नई दिल्ली : अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को ढहाये जाने के समय केंद्रीय गृह सचिव रहे माधव गोडबोले ने दावा किया है कि यदि कार्रवाई करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति होती और तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने इस घटना से पहले गृह मंत्रालय द्वारा तैयार समग्र आकस्मिक योजना खारिज नहीं की होती, तो इसे बचा लिया गया होता.
गोडबोले ने अयोध्या भूमि विवाद पर अपनी एक नयी पुस्तक 'द बाबरी मस्जिद - राम मंदिर डायलेमा : ऐन एसिड टेस्ट फोर इंडियाज कॉन्स्टिट्यूशन’ में दावा किया है - 'यदि प्रधानमंत्री के स्तर पर राजनीतिक पहल की जाती, तो यह घटना टाली जा सकती थी.'
पुस्तक में विवादित ढांचा ढहाये जाने से पहले और उसके बाद के घटनाक्रमों की स्पष्ट तस्वीर पेश करने का प्रयास करते हुए पूर्व गृह सचिव ने कहा कि बतौर प्रधानमंत्री राव ने इस महत्वपूर्ण विषय में सर्वाधिक अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन दुर्भाग्य से वह एक निष्प्रभावी नेतृत्वकर्ता साबित हुए.
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राव के अलावा राजीव गांधी व वीपी सिंह भी कार्रवाई करने में नाकाम रहे
लेखक ने दावा किया है कि जब यह मस्जिद गंभीर खतरे में थी, तब राव के अलावा, पूर्व प्रधानमंत्रीद्वय राजीव गांधी और वी.पी. सिंह भी समय पर कार्रवाई करने में नाकाम रहे थे.
गोडबोले ने कहा कि इस विवाद से संबद्ध पक्षों में किसी के भी कठोर रुख अपनाने से पहले राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में विवाद के हल के लिए कुछ व्यावहारिक समाधान सुझाये गये थे, लेकिन कोई कदम नहीं उठाया गया.
उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद और उसके आसपास के विशेष क्षेत्र को केंद्र सरकार के हवाले किये जाने से संबद्ध अध्यादेश जारी किये जाने के बाद वी.पी. सिंह भी अपने रुख पर दृढ़ बने रहे.
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आकस्मिक योजना की तैयारी थी
गोडबोले ने कहा कि संबद्ध संस्थाओं और अधिकारियों के साथ विस्तृत चर्चा के बाद 1992 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अनुच्छेद 356 लागू कर इस ढांचे को कब्जे में लेने की एक समग्र आकस्मिक योजना तैयार की थी. कानून मंत्रालय ने इस उद्देश्य के लिए कैबिनेट नोट को भी मंजूरी दे दी थी.
पूर्व गृह सचिव ने कहा कि उन्होंने 'आकस्मिक योजना' चार नवम्बर को कैबिनेट सचिव, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, प्रधानमंत्री के वरिष्ठ सलाहकार, गृहमंत्री और प्रधानमंत्री को सौंपी थी.
उन्होंने कहा कि उस योजना में इस बात पर बल दिया गया था कि बाबरी मस्जिद की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विवादित ढांचे और उसके चारों ओर के क्षेत्र को केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों द्वारा सफलतापूर्वक अपने नियंत्रण में लेने के लिए उपयुक्त समय और आश्चर्यचकित करने के तत्व महत्वपूर्ण थे.
गोडबोले ने कोणार्क प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में लिखा है, 'इस उद्देश्य के लिए इस बात पर जोर दिया गया था कि कारसेवा प्रारंभ होने की प्रस्तावित तारीख से काफी पहले कार्रवाई की जाए, ताकि कार्रवाई के वक्त बड़ी संख्या में कारसेवक और भीड़ की मौजूदगी नहीं हो.'
उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि योजना में प्रमुखता से यह भी कहा गया था कि केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों के कार्रवाई शुरू करने से पहले अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाना जरूरी होगा. लेकिन राव ने महसूस किया कि आकस्मिक योजना व्यावहारिक नहीं है और उन्होंने इसे खारिज कर दिया.
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'कल्याण सिंह सरकार को स्थिति से निपटने की पूरी छूट मिली'
गोडबोले ने कहा, 'संविधान में केंद्र सरकार को प्रदत्त शक्तियों को लेकर राव का एक अलग नजरिया था और उन्होंने राज्य सरकार द्वारा केंद्र, राष्ट्रीय एकता परिषद (एनआईसी) और उच्चतम न्यायालय से किये गये वादों पर भरोसा करने को वरीयता दी.'
उन्होंने कहा कि इसके फलस्वरूप 'कल्याण सिंह सरकार को स्थिति से निबटने की पूरी छूट मिल गई. इसमें आश्चर्य नहीं है कि इस स्थिति ने कारसेवकों को कानून अपने हाथों में लेने और मस्जिद को ढहाने की इजाजत दे दी. यह राज्य सरकार द्वारा संविधान के तहत अपनी जिम्मेदारियां निभाने में विफल रहने का एक स्पष्ट मामला था.'
गोडबोले ने कहा कि लेकिन ऐसा नहीं था कि सिर्फ केंद्र सरकार ही अपने दायित्वों का निवर्हन नहीं कर पायी, बल्कि संविधान के तहत अन्य संस्थाएं भी अपने दायित्वों का निर्वहन करने में विफल रहीं.
उन्होंने कहा, 'संविधान निर्माताओं ने शासन की ऐसी संपूर्ण विफलता और संवैधानिक नीतिवचनों एवं मूल्यों का अनुपालन नहीं किये जाने की ऐसी कल्पना नहीं की होगी. स्पष्टत: भारत ने अपने संविधान का उपहास किया. सबसे बड़ी दोषी राज्य सरकार थी, जो ढांचे की सुरक्षा के अपने वादों को पूरा करने में जान बूझकर विफल रही.'
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विवादित भूमि के मालिकाना हक पर कोर्ट ने फैसला करने में देरी की
पूर्व गृहसचिव ने उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल बी.सत्यनारायण रेड्डी को भी राज्य में स्थिति की गंभीरता का आकलन करने में नाकाम रहने और केंद्र को राष्ट्रपति शासन लगाने की सलाह देने में विफल रहने के लिए जिम्मेदार ठहराया.'
गोडबोले ने कहा कि आखिरकार न्यायपालिका भी विवादित भूमि के मालिकाना हक पर 1950 से लंबित वाद पर फैसला सुनाने में देरी के लिए जिम्मेदार थी, जबकि संबद्ध पक्षों ने सुनवाई तेजी से पूरी करने के लिए बार-बार अनुरोध किया.
उनका यह भी विचार है कि धर्म और राजनीति को आपस में मिला दिये जाने ने आग में घी डालने का काम किया.
बता दें कि विवादित ढांचा ढहाए जाने (छह दिसम्बर 1992) की घटना के बाद गोडबोले ने मार्च, 1993 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली, उस वक्त वह केंद्रीय गृह सचिव और सचिव (न्याय) थे.