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भाजपा की बहुसंख्यक राजनीति के कारण ईरान से संबंध बदले: पूर्व राजनयिक - ईरान की रेलवे परियोजना

ईरान द्वारा चाबहार-जाहेदान रेल लाइन खुद निर्माण करने के मामले पर पूर्व राजनयिक के.सी. सिंह ने वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा के साथ बातचीत में कहा कि मोदी सरकार की बहुसंख्यक राजनीति और अमेरिका से करीबी के कारण नई दिल्ली को लेकर तेहरान की धारणा बदली है. पढ़ें पूरी खबर...

वरिष्ठ पत्रकार स्मिता सिंह
वरिष्ठ पत्रकार स्मिता सिंह
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Published : Jul 17, 2020, 6:44 AM IST

Updated : Jul 17, 2020, 10:51 AM IST

नई दिल्ली : क्या भारत अमेरिकी प्रतिबंधों के डर से निवेश में देरी के लिए ईरान की रेलवे परियोजना से बाहर कर दिया गया है? विदेश मंत्रालय ने गुरुवार को चाबहार बंदरगाह और चाबहार-जाहेदान रेल परियोजना पर मीडिया रिपोर्टों को महज अटकलबाजी बताया है.

भारत और ईरान ने चार साल पहले चाबहार बंदरगाह से ज़ाहेदान तक 628 किलोमीटर रेल लाइन के निर्माण के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. यह रेल लाइन अफगानिस्तान में जरंज तक विस्तारित होगा. ईरानी सरकार ने पिछले सप्ताह पटरी बिछाने का कार्य शुरू कर दिया है. कहा जा रहा है कि ईरान अब खुद इस रेल लाइन का निर्माण करेगा.

के.सी. सिंह और सुहासिनी हैदर से खास बातचीत

अंग्रेजी अखबार द हिंदू ने रिपोर्ट किया था कि ईरान के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों के डर के कारण से निवेश करने में अनिच्छा के कारण भारत को चाबहार-जाहेदान रेल परियोजना से हटाया गया.

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने गुरुवार को कहा कि जहां तक ​​प्रस्तावित रेलवे लाइन का सवाल है, इस परियोजना की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिए भारत सरकार द्वारा इरकॉन को नियुक्त किया गया था. यह सीडीटीआईसी के साथ काम कर रहा था, सीडीटीआईसी एक ईरानी कंपनी है. उन्होंने कहा कि इरकॉन (IRCON) ने साइट निरीक्षण और व्यावहारिकता रिपोर्ट की समीक्षा पूरी कर ली है.

हालांकि, मीडिया रिपोर्ट को स्पष्ट रूप से नकारे बिना विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने संकेत दिए कि अफगानिस्तान के रास्त मध्य एशिया तक पहुंच के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस रेल परियोजना में शामिल होने के लिए भारत के लिए अभी भी दरवाजे खुले हो सकते हैं.

अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि परियोजना के अन्य प्रासंगिक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की गई, जिसमें ईरान के सामने मौजूद वित्तीय चुनौतियों का ध्यान रखना था. दिसंबर 2019 में तेहरान में 19वीं भारत-ईरान संयुक्त आयोग की बैठक में इन मुद्दों की विस्तार से समीक्षा की गई. ईरानी पक्ष को उत्कृष्ट तकनीकी और वित्तीय मुद्दों को अंतिम रूप देने के लिए एक अधिकृत संस्था को नामित करना था, जो अभी भी प्रतीक्षित है.

यह भी पढ़ें- पाकिस्तान ने कुलभूषण जाधव से नहीं करने दी बेरोकटोक बातचीत : विदेश मंत्रालय

साल 2016 में हुए समझौता के तहत, भारत सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी इरकॉन ने लगभग 1.6 बिलियन डॉलर की अनुमानित इस परियोजना के लिए सभी सेवाएं और धन उपलब्ध कराने का संकल्प लिया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तेहरान यात्रा के दौरान ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथ चाबहार समझौते पर हस्ताक्षर करने के दौरान इस बात पर सहमति व्यक्त की गई थी कि पाकिस्तान की वजह से काबुल के साथ सड़क मार्ग से व्यापार करने में भारत की अक्षमता को देखते हुए क्षेत्रीय कनेक्टिविटी पर अधिक ध्यान दिया जाएगा.

वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा से विशेष चर्चा में द हिंदू की संपादक (विदेश मामले) सुहासिनी हैदर ने कहा, 'चाबहार को भारत के लिए एक बड़े भू-रणनीतिक द्वार के रूप में स्थापित किया गया था, इसका एक कारण यह था कि भारत पड़ोसी देश पाकिस्तान द्वारा पैदा की जाने वाली समस्याओं से दूर जा सकेगा, जिसने भारत व अफगानिस्तान और भारत व मध्य एशिया के बीच व्यापार को लगातार रोका या बाधित किया है. भारत के लिए पाकिस्तान की समस्या के निजात पाने के लिए चाबहार रेल परियोजना अच्छा कदम था. यह रेल लाइन अफगानिस्तान तक जाती है, और फिर यह विशेष रेल लाइन तुर्कमेनिस्तान, मध्य एशिया और रूस तक जाएगी. यदि अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा नहीं चलाया जा सकता है, तो यह करने का एक और तरीका है.'

इससे पहले भारत-ईरान के ऐतिहासिक संबंधों को उस वक्त धक्का लगा था, जब ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह खामनेई और विदेश मंत्री जावेद जरीफ ने अनुच्छेद 370 और सीएए प्रदर्शनों व दिल्ली दंगों के मद्देनजर भारत की तीखी आलोचना की थी. ईरान और यूएई के पूर्व भारतीय राजदूत के.सी. सिंह का तर्क है कि मोदी सरकार की बहुसंख्यक घरेलू राजनीति और अमेरिका से निकटता ने ईरान की भारत को लेकर धारणा को बदल दिया है.

स्मिता शर्मा के साथ बातचीत में के.सी. सिंह ने कहा, 'तथ्य यह है कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद ईरानियों ने बहुत स्पष्टवादी रुख अपनाया था. खास कर सर्वोच्च नेता खामनेई के दो ट्वीट्स, जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत सरकार को मुसलमानों के साथ सही तरीके से पेश आना चाहिए. हम यह कहते हुए टाल गए कि यह सिर्फ कोई कुछ कह रहा है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन यह सब मायने रखता है. हम (भारत में) शिया मुस्लिमों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी हैं. कश्मीर घाटी में शिया हैं.'

पूर्व राजनयिक सिंह ने कहा कि भाजपा को लगता है कि घरेलू राजनीति अंतरराष्ट्रीय राजनीति से अलग है. वे भारत में कोई भी बहुसंख्यक राजनीति कर सकते हैं. लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए यह चेतावनी संकेत था.

यह भी पढ़ें- सीमा विवाद : पैंगोंग त्सो से पीछे हटने में क्यों अड़ियल रुख अपना रहा चीन

के.सी. सिंह ने यह भी तर्क दिया कि भारत के साथ बदलती गतिशीलता ईरान की चीन के साथ रणनीतिक साझेदारी करने के पीछे एक कारण है. भारत सरकार को यह दावा नहीं करना चाहिए कि उसे रणनीतिक स्वायत्तता है, अगर उसने ईरान को लेकर अमेरिका का पक्ष लिया है.

एक लीक रिपोर्ट के अनुसार, चीन ने ईरान के साथ 25 साल की अवधि के लिए 400 बिलियन डॉलर की रणनीतिक साझेदारी की डील को अंतिम रूप दिया है. इसके तहत ईरान चाबहार के ड्यूटी-फ्री ज़ोन, तेल रिफाइनरी, और संभवतः चाबहार बंदरगाह में एक बड़ी भूमिका के रूप में चीनी भागीदारी की अनुमति दे सकता है. इससे क्षेत्र में भारत की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े हो सकते हैं.

ऐसी खबरें भी हैं कि भारत को फरजाद बी गैस क्षेत्र वार्ता से भी अलग कर दिया गया है, जिसमें ओएनजीसी शामिल था. इस पर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने गुरुवार को कहा, 'ईरानी पक्ष द्वारा नीतिगत परिवर्तनों से द्विपक्षीय सहयोग प्रभावित हुआ है. जनवरी 2020 में, हमें सूचित किया गया कि ईरान अब अपने दम पर इस क्षेत्र का विकास करेगा और बाद के चरण में भारत को उचित रूप से शामिल करना चाहेगा. इस मामला पर अभी वार्ता होनी बाकी है.'

स्मिता शर्मा के साथ विशेष बातचीत में सुहासिनी हैदर ने चिंता व्यक्त की कि ऐसे समय जब अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य टुकड़ी को वापस बुलाया जा रहा है, यह क्षेत्र में भारत की बड़ी कनेक्टिविटी योजनाओं के लिए अच्छी तरह से वृद्धि नहीं करता है, जिसमें पाकिस्तानी प्रतिष्ठान और सेना की अधिक सक्रिय भूमिका देख सकते हैं.

सुहासिनी हैदर ने कहा, 'इसके दो पहलू हैं. क्या भारत दुनिया की एक शक्ति के आधार पर अपने फैसले लेता है या नहीं? या भारत कहेगा कि हम केवल बहुपक्षीय संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों को स्वीकार करें. और दूसरा यह कि डिलीवरी को लेकर भारत की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है. आपके वादे डिलीवरी से मेल नहीं खाते हैं. क्यों एमओयू पर हस्ताक्षर किए जाने के चार साल बाद भी अभी तक अनुबंध हुआ और भले ही हमने समझौते से पीछे हटने का फैसला किया हो या अगर ईरान ने हमें इससे बाहर करने का फैसला किया तो उसके क्या कारण थे?'

नई दिल्ली : क्या भारत अमेरिकी प्रतिबंधों के डर से निवेश में देरी के लिए ईरान की रेलवे परियोजना से बाहर कर दिया गया है? विदेश मंत्रालय ने गुरुवार को चाबहार बंदरगाह और चाबहार-जाहेदान रेल परियोजना पर मीडिया रिपोर्टों को महज अटकलबाजी बताया है.

भारत और ईरान ने चार साल पहले चाबहार बंदरगाह से ज़ाहेदान तक 628 किलोमीटर रेल लाइन के निर्माण के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. यह रेल लाइन अफगानिस्तान में जरंज तक विस्तारित होगा. ईरानी सरकार ने पिछले सप्ताह पटरी बिछाने का कार्य शुरू कर दिया है. कहा जा रहा है कि ईरान अब खुद इस रेल लाइन का निर्माण करेगा.

के.सी. सिंह और सुहासिनी हैदर से खास बातचीत

अंग्रेजी अखबार द हिंदू ने रिपोर्ट किया था कि ईरान के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों के डर के कारण से निवेश करने में अनिच्छा के कारण भारत को चाबहार-जाहेदान रेल परियोजना से हटाया गया.

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने गुरुवार को कहा कि जहां तक ​​प्रस्तावित रेलवे लाइन का सवाल है, इस परियोजना की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिए भारत सरकार द्वारा इरकॉन को नियुक्त किया गया था. यह सीडीटीआईसी के साथ काम कर रहा था, सीडीटीआईसी एक ईरानी कंपनी है. उन्होंने कहा कि इरकॉन (IRCON) ने साइट निरीक्षण और व्यावहारिकता रिपोर्ट की समीक्षा पूरी कर ली है.

हालांकि, मीडिया रिपोर्ट को स्पष्ट रूप से नकारे बिना विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने संकेत दिए कि अफगानिस्तान के रास्त मध्य एशिया तक पहुंच के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण इस रेल परियोजना में शामिल होने के लिए भारत के लिए अभी भी दरवाजे खुले हो सकते हैं.

अनुराग श्रीवास्तव ने कहा कि परियोजना के अन्य प्रासंगिक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की गई, जिसमें ईरान के सामने मौजूद वित्तीय चुनौतियों का ध्यान रखना था. दिसंबर 2019 में तेहरान में 19वीं भारत-ईरान संयुक्त आयोग की बैठक में इन मुद्दों की विस्तार से समीक्षा की गई. ईरानी पक्ष को उत्कृष्ट तकनीकी और वित्तीय मुद्दों को अंतिम रूप देने के लिए एक अधिकृत संस्था को नामित करना था, जो अभी भी प्रतीक्षित है.

यह भी पढ़ें- पाकिस्तान ने कुलभूषण जाधव से नहीं करने दी बेरोकटोक बातचीत : विदेश मंत्रालय

साल 2016 में हुए समझौता के तहत, भारत सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी इरकॉन ने लगभग 1.6 बिलियन डॉलर की अनुमानित इस परियोजना के लिए सभी सेवाएं और धन उपलब्ध कराने का संकल्प लिया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तेहरान यात्रा के दौरान ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथ चाबहार समझौते पर हस्ताक्षर करने के दौरान इस बात पर सहमति व्यक्त की गई थी कि पाकिस्तान की वजह से काबुल के साथ सड़क मार्ग से व्यापार करने में भारत की अक्षमता को देखते हुए क्षेत्रीय कनेक्टिविटी पर अधिक ध्यान दिया जाएगा.

वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा से विशेष चर्चा में द हिंदू की संपादक (विदेश मामले) सुहासिनी हैदर ने कहा, 'चाबहार को भारत के लिए एक बड़े भू-रणनीतिक द्वार के रूप में स्थापित किया गया था, इसका एक कारण यह था कि भारत पड़ोसी देश पाकिस्तान द्वारा पैदा की जाने वाली समस्याओं से दूर जा सकेगा, जिसने भारत व अफगानिस्तान और भारत व मध्य एशिया के बीच व्यापार को लगातार रोका या बाधित किया है. भारत के लिए पाकिस्तान की समस्या के निजात पाने के लिए चाबहार रेल परियोजना अच्छा कदम था. यह रेल लाइन अफगानिस्तान तक जाती है, और फिर यह विशेष रेल लाइन तुर्कमेनिस्तान, मध्य एशिया और रूस तक जाएगी. यदि अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा नहीं चलाया जा सकता है, तो यह करने का एक और तरीका है.'

इससे पहले भारत-ईरान के ऐतिहासिक संबंधों को उस वक्त धक्का लगा था, जब ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह खामनेई और विदेश मंत्री जावेद जरीफ ने अनुच्छेद 370 और सीएए प्रदर्शनों व दिल्ली दंगों के मद्देनजर भारत की तीखी आलोचना की थी. ईरान और यूएई के पूर्व भारतीय राजदूत के.सी. सिंह का तर्क है कि मोदी सरकार की बहुसंख्यक घरेलू राजनीति और अमेरिका से निकटता ने ईरान की भारत को लेकर धारणा को बदल दिया है.

स्मिता शर्मा के साथ बातचीत में के.सी. सिंह ने कहा, 'तथ्य यह है कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद ईरानियों ने बहुत स्पष्टवादी रुख अपनाया था. खास कर सर्वोच्च नेता खामनेई के दो ट्वीट्स, जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत सरकार को मुसलमानों के साथ सही तरीके से पेश आना चाहिए. हम यह कहते हुए टाल गए कि यह सिर्फ कोई कुछ कह रहा है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन यह सब मायने रखता है. हम (भारत में) शिया मुस्लिमों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी हैं. कश्मीर घाटी में शिया हैं.'

पूर्व राजनयिक सिंह ने कहा कि भाजपा को लगता है कि घरेलू राजनीति अंतरराष्ट्रीय राजनीति से अलग है. वे भारत में कोई भी बहुसंख्यक राजनीति कर सकते हैं. लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए यह चेतावनी संकेत था.

यह भी पढ़ें- सीमा विवाद : पैंगोंग त्सो से पीछे हटने में क्यों अड़ियल रुख अपना रहा चीन

के.सी. सिंह ने यह भी तर्क दिया कि भारत के साथ बदलती गतिशीलता ईरान की चीन के साथ रणनीतिक साझेदारी करने के पीछे एक कारण है. भारत सरकार को यह दावा नहीं करना चाहिए कि उसे रणनीतिक स्वायत्तता है, अगर उसने ईरान को लेकर अमेरिका का पक्ष लिया है.

एक लीक रिपोर्ट के अनुसार, चीन ने ईरान के साथ 25 साल की अवधि के लिए 400 बिलियन डॉलर की रणनीतिक साझेदारी की डील को अंतिम रूप दिया है. इसके तहत ईरान चाबहार के ड्यूटी-फ्री ज़ोन, तेल रिफाइनरी, और संभवतः चाबहार बंदरगाह में एक बड़ी भूमिका के रूप में चीनी भागीदारी की अनुमति दे सकता है. इससे क्षेत्र में भारत की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े हो सकते हैं.

ऐसी खबरें भी हैं कि भारत को फरजाद बी गैस क्षेत्र वार्ता से भी अलग कर दिया गया है, जिसमें ओएनजीसी शामिल था. इस पर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने गुरुवार को कहा, 'ईरानी पक्ष द्वारा नीतिगत परिवर्तनों से द्विपक्षीय सहयोग प्रभावित हुआ है. जनवरी 2020 में, हमें सूचित किया गया कि ईरान अब अपने दम पर इस क्षेत्र का विकास करेगा और बाद के चरण में भारत को उचित रूप से शामिल करना चाहेगा. इस मामला पर अभी वार्ता होनी बाकी है.'

स्मिता शर्मा के साथ विशेष बातचीत में सुहासिनी हैदर ने चिंता व्यक्त की कि ऐसे समय जब अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य टुकड़ी को वापस बुलाया जा रहा है, यह क्षेत्र में भारत की बड़ी कनेक्टिविटी योजनाओं के लिए अच्छी तरह से वृद्धि नहीं करता है, जिसमें पाकिस्तानी प्रतिष्ठान और सेना की अधिक सक्रिय भूमिका देख सकते हैं.

सुहासिनी हैदर ने कहा, 'इसके दो पहलू हैं. क्या भारत दुनिया की एक शक्ति के आधार पर अपने फैसले लेता है या नहीं? या भारत कहेगा कि हम केवल बहुपक्षीय संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों को स्वीकार करें. और दूसरा यह कि डिलीवरी को लेकर भारत की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है. आपके वादे डिलीवरी से मेल नहीं खाते हैं. क्यों एमओयू पर हस्ताक्षर किए जाने के चार साल बाद भी अभी तक अनुबंध हुआ और भले ही हमने समझौते से पीछे हटने का फैसला किया हो या अगर ईरान ने हमें इससे बाहर करने का फैसला किया तो उसके क्या कारण थे?'

Last Updated : Jul 17, 2020, 10:51 AM IST
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