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रक्षा क्षेत्र में निजीकरण की आवश्यकता और संवेदनशीलता

केंद्र सरकार ने आयुध कारखानों के प्रबंधक मंडल को कॉर्पोरेट प्रबंधन में परिवर्तित करने की पहल की है. इसके लिए एक निजी कंपनी को सलाहकार नियुक्त किया गया है. जिसके बाद रक्षा उद्योग में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भूमिका को लेकर बहस छिड़ गई है. इस मुद्दे पर पढ़िए लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) एनबी सिंह का यह लेख...

privatization in defense sector in india
रक्षा क्षेत्र में निजीकरण
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Published : Sep 19, 2020, 10:30 AM IST

Updated : Sep 19, 2020, 3:10 PM IST

हैदराबाद : रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में केपीएमजी एडवाइजरी सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड और खेतान एंड कंपनी लिमिटेड को आयुध कारखानों के प्रबंधक मंडल को कॉर्पोरेट प्रबंधन में परिवर्तित करने के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया है. इन दिनों रक्षा उद्योग में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भूमिका को लेकर चर्चा चल रही है. एक विषय जिस पर कई अलग-अलग विचार व्यक्त किए गए हैं, वह है आयुध कारखानों के प्रबंधन को कैसे कॉर्पोरेट प्रबंधन में बदला जाए. ज्यादातर इसे निजी क्षेत्र की सक्रिय भूमिका द्वारा तात्कालिक लाभ का प्रयोग मानते हैं.

ज्यादातर देशों में राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की हिस्सेदारी को संवेदनशील माना जाता है. यह देखा गया है कि विकसित देशों में रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की साझेदारी शीत युद्ध की समाप्ति के बाद हुई. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सेना बल में कमी आई और हथियारों की मांग भी कम हो गई. भारत में स्थिति ठीक विपरीत है, जहां वास्तविक नियंत्रण रेखा पर दुश्मन सेना के साथ सीधा आमना-सामना है. भारत के रक्षा बजट को आर्थिक रूप से ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए अत्यधिक सावधानी बरतने की जरूरत है, ताकि रक्षा संगठन कुंठित न हो जाए और उससे व्यवस्था ठप न पड़ जाए.

कुछ समय पहले रक्षा मंत्रालय ने प्राइस वाटर कूपर्स को सलाहकार के रूप में नियुक्त किया था, जो रणनीतिक क्षेत्रों में दिशानिर्देश में मदद करें और सेना के बेस वर्कशॉप को उसके मानव संसाधन के प्रभावी प्रबंधन में सहायता करें, ताकि वह सेना के आयुध और उपकरणों के रखरखाव और मरम्मत का काम समय पर कर सके. एक विवाद का मुद्दा इस बात को लेकर उठा कि सेना निजी ऑपरेटर को अपने ऑपरेशन का सीधा नियंत्रण देने में हिचकिचाती रही. इस बात पर कोई समझौता नहीं हो सका. वह नेता जो विभिन्न विशेषज्ञों के साथ सलाहकार के प्रति सहज नहीं थे, उन्हें मानव संसाधन के प्रबंधन का तरीका संकुचित लगा. जितना इस सलाहकार एजेंसी पर खर्च किया गया, उसके द्वारा दी गई विस्तृत रिपोर्ट उतनी व्यवसायिक नहीं निकली.

इस रिपोर्ट ने इस बात को बिल्कुल नजरअंदाज किया कि सेना के बेस वर्कशॉप मंझे हुए अनुभवी इंजीनियर और कारीगरों के वह गढ़ हैं, जहां दुनियाभर से जुटाए गए पुराने औजारों का व्यावहारिक उपयोग करके हथियारों और उपकरणों को रणक्षेत्र में जरूरत के समय तुरंत उपयोगी बना दिया जाता है. सेना के इंजीनियर और तकनीशियन को यह श्रेय जाता है कि तीस साल पुरानी बोफोर्स तोप आज भी सेना का सीमा और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर प्रमुख हथियार है. इतनी ऊंचाइयों पर इन तोपों को पटरी पर बैठा कर उनसे गोलाबारी तभी की जा सकती है, जब उनके पीछे उनका रखरखाव करने वाले इंजीनियरों की मेहनत लगी हो.

देश के लिए दीर्घकालिक सुरक्षा खतरों को ध्यान में रखते हुए एक अधिक संसारिक दृष्टिकोण यह भी है; खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों द्वारा सीखे गए सबक, जिन्होंने मिशन की तत्परता, वृद्धि की क्षमता और संचालन प्रभावशीलता के एक उच्च स्तर को प्राप्त करने के लिए एक संतुलित सार्वजनिक निजी भागीदारी (संकरण) के लिए मानव संसाधन प्रबंधन को बंद कर दिया था. शुक्र है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गतिरोध ने पारंपरिक तत्परता के महत्व को बहाल कर दिया है और आशा की जाती है कि सेना बेस वर्कशॉप पर सीधे अधिकार रखने के बजाय ठेकेदार द्वारा संचालित रखरखाव, मरम्मत और ऑपरेशन करने का निर्णय नहीं लेगी. ठेकेदारी व्यवस्था हमारी सेना की तत्परता को ठेस पहुंचा सकती है.

आयुध कारखानों ने वर्षों से सशस्त्र बलों को हथियार और उपकरण दिए हैं जो या तो डीआरडीओ द्वारा विकसित किए गए थे या जहां इन्हें बनाने का लाइसेंस विदेश से प्राप्त किया गया था. सशस्त्र बल आयुध कारखानों के उत्पादों की गुणवत्ता, लागत और समय कार्यक्रम के बारे में वास्तविक चिंताओं को उठाते रहे हैं. यहां निश्चित रूप से आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है, जैसे सर्वोत्तम औद्योगिक प्रथाओं जैसे कि केवल आवश्यकतानुसार कर्मचारी, समय पर काम पूरा करने का अनुशासन आदि.

हालांकि, आयुध कारखानों के कुछ अनोखे लाभ हैं जिन्हें नजरअंदाज किया गया है जैसे कि संकट के समय में डिलीवरी करने की क्षमता; क्षेत्र में तैनात सिस्टम की मिशन तत्परता को बनाए रखने के लिए उप-प्रणालियों के साथ अनुरक्षकों को तुरंत प्रदान करने का अभ्यास आदि. शीत युद्ध की समाप्ति तक अधिकांश विकसित राष्ट्रों द्वारा इसी तरह की प्रथाओं को अपनाया गया था.

यह भी पढ़ें- एलएसी पर तनाव : सर्दियों में भी डटी रहेगी भारतीय सेना, की विशेष तैयारी

दो फ्रंट युद्ध जिसकी संभावना के बारे में हमारी संयुक्त रक्षा सेना जिक्र करती आई है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण होगा कि हमारे वीर भारतीय सैनिक बर्फीले पहाड़ की चोटी पर बिना रुके काम कर सकें, ऐसी अल्ट्रा विश्वसनीय असॉल्ट राइफल, टैंक, बंदूकें प्रदान की जाएं. आयुध कारखानों के साथ परामर्श खुले माहौल में किए जाने की जरूरत है.

यह याद रखने की आवश्यकता है कि संगठनों में लंबे समय तक परिवर्तन तब होता है जब लोग केंद्र में होते हैं. परिणामों और जवाबदेही पर जोर देने के साथ, कर्मचारियों के कल्याण, काम और जीवन के संतुलन के बारे में भी चिंता करनी चाहिए. प्रौद्योगिकी चुनौती नहीं है, संस्कृति है. संस्कृतियां सहयोगी, अभिनव, उच्च प्रदर्शन, भरोसेमंद या पारदर्शी हो सकती हैं. अन्यथा इस प्रयास का उल्टा प्रभाव हो, इसकी संभावनाएं हैं, जिसके परिणामस्वरूप कार्यान्वयन अध कचरा और व्यवधान पूर्ण हो सकता है.

रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत कई सार्वजनिक उपक्रम बनाए हैं जो अभी तक गुणवत्ता, लागत और समय की समान समस्याओं का सामना कर रहे हैं. रक्षा में नए अभिगम ने मित्र देशों की सेनाओं को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी को पराजित करने में बहुत मदद की थी. ऐसा करने से हमारे सशस्त्र बलों को भी बल मिल सकता है और जो दो मोर्चों पर युद्ध जीतने में मदद कर सकता है.

यदि आत्मनिर्भरता के लिए प्रधानमंत्री के आह्वान को वास्तविक बनाना है, तो रक्षा मंत्रालय को इसकी पहल करनी होगी. आयुध कारखाने और सार्वजनिक उपक्रम रक्षा मंत्रालय की आधारशिला हैं. वह निम्न स्तर के असेंबली, प्रिंट और कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग प्रयासों के लिए नहीं बनी हैं. इन्हें उच्च मजदूरी, अनुसंधान और नवाचार आधारित औद्योगिक संस्थाओं के क्षेत्र में कदम रखने की जरूरत है, जिनकी रचनात्मकता न केवल भारत माता को सुरक्षित करती है, बल्कि नागरिक क्षेत्रों में भी अपना योगदान प्रदान करती है.

इसके लिए जरूरी है कि निजी क्षेत्र के साथ गहन उप-प्रणाली स्तर के सहयोग से आयुध कारखानों में मुख्य दक्षताओं और निर्माण के संकरण पर जोर दिया जाए. हथियार प्रणालियां उन प्रौद्योगिकियों को शामिल करती हैं जो एक सैन्य प्रभाव पैदा करने के लिए एक साथ जुड़ती हैं. हथियार प्रणालियों के एक शुद्ध प्रर्वतक और निर्यातक के रूप में उभरने के लिए, भारत को ऐसी तकनीकों के विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा. आयुध कारखानों के निजीकरण को प्रधानमंत्री की दृष्टि को साकार करने के लिए लागत से अधिक प्रभावशीलता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.

(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) एनबी सिंह, सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य)

हैदराबाद : रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में केपीएमजी एडवाइजरी सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड और खेतान एंड कंपनी लिमिटेड को आयुध कारखानों के प्रबंधक मंडल को कॉर्पोरेट प्रबंधन में परिवर्तित करने के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया है. इन दिनों रक्षा उद्योग में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भूमिका को लेकर चर्चा चल रही है. एक विषय जिस पर कई अलग-अलग विचार व्यक्त किए गए हैं, वह है आयुध कारखानों के प्रबंधन को कैसे कॉर्पोरेट प्रबंधन में बदला जाए. ज्यादातर इसे निजी क्षेत्र की सक्रिय भूमिका द्वारा तात्कालिक लाभ का प्रयोग मानते हैं.

ज्यादातर देशों में राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की हिस्सेदारी को संवेदनशील माना जाता है. यह देखा गया है कि विकसित देशों में रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की साझेदारी शीत युद्ध की समाप्ति के बाद हुई. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि सेना बल में कमी आई और हथियारों की मांग भी कम हो गई. भारत में स्थिति ठीक विपरीत है, जहां वास्तविक नियंत्रण रेखा पर दुश्मन सेना के साथ सीधा आमना-सामना है. भारत के रक्षा बजट को आर्थिक रूप से ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए अत्यधिक सावधानी बरतने की जरूरत है, ताकि रक्षा संगठन कुंठित न हो जाए और उससे व्यवस्था ठप न पड़ जाए.

कुछ समय पहले रक्षा मंत्रालय ने प्राइस वाटर कूपर्स को सलाहकार के रूप में नियुक्त किया था, जो रणनीतिक क्षेत्रों में दिशानिर्देश में मदद करें और सेना के बेस वर्कशॉप को उसके मानव संसाधन के प्रभावी प्रबंधन में सहायता करें, ताकि वह सेना के आयुध और उपकरणों के रखरखाव और मरम्मत का काम समय पर कर सके. एक विवाद का मुद्दा इस बात को लेकर उठा कि सेना निजी ऑपरेटर को अपने ऑपरेशन का सीधा नियंत्रण देने में हिचकिचाती रही. इस बात पर कोई समझौता नहीं हो सका. वह नेता जो विभिन्न विशेषज्ञों के साथ सलाहकार के प्रति सहज नहीं थे, उन्हें मानव संसाधन के प्रबंधन का तरीका संकुचित लगा. जितना इस सलाहकार एजेंसी पर खर्च किया गया, उसके द्वारा दी गई विस्तृत रिपोर्ट उतनी व्यवसायिक नहीं निकली.

इस रिपोर्ट ने इस बात को बिल्कुल नजरअंदाज किया कि सेना के बेस वर्कशॉप मंझे हुए अनुभवी इंजीनियर और कारीगरों के वह गढ़ हैं, जहां दुनियाभर से जुटाए गए पुराने औजारों का व्यावहारिक उपयोग करके हथियारों और उपकरणों को रणक्षेत्र में जरूरत के समय तुरंत उपयोगी बना दिया जाता है. सेना के इंजीनियर और तकनीशियन को यह श्रेय जाता है कि तीस साल पुरानी बोफोर्स तोप आज भी सेना का सीमा और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर प्रमुख हथियार है. इतनी ऊंचाइयों पर इन तोपों को पटरी पर बैठा कर उनसे गोलाबारी तभी की जा सकती है, जब उनके पीछे उनका रखरखाव करने वाले इंजीनियरों की मेहनत लगी हो.

देश के लिए दीर्घकालिक सुरक्षा खतरों को ध्यान में रखते हुए एक अधिक संसारिक दृष्टिकोण यह भी है; खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों द्वारा सीखे गए सबक, जिन्होंने मिशन की तत्परता, वृद्धि की क्षमता और संचालन प्रभावशीलता के एक उच्च स्तर को प्राप्त करने के लिए एक संतुलित सार्वजनिक निजी भागीदारी (संकरण) के लिए मानव संसाधन प्रबंधन को बंद कर दिया था. शुक्र है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गतिरोध ने पारंपरिक तत्परता के महत्व को बहाल कर दिया है और आशा की जाती है कि सेना बेस वर्कशॉप पर सीधे अधिकार रखने के बजाय ठेकेदार द्वारा संचालित रखरखाव, मरम्मत और ऑपरेशन करने का निर्णय नहीं लेगी. ठेकेदारी व्यवस्था हमारी सेना की तत्परता को ठेस पहुंचा सकती है.

आयुध कारखानों ने वर्षों से सशस्त्र बलों को हथियार और उपकरण दिए हैं जो या तो डीआरडीओ द्वारा विकसित किए गए थे या जहां इन्हें बनाने का लाइसेंस विदेश से प्राप्त किया गया था. सशस्त्र बल आयुध कारखानों के उत्पादों की गुणवत्ता, लागत और समय कार्यक्रम के बारे में वास्तविक चिंताओं को उठाते रहे हैं. यहां निश्चित रूप से आधुनिकीकरण करने की आवश्यकता है, जैसे सर्वोत्तम औद्योगिक प्रथाओं जैसे कि केवल आवश्यकतानुसार कर्मचारी, समय पर काम पूरा करने का अनुशासन आदि.

हालांकि, आयुध कारखानों के कुछ अनोखे लाभ हैं जिन्हें नजरअंदाज किया गया है जैसे कि संकट के समय में डिलीवरी करने की क्षमता; क्षेत्र में तैनात सिस्टम की मिशन तत्परता को बनाए रखने के लिए उप-प्रणालियों के साथ अनुरक्षकों को तुरंत प्रदान करने का अभ्यास आदि. शीत युद्ध की समाप्ति तक अधिकांश विकसित राष्ट्रों द्वारा इसी तरह की प्रथाओं को अपनाया गया था.

यह भी पढ़ें- एलएसी पर तनाव : सर्दियों में भी डटी रहेगी भारतीय सेना, की विशेष तैयारी

दो फ्रंट युद्ध जिसकी संभावना के बारे में हमारी संयुक्त रक्षा सेना जिक्र करती आई है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण होगा कि हमारे वीर भारतीय सैनिक बर्फीले पहाड़ की चोटी पर बिना रुके काम कर सकें, ऐसी अल्ट्रा विश्वसनीय असॉल्ट राइफल, टैंक, बंदूकें प्रदान की जाएं. आयुध कारखानों के साथ परामर्श खुले माहौल में किए जाने की जरूरत है.

यह याद रखने की आवश्यकता है कि संगठनों में लंबे समय तक परिवर्तन तब होता है जब लोग केंद्र में होते हैं. परिणामों और जवाबदेही पर जोर देने के साथ, कर्मचारियों के कल्याण, काम और जीवन के संतुलन के बारे में भी चिंता करनी चाहिए. प्रौद्योगिकी चुनौती नहीं है, संस्कृति है. संस्कृतियां सहयोगी, अभिनव, उच्च प्रदर्शन, भरोसेमंद या पारदर्शी हो सकती हैं. अन्यथा इस प्रयास का उल्टा प्रभाव हो, इसकी संभावनाएं हैं, जिसके परिणामस्वरूप कार्यान्वयन अध कचरा और व्यवधान पूर्ण हो सकता है.

रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत कई सार्वजनिक उपक्रम बनाए हैं जो अभी तक गुणवत्ता, लागत और समय की समान समस्याओं का सामना कर रहे हैं. रक्षा में नए अभिगम ने मित्र देशों की सेनाओं को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी को पराजित करने में बहुत मदद की थी. ऐसा करने से हमारे सशस्त्र बलों को भी बल मिल सकता है और जो दो मोर्चों पर युद्ध जीतने में मदद कर सकता है.

यदि आत्मनिर्भरता के लिए प्रधानमंत्री के आह्वान को वास्तविक बनाना है, तो रक्षा मंत्रालय को इसकी पहल करनी होगी. आयुध कारखाने और सार्वजनिक उपक्रम रक्षा मंत्रालय की आधारशिला हैं. वह निम्न स्तर के असेंबली, प्रिंट और कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग प्रयासों के लिए नहीं बनी हैं. इन्हें उच्च मजदूरी, अनुसंधान और नवाचार आधारित औद्योगिक संस्थाओं के क्षेत्र में कदम रखने की जरूरत है, जिनकी रचनात्मकता न केवल भारत माता को सुरक्षित करती है, बल्कि नागरिक क्षेत्रों में भी अपना योगदान प्रदान करती है.

इसके लिए जरूरी है कि निजी क्षेत्र के साथ गहन उप-प्रणाली स्तर के सहयोग से आयुध कारखानों में मुख्य दक्षताओं और निर्माण के संकरण पर जोर दिया जाए. हथियार प्रणालियां उन प्रौद्योगिकियों को शामिल करती हैं जो एक सैन्य प्रभाव पैदा करने के लिए एक साथ जुड़ती हैं. हथियार प्रणालियों के एक शुद्ध प्रर्वतक और निर्यातक के रूप में उभरने के लिए, भारत को ऐसी तकनीकों के विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा. आयुध कारखानों के निजीकरण को प्रधानमंत्री की दृष्टि को साकार करने के लिए लागत से अधिक प्रभावशीलता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.

(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) एनबी सिंह, सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य)

Last Updated : Sep 19, 2020, 3:10 PM IST
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