी नहीं चाहते.

कहानी इतनी ही नहीं है. राजमाता ने जब कांग्रेस सरकार गिराई थी, तब जनसंघ की बैकिंग उनके साथ थी. आज जनसंघ का नया रूप भाजपा सिंधिया के साथ है. दिग्विजय सिंह आरोप लगा रहे हैं कि तीन चार्टर्ड विमान भाजपा ने ही मुहैया कराए थे. भाजपा की अपनी किसी भूमिका से इनकार के बावजूद उसके नेता भूपेंद्र सिंह बेंगलुरु से नाराज विधायकों के इस्तीफे लाकर स्पीकर को सौंपते हैं. बेंगलुरु में कांग्रेस विधायकों की खातिरदारी में पूर्व मंत्री उमाशंकर गुप्ता और भाजपा प्रदेश उपाध्यक्ष अरविंद भदौरिया लगे हैं. इससे पहले कांग्रेस सहित समर्थक दल बसपा और सपा के जो विधायक लापता हुए थे, उसमें भी भाजपा की भूमिका साफ दिखी थी. पूर्व मंत्री नरोत्तम मिश्र के विधायकों को भाजपा में आने का प्रलोभन देते स्टिंग के वीडियो भी वायरल हुए. वस्तुतः भाजपा प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने के बाद से ही लगातार उसे गिराने की तैयारी कर रही थी. उसे सही वक्त का इंतजार था और राज्यसभा चुनाव के जरिए वो मौका अब उसे मिल गया.

इधर मुख्यमंत्री निवास में कांग्रेस विधायक दल सरकार बचाने के तरीके पर विचार रहा है तो उधर बीजेपी ऑफिस में भाजपा अपनी सरकार बनाने के तरीकों पर मंथन कर रही है. घटनाक्रम बता रहे हैं कि बाजी कांग्रेस के हाथ से फिसल चुकी है. भूपेंद्र सिंह के दावे को सही माना जाए तो करीब 40 कांग्रेस विधायक बगावत कर रहे हैं. यह आंकड़ा किसी भी सूरत में कांग्रेस के सभी डैमेज कंट्रोल टैक्टिस पर भारी है. गेंद अब विधानसभा अध्यक्ष से लेकर राज्यपाल के पाले में जाएगी और फिर 15 साल बाद मिली सत्ता अपने अंतर्विरोधों से महज सवा साल में गंवाने का 53 साल पुराना इतिहास कांग्रेस फिर दोहराएगी.

प्रश्न यह है कि सिंधिया का क्या होगा? सिंधिया को भाजपा राज्यसभा में भेज कर केंद्र सरकार में मंत्री बना सकती है. उनके पीछे भाजपा में आने वालों में से कुछ नेता नई सरकार में एडजस्ट किए जाएंगे. बाकियों का वही होगा, जो भाजपा में चुनावी दलबदल करने वालों का होता आया है. सिंधिया के राजघराने से होने और उनके राजवाड़ों से निकट संबंधों का फायदा भाजपा आगे उठा सकती है. लेकिन मध्य प्रदेश में कमलनाथ का सियासी सफर इसके साथ अब विराम लेने की ओर बढ़ सकता है. एक बार स्वघोषित 10 साल राजनीतिक वनवास लेने वाले दिग्विजय सिंह को भी अबकी बार जबरिया वनवास भोगना पड़ सकता है. सत्ता जाने का ठीकरा उनके सिर ही फूटना तय माना जा रहा है.

दिग्विजय ही वो शख्स हैं, जिनके कहने पर कमलनाथ ने चार-पांच बार जीतने वाले बिसाहूलाल सिंह और एंदल सिंह कंसाना, केपी सिंह जैसे वरिष्ठ विधायकों की जगह जयवर्धन सिंह, जीतू पटवारी और हनी बघेल जैसे जूनियर विधायकों को सीधे कैबिनेट मंत्री बना दिया था. राजनीति ये नए खिलाड़ी सत्ता का रेड कारपेट मिलते ही खुद को इतना पारंगत मान बैठे कि जनता, कार्यकर्ता तो दूर वरिष्ठ विधायकों तक को उपेक्षा का दर्द महसूस होने लगा था. शिवराज द्वारा बनवाए गए नए मंत्रालय की सीएम एनेक्सी की प्रायवेसी कांग्रेस नेताओं को ही खटकने लगी थी. बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों की बैसाखी वाली सरकार का वो चरित्र दिखा, जिसकी आदत भाजपा ही नहीं कांग्रेस नेताओं को भी नहीं थी. इस नाराजगी को सुनने के लिए न को पीसीसी में प्रदेशाध्यक्ष थे और न ही उन तक पहुंचाने वाले नेता. बस भाजपा ने इसी अवसर का फायदा उठाया और कर्नाटक गेम खेल दिया.

- प्रभु पटैरिया, वरिष्ठ पत्रकार

भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक प्रयोगशाला रहे मध्य प्रदेश में आज एक बार फिर संविद सरकार के दौर की भगदड़ है. तब उस समय के मुख्यमंत्री और राजनीति के चाणक्य डीपी मिश्र की सरकार को गिराने में राजमाता विजयराजे सिंधिया ने मुख्य भूमिका निभाई थी. 53 बरस बाद उनके पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्य प्रदेश कांग्रेस के स्वयंभू हिज हाइनेस कमलनाथ की सरकार गिराने में वही भूमिका निभाई और कांग्रेस सरकार के चाणक्य दिग्विजय सिंह की सभी चालों को मात दे दी. संविद के दौर में भोपाल का होटल इंपीरियल सेबरे विधायकों को छिपाने का ठिकाना बना था, अभी बेंगलुरु के आलीशॉन रिसार्ट से यह खेल खेला गया.

हनुमान भक्त कमलनाथ ने अभी हाल ही में एक मंगलवार को भाजपा वालों को चित किया था. इस मंगलवार को उनके चारों खाने चित होने की नौबत आ गई. आखिर ये सब हुआ कैसे? क्या अचानक बगावत हुई या पहले से स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी थी? जितने सवाल उतने जवाब हैं. मध्य प्रदेश की जनता ने पंद्रह साल की शिवराज सिंह चौहान सरकार के बाद इस बार एक ऐसी सरकार चुनी थी, जो बैसाखी के सहारे टिकी थी.

इस बैसाखी वाले तंबू के शीर्ष पर कमलनाथ जैसे दिल्ली की राजनीति के अनुभवी नेता को बैठा कर आपसी संघर्ष को टालने का जतन किया गया. लेकिन सत्ता शीर्ष पर बैठे छिंदवाड़ा नरेश और महाकौशल के क्षत्रप कमलनाथ मध्य प्रदेश कांग्रेस की क्षत्रपों वाली सियासत का संतुलन नहीं साध पाए. कमलनाथ को भ्रम था या उनके सामने भ्रमजाल रचा गया कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का साथ उन्हें कांग्रेसी अंतर्कलह की तमाम मुश्किलों से निजात दिला सकता है. सो वे दिग्विजय सिंह पर ऐसे आश्रित हुए कि बाकी नेताओं की उपेक्षा होने लगी.

अपनी दादी की तरह ही बगावत के हीरो बने ज्योतिरादित्य सिंधिया वो नेता हैं, जिन पर कांग्रेस आलाकमान ने लगातार दो बार विधानसभा चुनाव अभियान का जिम्मा सौंपा था. साल 2013 और 2018 के चुनाव में वह इस भूमिका में रहे. 2013 में कांग्रेस पराजित हुई थी. पिछले चुनाव में सत्ता मिली तो मुख्यमंत्री की कुर्सी के वह प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ के साथ बराबरी के दावेदार थे. विधायकों ने पर्ची से कमलनाथ को अपना नेता चुना और सिंधिया मायूस रह गए. फिर आए लोकसभा चुनाव में सिंधिया अपनी परंपरागत गुना संसदीय सीट से पहली बार चुनाव हार कर दिल्ली की सक्रिय राजनीति से बाहर हो गए. अब उनके पास मध्य प्रदेश कांग्रेस के लिए की गई अपनी पुण्याई का हिस्सा लेने के अलावा कोई चारा नही था, लेकिन बड़े भाई-छोटे भाई की जोड़ी ने उनको पीसीसी यानी प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में जगह नहीं बनाने दी. इसके उलट दिग्विजय राज्य मंत्रालय में भी अपना दखल बनाए रहे.

मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी मांग रहे सिंधिया के सामने अब राज्यसभा में जाने का विकल्प आया तो यहां भी बाधाएं उनके द्वारा खड़ी की गईं, जिन्होंने उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया था. प्रदेशाध्यक्ष पद को लेकर भी इंतजार हद से गुजर गया. ऐसे में अपना आस्तित्व बचाने सिंधिया को हुंकार भरनी पड़ी. टीकमगढ़ जिले के कुड़ीला में उन्होंने अतिथि विद्वानों की मांग पूरी न होने पर सड़क पर उतरने की चेतावनी देकर बगावती तेवर क्या दिखाए, उन्हें मनाने की बजाए भड़काने का काम शुरू हो गया. अंतिम कील राज्यसभा चुनाव को लेकर कमलनाथ की कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से हुई मुलाकात में कल लग गई और सिंधिया समर्थक छह मंत्रियों समेत 19 विधायक दिल्ली से चार्टर्ड प्लेन से बंगलुरू के रिसॉर्ट में जा डटे.

सिंधिया इसके बाद भी सिर्फ दबाव की राजनीति खेल रहे थे, लेकिन उन्हें मनाने की बजाए मुख्यमंत्री ने माफिया के साथ मिल कर सरकार को अस्थिर करने संबंधी बयान जारी कर उनके गुस्से को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया. उधर राहुल और प्रियंका गांधी की पैरवी भी सोनिया दरबार में काम नहीं आई और मंगलवार सुबह सिंधिया की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अमित शाह का मौजूदगी में मुलाकात के बाद एक दिन पुरानी तारीख का उनका इस्तीफा बाहर आ गया. कांग्रेस ने भी तत्काल उनके निष्कासन का एलान कर दिया. इतना सब होने के बाद भी सिंधिया ने अब तक भाजपा की सदस्यता न लेकर कांग्रेस से समझौते की एक पतली सी गली खुली रखी है, लेकिन सरकार बचाने की बजाए सरकार गिरा कर फिर जनता की अदालत में जाने के मंसूबे पाले बैठे कमलनाथ और दिग्विजय इस गली को ओर देखना भी नहीं चाहते.

कहानी इतनी ही नहीं है. राजमाता ने जब कांग्रेस सरकार गिराई थी, तब जनसंघ की बैकिंग उनके साथ थी. आज जनसंघ का नया रूप भाजपा सिंधिया के साथ है. दिग्विजय सिंह आरोप लगा रहे हैं कि तीन चार्टर्ड विमान भाजपा ने ही मुहैया कराए थे. भाजपा की अपनी किसी भूमिका से इनकार के बावजूद उसके नेता भूपेंद्र सिंह बेंगलुरु से नाराज विधायकों के इस्तीफे लाकर स्पीकर को सौंपते हैं. बेंगलुरु में कांग्रेस विधायकों की खातिरदारी में पूर्व मंत्री उमाशंकर गुप्ता और भाजपा प्रदेश उपाध्यक्ष अरविंद भदौरिया लगे हैं. इससे पहले कांग्रेस सहित समर्थक दल बसपा और सपा के जो विधायक लापता हुए थे, उसमें भी भाजपा की भूमिका साफ दिखी थी. पूर्व मंत्री नरोत्तम मिश्र के विधायकों को भाजपा में आने का प्रलोभन देते स्टिंग के वीडियो भी वायरल हुए. वस्तुतः भाजपा प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने के बाद से ही लगातार उसे गिराने की तैयारी कर रही थी. उसे सही वक्त का इंतजार था और राज्यसभा चुनाव के जरिए वो मौका अब उसे मिल गया.

इधर मुख्यमंत्री निवास में कांग्रेस विधायक दल सरकार बचाने के तरीके पर विचार रहा है तो उधर बीजेपी ऑफिस में भाजपा अपनी सरकार बनाने के तरीकों पर मंथन कर रही है. घटनाक्रम बता रहे हैं कि बाजी कांग्रेस के हाथ से फिसल चुकी है. भूपेंद्र सिंह के दावे को सही माना जाए तो करीब 40 कांग्रेस विधायक बगावत कर रहे हैं. यह आंकड़ा किसी भी सूरत में कांग्रेस के सभी डैमेज कंट्रोल टैक्टिस पर भारी है. गेंद अब विधानसभा अध्यक्ष से लेकर राज्यपाल के पाले में जाएगी और फिर 15 साल बाद मिली सत्ता अपने अंतर्विरोधों से महज सवा साल में गंवाने का 53 साल पुराना इतिहास कांग्रेस फिर दोहराएगी.

प्रश्न यह है कि सिंधिया का क्या होगा? सिंधिया को भाजपा राज्यसभा में भेज कर केंद्र सरकार में मंत्री बना सकती है. उनके पीछे भाजपा में आने वालों में से कुछ नेता नई सरकार में एडजस्ट किए जाएंगे. बाकियों का वही होगा, जो भाजपा में चुनावी दलबदल करने वालों का होता आया है. सिंधिया के राजघराने से होने और उनके राजवाड़ों से निकट संबंधों का फायदा भाजपा आगे उठा सकती है. लेकिन मध्य प्रदेश में कमलनाथ का सियासी सफर इसके साथ अब विराम लेने की ओर बढ़ सकता है. एक बार स्वघोषित 10 साल राजनीतिक वनवास लेने वाले दिग्विजय सिंह को भी अबकी बार जबरिया वनवास भोगना पड़ सकता है. सत्ता जाने का ठीकरा उनके सिर ही फूटना तय माना जा रहा है.

दिग्विजय ही वो शख्स हैं, जिनके कहने पर कमलनाथ ने चार-पांच बार जीतने वाले बिसाहूलाल सिंह और एंदल सिंह कंसाना, केपी सिंह जैसे वरिष्ठ विधायकों की जगह जयवर्धन सिंह, जीतू पटवारी और हनी बघेल जैसे जूनियर विधायकों को सीधे कैबिनेट मंत्री बना दिया था. राजनीति ये नए खिलाड़ी सत्ता का रेड कारपेट मिलते ही खुद को इतना पारंगत मान बैठे कि जनता, कार्यकर्ता तो दूर वरिष्ठ विधायकों तक को उपेक्षा का दर्द महसूस होने लगा था. शिवराज द्वारा बनवाए गए नए मंत्रालय की सीएम एनेक्सी की प्रायवेसी कांग्रेस नेताओं को ही खटकने लगी थी. बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों की बैसाखी वाली सरकार का वो चरित्र दिखा, जिसकी आदत भाजपा ही नहीं कांग्रेस नेताओं को भी नहीं थी. इस नाराजगी को सुनने के लिए न को पीसीसी में प्रदेशाध्यक्ष थे और न ही उन तक पहुंचाने वाले नेता. बस भाजपा ने इसी अवसर का फायदा उठाया और कर्नाटक गेम खेल दिया.

- प्रभु पटैरिया, वरिष्ठ पत्रकार

Last Updated : Mar 10, 2020, 11:59 PM IST
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