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'नरसिम्हा राव ने खारिज कर दी थी अयोध्या पर गृह मंत्रालय की रिपोर्ट'

पूर्व गृह सचिव माधव गोडबोले ने अपनी पुस्तक 'द बाबरी मस्जिद - राममंदिर डायलेमा : ऐन एसिड टेस्ट फार इंडियाज कॉन्स्टिट्यूशन’ में अयोध्या मामले को लेकर कई दावे किए हैं. जानें विस्तार से क्या कुछ उन्होंने...

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Published : Nov 3, 2019, 7:52 PM IST

Updated : Nov 4, 2019, 2:24 PM IST

नई दिल्ली : अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को ढहाये जाने के समय केंद्रीय गृह सचिव रहे माधव गोडबोले ने दावा किया है कि यदि कार्रवाई करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति होती और तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने इस घटना से पहले गृह मंत्रालय द्वारा तैयार समग्र आकस्मिक योजना खारिज नहीं की होती, तो इसे बचा लिया गया होता.

गोडबोले ने अयोध्या भूमि विवाद पर अपनी एक नयी पुस्तक 'द बाबरी मस्जिद - राम मंदिर डायलेमा : ऐन एसिड टेस्ट फोर इंडियाज कॉन्स्टिट्यूशन’ में दावा किया है - 'यदि प्रधानमंत्री के स्तर पर राजनीतिक पहल की जाती, तो यह घटना टाली जा सकती थी.'

माधव गोडबोले

पुस्तक में विवादित ढांचा ढहाये जाने से पहले और उसके बाद के घटनाक्रमों की स्पष्ट तस्वीर पेश करने का प्रयास करते हुए पूर्व गृह सचिव ने कहा कि बतौर प्रधानमंत्री राव ने इस महत्वपूर्ण विषय में सर्वाधिक अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन दुर्भाग्य से वह एक निष्प्रभावी नेतृत्वकर्ता साबित हुए.

इसे भी पढ़ें - अयोध्या पर फैसले से पहले RSS की मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ बैठक, शांति में सहयोग की अपील

राव के अलावा राजीव गांधी व वीपी सिंह भी कार्रवाई करने में नाकाम रहे

लेखक ने दावा किया है कि जब यह मस्जिद गंभीर खतरे में थी, तब राव के अलावा, पूर्व प्रधानमंत्रीद्वय राजीव गांधी और वी.पी. सिंह भी समय पर कार्रवाई करने में नाकाम रहे थे.

गोडबोले ने कहा कि इस विवाद से संबद्ध पक्षों में किसी के भी कठोर रुख अपनाने से पहले राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में विवाद के हल के लिए कुछ व्यावहारिक समाधान सुझाये गये थे, लेकिन कोई कदम नहीं उठाया गया.

उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद और उसके आसपास के विशेष क्षेत्र को केंद्र सरकार के हवाले किये जाने से संबद्ध अध्यादेश जारी किये जाने के बाद वी.पी. सिंह भी अपने रुख पर दृढ़ बने रहे.

इसे भी पढ़ें - 'पक्ष में आया फैसला तो भी नहीं बनाएंगे मस्जिद'

आकस्मिक योजना की तैयारी थी
गोडबोले ने कहा कि संबद्ध संस्थाओं और अधिकारियों के साथ विस्तृत चर्चा के बाद 1992 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अनुच्छेद 356 लागू कर इस ढांचे को कब्जे में लेने की एक समग्र आकस्मिक योजना तैयार की थी. कानून मंत्रालय ने इस उद्देश्य के लिए कैबिनेट नोट को भी मंजूरी दे दी थी.

पूर्व गृह सचिव ने कहा कि उन्होंने 'आकस्मिक योजना' चार नवम्बर को कैबिनेट सचिव, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, प्रधानमंत्री के वरिष्ठ सलाहकार, गृहमंत्री और प्रधानमंत्री को सौंपी थी.

उन्होंने कहा कि उस योजना में इस बात पर बल दिया गया था कि बाबरी मस्जिद की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विवादित ढांचे और उसके चारों ओर के क्षेत्र को केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों द्वारा सफलतापूर्वक अपने नियंत्रण में लेने के लिए उपयुक्त समय और आश्चर्यचकित करने के तत्व महत्वपूर्ण थे.

गोडबोले ने कोणार्क प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में लिखा है, 'इस उद्देश्य के लिए इस बात पर जोर दिया गया था कि कारसेवा प्रारंभ होने की प्रस्तावित तारीख से काफी पहले कार्रवाई की जाए, ताकि कार्रवाई के वक्त बड़ी संख्या में कारसेवक और भीड़ की मौजूदगी नहीं हो.'

उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि योजना में प्रमुखता से यह भी कहा गया था कि केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों के कार्रवाई शुरू करने से पहले अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाना जरूरी होगा. लेकिन राव ने महसूस किया कि आकस्मिक योजना व्यावहारिक नहीं है और उन्होंने इसे खारिज कर दिया.

इसे भी पढ़ें - अयोध्या पर मध्यस्थता में किसी हिंदू पक्ष ने नहीं लिया भाग , यह भ्रम पैदा करने की शरारत : विहिप

'कल्याण सिंह सरकार को स्थिति से निपटने की पूरी छूट मिली'
गोडबोले ने कहा, 'संविधान में केंद्र सरकार को प्रदत्त शक्तियों को लेकर राव का एक अलग नजरिया था और उन्होंने राज्य सरकार द्वारा केंद्र, राष्ट्रीय एकता परिषद (एनआईसी) और उच्चतम न्यायालय से किये गये वादों पर भरोसा करने को वरीयता दी.'

उन्होंने कहा कि इसके फलस्वरूप 'कल्याण सिंह सरकार को स्थिति से निबटने की पूरी छूट मिल गई. इसमें आश्चर्य नहीं है कि इस स्थिति ने कारसेवकों को कानून अपने हाथों में लेने और मस्जिद को ढहाने की इजाजत दे दी. यह राज्य सरकार द्वारा संविधान के तहत अपनी जिम्मेदारियां निभाने में विफल रहने का एक स्पष्ट मामला था.'

गोडबोले ने कहा कि लेकिन ऐसा नहीं था कि सिर्फ केंद्र सरकार ही अपने दायित्वों का निवर्हन नहीं कर पायी, बल्कि संविधान के तहत अन्य संस्थाएं भी अपने दायित्वों का निर्वहन करने में विफल रहीं.

उन्होंने कहा, 'संविधान निर्माताओं ने शासन की ऐसी संपूर्ण विफलता और संवैधानिक नीतिवचनों एवं मूल्यों का अनुपालन नहीं किये जाने की ऐसी कल्पना नहीं की होगी. स्पष्टत: भारत ने अपने संविधान का उपहास किया. सबसे बड़ी दोषी राज्य सरकार थी, जो ढांचे की सुरक्षा के अपने वादों को पूरा करने में जान बूझकर विफल रही.'

इसे भी पढ़ें - अयोध्या केस: जिस नक्शे को SC में फाड़ा गया, उसमें था राम जन्म का प्रमाण- किशोर कुणाल

विवादित भूमि के मालिकाना हक पर कोर्ट ने फैसला करने में देरी की
पूर्व गृहसचिव ने उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल बी.सत्यनारायण रेड्डी को भी राज्य में स्थिति की गंभीरता का आकलन करने में नाकाम रहने और केंद्र को राष्ट्रपति शासन लगाने की सलाह देने में विफल रहने के लिए जिम्मेदार ठहराया.'

गोडबोले ने कहा कि आखिरकार न्यायपालिका भी विवादित भूमि के मालिकाना हक पर 1950 से लंबित वाद पर फैसला सुनाने में देरी के लिए जिम्मेदार थी, जबकि संबद्ध पक्षों ने सुनवाई तेजी से पूरी करने के लिए बार-बार अनुरोध किया.

उनका यह भी विचार है कि धर्म और राजनीति को आपस में मिला दिये जाने ने आग में घी डालने का काम किया.

बता दें कि विवादित ढांचा ढहाए जाने (छह दिसम्बर 1992) की घटना के बाद गोडबोले ने मार्च, 1993 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली, उस वक्त वह केंद्रीय गृह सचिव और सचिव (न्याय) थे.

नई दिल्ली : अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को ढहाये जाने के समय केंद्रीय गृह सचिव रहे माधव गोडबोले ने दावा किया है कि यदि कार्रवाई करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति होती और तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने इस घटना से पहले गृह मंत्रालय द्वारा तैयार समग्र आकस्मिक योजना खारिज नहीं की होती, तो इसे बचा लिया गया होता.

गोडबोले ने अयोध्या भूमि विवाद पर अपनी एक नयी पुस्तक 'द बाबरी मस्जिद - राम मंदिर डायलेमा : ऐन एसिड टेस्ट फोर इंडियाज कॉन्स्टिट्यूशन’ में दावा किया है - 'यदि प्रधानमंत्री के स्तर पर राजनीतिक पहल की जाती, तो यह घटना टाली जा सकती थी.'

माधव गोडबोले

पुस्तक में विवादित ढांचा ढहाये जाने से पहले और उसके बाद के घटनाक्रमों की स्पष्ट तस्वीर पेश करने का प्रयास करते हुए पूर्व गृह सचिव ने कहा कि बतौर प्रधानमंत्री राव ने इस महत्वपूर्ण विषय में सर्वाधिक अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन दुर्भाग्य से वह एक निष्प्रभावी नेतृत्वकर्ता साबित हुए.

इसे भी पढ़ें - अयोध्या पर फैसले से पहले RSS की मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ बैठक, शांति में सहयोग की अपील

राव के अलावा राजीव गांधी व वीपी सिंह भी कार्रवाई करने में नाकाम रहे

लेखक ने दावा किया है कि जब यह मस्जिद गंभीर खतरे में थी, तब राव के अलावा, पूर्व प्रधानमंत्रीद्वय राजीव गांधी और वी.पी. सिंह भी समय पर कार्रवाई करने में नाकाम रहे थे.

गोडबोले ने कहा कि इस विवाद से संबद्ध पक्षों में किसी के भी कठोर रुख अपनाने से पहले राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में विवाद के हल के लिए कुछ व्यावहारिक समाधान सुझाये गये थे, लेकिन कोई कदम नहीं उठाया गया.

उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद और उसके आसपास के विशेष क्षेत्र को केंद्र सरकार के हवाले किये जाने से संबद्ध अध्यादेश जारी किये जाने के बाद वी.पी. सिंह भी अपने रुख पर दृढ़ बने रहे.

इसे भी पढ़ें - 'पक्ष में आया फैसला तो भी नहीं बनाएंगे मस्जिद'

आकस्मिक योजना की तैयारी थी
गोडबोले ने कहा कि संबद्ध संस्थाओं और अधिकारियों के साथ विस्तृत चर्चा के बाद 1992 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अनुच्छेद 356 लागू कर इस ढांचे को कब्जे में लेने की एक समग्र आकस्मिक योजना तैयार की थी. कानून मंत्रालय ने इस उद्देश्य के लिए कैबिनेट नोट को भी मंजूरी दे दी थी.

पूर्व गृह सचिव ने कहा कि उन्होंने 'आकस्मिक योजना' चार नवम्बर को कैबिनेट सचिव, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, प्रधानमंत्री के वरिष्ठ सलाहकार, गृहमंत्री और प्रधानमंत्री को सौंपी थी.

उन्होंने कहा कि उस योजना में इस बात पर बल दिया गया था कि बाबरी मस्जिद की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विवादित ढांचे और उसके चारों ओर के क्षेत्र को केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों द्वारा सफलतापूर्वक अपने नियंत्रण में लेने के लिए उपयुक्त समय और आश्चर्यचकित करने के तत्व महत्वपूर्ण थे.

गोडबोले ने कोणार्क प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में लिखा है, 'इस उद्देश्य के लिए इस बात पर जोर दिया गया था कि कारसेवा प्रारंभ होने की प्रस्तावित तारीख से काफी पहले कार्रवाई की जाए, ताकि कार्रवाई के वक्त बड़ी संख्या में कारसेवक और भीड़ की मौजूदगी नहीं हो.'

उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि योजना में प्रमुखता से यह भी कहा गया था कि केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों के कार्रवाई शुरू करने से पहले अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाना जरूरी होगा. लेकिन राव ने महसूस किया कि आकस्मिक योजना व्यावहारिक नहीं है और उन्होंने इसे खारिज कर दिया.

इसे भी पढ़ें - अयोध्या पर मध्यस्थता में किसी हिंदू पक्ष ने नहीं लिया भाग , यह भ्रम पैदा करने की शरारत : विहिप

'कल्याण सिंह सरकार को स्थिति से निपटने की पूरी छूट मिली'
गोडबोले ने कहा, 'संविधान में केंद्र सरकार को प्रदत्त शक्तियों को लेकर राव का एक अलग नजरिया था और उन्होंने राज्य सरकार द्वारा केंद्र, राष्ट्रीय एकता परिषद (एनआईसी) और उच्चतम न्यायालय से किये गये वादों पर भरोसा करने को वरीयता दी.'

उन्होंने कहा कि इसके फलस्वरूप 'कल्याण सिंह सरकार को स्थिति से निबटने की पूरी छूट मिल गई. इसमें आश्चर्य नहीं है कि इस स्थिति ने कारसेवकों को कानून अपने हाथों में लेने और मस्जिद को ढहाने की इजाजत दे दी. यह राज्य सरकार द्वारा संविधान के तहत अपनी जिम्मेदारियां निभाने में विफल रहने का एक स्पष्ट मामला था.'

गोडबोले ने कहा कि लेकिन ऐसा नहीं था कि सिर्फ केंद्र सरकार ही अपने दायित्वों का निवर्हन नहीं कर पायी, बल्कि संविधान के तहत अन्य संस्थाएं भी अपने दायित्वों का निर्वहन करने में विफल रहीं.

उन्होंने कहा, 'संविधान निर्माताओं ने शासन की ऐसी संपूर्ण विफलता और संवैधानिक नीतिवचनों एवं मूल्यों का अनुपालन नहीं किये जाने की ऐसी कल्पना नहीं की होगी. स्पष्टत: भारत ने अपने संविधान का उपहास किया. सबसे बड़ी दोषी राज्य सरकार थी, जो ढांचे की सुरक्षा के अपने वादों को पूरा करने में जान बूझकर विफल रही.'

इसे भी पढ़ें - अयोध्या केस: जिस नक्शे को SC में फाड़ा गया, उसमें था राम जन्म का प्रमाण- किशोर कुणाल

विवादित भूमि के मालिकाना हक पर कोर्ट ने फैसला करने में देरी की
पूर्व गृहसचिव ने उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल बी.सत्यनारायण रेड्डी को भी राज्य में स्थिति की गंभीरता का आकलन करने में नाकाम रहने और केंद्र को राष्ट्रपति शासन लगाने की सलाह देने में विफल रहने के लिए जिम्मेदार ठहराया.'

गोडबोले ने कहा कि आखिरकार न्यायपालिका भी विवादित भूमि के मालिकाना हक पर 1950 से लंबित वाद पर फैसला सुनाने में देरी के लिए जिम्मेदार थी, जबकि संबद्ध पक्षों ने सुनवाई तेजी से पूरी करने के लिए बार-बार अनुरोध किया.

उनका यह भी विचार है कि धर्म और राजनीति को आपस में मिला दिये जाने ने आग में घी डालने का काम किया.

बता दें कि विवादित ढांचा ढहाए जाने (छह दिसम्बर 1992) की घटना के बाद गोडबोले ने मार्च, 1993 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली, उस वक्त वह केंद्रीय गृह सचिव और सचिव (न्याय) थे.

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BOOK-AYODHYA
Rao rejected MHA report on Ayodhya in 1992: Ex-home secy
         New Delhi, Nov 3 (PTI) The Babri Masjid could have been saved if there was political will to act and the then Prime Minister P V Narasimha Rao did not accept a comprehensive contingency plan of the Home Ministry prepared before the demolition, claims Madhav Godbole who was the Union home secretary that time.
         If political initiative had been taken at the prime minister's level, the Mahabharata of this Ramayana could have been avoided, he says in his new book on the Ayodhya dispute.
         Seeking to draw a cogent picture of the events which transpired during the critical period before and after the demolition, Godbole says as prime minister, Rao played the most important role in this crucial test match, but, unfortunately, he turned out to be a non-playing captain.
         In The Babri Masjid-Ram Mandir Dilemma: An Acid Test for India's Constitution, the author claims that besides Rao, former prime ministers Rajiv Gandhi and V P Singh also failed to take timely action when the mosque was under serious threat.
         He says that when Rajiv Gandhi was prime minister, some workable compromise solutions were suggested to resolve the dispute, before positions had hardened on either side but no steps were taken.
         V P Singh remained firm after promulgating an ordinance vesting the specified area in and around the Babri Masjid in the central government, he says.
         In 1992, after detailed discussions with institutions and officers concerned, Godbole says the Ministry of Home Affairs prepared a comprehensive contingency plan for the takeover of the structure by invoking Article 356 of the Constitution. The Ministry of Law had also cleared the Cabinet note for this purpose, he adds.
         He submitted the contingency plan to the Cabinet Secretary, Principal Secretary to Prime Minister, Senior Advisor to Prime Minister, Home Minister and the Prime Minister on November 4.
         It was emphasised therein that in order for the central paramilitary forces to successfully take over the Babri Mosque and the surrounding area to ensure its security, timing and the element of surprise were of essence, Godbole recalls.
         For this purpose, it was underlined that action would have to e taken well before the proposed date of commencement of kar seva' so as to avoid the presence of large number of kar sevaks' and huge crowds at the time of action, he writes in the book, brought out by Konark Publishers.
         It was also highlighted that imposition of President's Rule under Article 356 would be necessary before the central forces commenced their action, he says.
         But Rao felt the contingency plan was not workable and dismissed it, he says.
         Rao held a different view regarding the powers of the central government under the Constitution and preferred to rely on the promises made and commitments given by the state government to the central government, the National Integration Council (NIC) and the Supreme Court, Godbole says.
         As a result, the author says, the Kalyan Singh government was left free to deal with the situation. Not surprisingly, it permitted the kar sevaks to take the law into their own hands and to destroy the masjid. It was a clear case of the state government failing in its responsibilities under the Constitution.
         But it was not just the central government which failed in its obligations to act, other institutions under the Constitution also failed, Godbole asserts.
         The founding fathers of the Constitution could not have visualised such all-round failure of governance and non-observance of constitutional precepts and values. Clearly, India had made a mockery of its Constitution. The worst culprit was the state government which deliberately and consciously failed to fulfil its commitments to safeguard the structure, he says.
         The former home secretary also blames the then governor of Uttar Pradesh B Satya Narayan Reddy for failing miserably in assessing the seriousness of the situation in the state and advising the Centre against imposition of President's Rule.
         Finally, the judiciary too was responsible in delaying the decision in the title suits pending before it since 1950, in spite of repeated pleas by the parties for expediting the hearings, he says.
         He is also of the view that intermixing religion and politics has added fuel to the fire.
         After the demolition of the mosque, Godbole took voluntary retirement from the Indian Administrative Service in March 1993 when he was Union home secretary and Secretary, Justice. PTI ZMN
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Last Updated : Nov 4, 2019, 2:24 PM IST
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