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विशेष लेख : महाराष्ट्र की राजनीति से भाजपा को क्या हासिल हुआ?

महाराष्ट्र में पिछले एक माह से चले राजनीतिक ड्रामा अपने अंतिम चरण में है. शिवसेना ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ विरोधी दलों कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली है. बीजेप नेता देवेंद्र फडणवीस सीएम पद की शपथ लेकर तीन दिनों के लिए इस पद रहे थे, लेकिन राजनीतिक दांव-पेच के बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. महाराष्ट्र में भाजपा सरकार नहीं बना पाई है. विशेष लेख में पढ़ें महाराष्ट्र की राजनीति का भाजपा पर क्या प्रभाव पडे़गा.

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Published : Nov 30, 2019, 2:32 PM IST

Updated : Nov 30, 2019, 4:41 PM IST

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देवेंद्र फडणवीस

भारतीय राजनीति में कुछ ऐसा घटित हो रहा है, जिसे देखकर कहा जा सकता है कि चाणक्य और कौटिल्य जैसे महान रणनीतिकार को भी नया सबक मिल रहा है. महाराष्ट्र की राजनीतिक उठापटक इसका जीता-जागता उदाहरण है.

केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी की यह टिप्पणी, कि भारत की राजनीति और क्रिकेट काफी अप्रत्याशित है, महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार पर बिल्कुल फिट बैठती है. उनकी सरकार महज चार दिनों में ध्वस्त हो गई. 22 नवंबर 2019 की रात आठ बजे तक यह तय हो चुका था कि शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस ने उद्धव ठाकरे के नाम पर सहमति बना ली है. वे लोग अगले ही दिन राज्यपाल से मिलने वाले थे. लेकिन सुबह आठ बजे तक राजनीति पलट चुकी थी. जिसने भी टेलीविजन पर खबरें देखीं, वह भौंचक रह गया. देवेंद्र फडणवीस सीएम पद की शपथ ले चुके थे. भाजपा ने 'ऑपरेशन आकर्ष' चलाया. एनसीपी नेता अजित पवार भाजपा खेमे में जा चुके थे. उन्होंने खुद उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उन्होंने एनसीपी के सभी 54 विधायकों के समर्थन का दावा किया था. लेकिन अजित पवार अपने दावे को हकीकत में नहीं बदल सके. एनसीपी में कोई विभाजन नहीं हुआ.

न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ के फैसले के मद्देनजर अजित पवार ने इस्तीफा दे दिया. बाद में मुख्यमंत्री फडणवीस ने भी त्याग पत्र देना ही बेहतर विकल्प समझा. इसके बाद राज्यपाल ने एनसीपी-कांग्रेस-शिवसेना को सरकार बनाने का मौका दिया.

वर्तमान परिदृश्य में यह देखा जाना है कि क्या यह त्रिपक्षीय गठबंधन न्याय कर सकता है और अपनी व्यक्तिगत पार्टी सिद्धांतों को एक-दूसरे के साथ टकराए बिना एक स्थिर सरकार बना सकता है.

1996 में तत्कालीन प्रधान मंत्री वाजपेयी ने साफ किया था कि वे विपक्षी पार्टियों में विभाजन कर सत्ता में बने रहना पसंद नहीं करेंगे. उनकी सरकार महज 13 दिनों में ही गिर गई थी. यह एक बड़ी मिसाल थी. समकालीन राजनीति में उस तरह के मूल्य ढूंढना मुश्किल हो जाएगा, जबकि कोई भी दल या नेता सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है.

महाराष्ट्र चुनाव में शिवसेना और भाजपा ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा था. शिवसेना को 56 और भाजपा को 105 सीटें मिली थीं. इस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला था. लेकिन शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद की मांग कर दी और फिर राज्य राजनीतिक अनिश्चितता के भंवर में फंस गया. यहां तक कि राष्ट्रपति शासन भी लगाना पड़ गया.

भारतीय जनता पार्टी, जिसने पहले NCP को स्वाभाविक रूप से भ्रष्ट पार्टी बताया था, अब अजित पवार के साथ जुड़ने के लिए तैयार थी. उसने अजित और उनकी टीम को शांत करने के लिए उपमुख्यमंत्री पद भी प्रदान किया था. बीजेपी पर अनैतिक गठजोड़ का आरोप लगाया गया है. जबकि ऐसी ही रणनीति से गोवा से लेकर मणिपुर तक कई राज्यों में सरकारें बनाई गईं.

आज अजित पवार का राजनीतिक खेल इस कहावत को दर्शाता है - यदि आप एक के लिए देते हैं, तो मैं एक के लिए पीऊंगा. यह देखकर सचमुच आश्चर्य होता है कि भाजपा, जो अपनी विचारधारा और प्रतिबद्ध कैडरों के लिए जानी जाती है, आज सत्ता के पीछे क्यों दौड़ लगा रही है. कर्नाटक और महाराष्ट्र इसके दो प्रमुख उदाहरण हैं.

फडणवीस ने अपने पद से इस्तीफा देने के बाद कहा कि कांग्रेस-शिवसेना-एनसीपी का गठबंधन उस ऑटो जैसा है, जिसके तीनों पहिए अलग-अलग दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. उन्होंने आगे कहा कि ये गठबंधन अपने अंतरविरोधों की वजह से गिरने के लिए बाध्य है.

फडणवीस ने कहा कि वह हॉर्स ट्रेडिंग में यकीन नहीं रखते हैं. फिर तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि आपने अजित पवार को ऐसा करने की अनुमति क्यों दी. खुद उन्होंने ये भी कहा कि भाजपा की सफलता दर 70 फीसदी रही है. क्या ये जनता का समर्थन नहीं है.

कर्नाटक चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनी. पर, सामान्य बहुमत से कुछ ही सीटों से पीछे रह गई. बावजूद उसने किसी भी तरीके से सरकार बना ली. विपक्षी पार्टियां सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं और येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ गया.

कर्नाटक का अनुभव भाजपा के लिए सबक का काम करना चाहिए था. उसे कांग्रेस-शिवसेना-एनसीपी को अपने हाल पर छोड़ देना चाहिए था. तीनों पार्टियों का अंतरविरोध खुद ही उन्हें जनता की नजरों में नीचा कर देता. लेकिन भाजपा ने ऐसा नहीं किया.

अब बड़ा सवाल यह है कि आदर्श राजनीति की बात करने वाली बीजेपी को आखिरकार क्या हासिल हुआ ?

भारतीय राजनीति में कुछ ऐसा घटित हो रहा है, जिसे देखकर कहा जा सकता है कि चाणक्य और कौटिल्य जैसे महान रणनीतिकार को भी नया सबक मिल रहा है. महाराष्ट्र की राजनीतिक उठापटक इसका जीता-जागता उदाहरण है.

केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी की यह टिप्पणी, कि भारत की राजनीति और क्रिकेट काफी अप्रत्याशित है, महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार पर बिल्कुल फिट बैठती है. उनकी सरकार महज चार दिनों में ध्वस्त हो गई. 22 नवंबर 2019 की रात आठ बजे तक यह तय हो चुका था कि शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस ने उद्धव ठाकरे के नाम पर सहमति बना ली है. वे लोग अगले ही दिन राज्यपाल से मिलने वाले थे. लेकिन सुबह आठ बजे तक राजनीति पलट चुकी थी. जिसने भी टेलीविजन पर खबरें देखीं, वह भौंचक रह गया. देवेंद्र फडणवीस सीएम पद की शपथ ले चुके थे. भाजपा ने 'ऑपरेशन आकर्ष' चलाया. एनसीपी नेता अजित पवार भाजपा खेमे में जा चुके थे. उन्होंने खुद उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उन्होंने एनसीपी के सभी 54 विधायकों के समर्थन का दावा किया था. लेकिन अजित पवार अपने दावे को हकीकत में नहीं बदल सके. एनसीपी में कोई विभाजन नहीं हुआ.

न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ के फैसले के मद्देनजर अजित पवार ने इस्तीफा दे दिया. बाद में मुख्यमंत्री फडणवीस ने भी त्याग पत्र देना ही बेहतर विकल्प समझा. इसके बाद राज्यपाल ने एनसीपी-कांग्रेस-शिवसेना को सरकार बनाने का मौका दिया.

वर्तमान परिदृश्य में यह देखा जाना है कि क्या यह त्रिपक्षीय गठबंधन न्याय कर सकता है और अपनी व्यक्तिगत पार्टी सिद्धांतों को एक-दूसरे के साथ टकराए बिना एक स्थिर सरकार बना सकता है.

1996 में तत्कालीन प्रधान मंत्री वाजपेयी ने साफ किया था कि वे विपक्षी पार्टियों में विभाजन कर सत्ता में बने रहना पसंद नहीं करेंगे. उनकी सरकार महज 13 दिनों में ही गिर गई थी. यह एक बड़ी मिसाल थी. समकालीन राजनीति में उस तरह के मूल्य ढूंढना मुश्किल हो जाएगा, जबकि कोई भी दल या नेता सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है.

महाराष्ट्र चुनाव में शिवसेना और भाजपा ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा था. शिवसेना को 56 और भाजपा को 105 सीटें मिली थीं. इस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला था. लेकिन शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद की मांग कर दी और फिर राज्य राजनीतिक अनिश्चितता के भंवर में फंस गया. यहां तक कि राष्ट्रपति शासन भी लगाना पड़ गया.

भारतीय जनता पार्टी, जिसने पहले NCP को स्वाभाविक रूप से भ्रष्ट पार्टी बताया था, अब अजित पवार के साथ जुड़ने के लिए तैयार थी. उसने अजित और उनकी टीम को शांत करने के लिए उपमुख्यमंत्री पद भी प्रदान किया था. बीजेपी पर अनैतिक गठजोड़ का आरोप लगाया गया है. जबकि ऐसी ही रणनीति से गोवा से लेकर मणिपुर तक कई राज्यों में सरकारें बनाई गईं.

आज अजित पवार का राजनीतिक खेल इस कहावत को दर्शाता है - यदि आप एक के लिए देते हैं, तो मैं एक के लिए पीऊंगा. यह देखकर सचमुच आश्चर्य होता है कि भाजपा, जो अपनी विचारधारा और प्रतिबद्ध कैडरों के लिए जानी जाती है, आज सत्ता के पीछे क्यों दौड़ लगा रही है. कर्नाटक और महाराष्ट्र इसके दो प्रमुख उदाहरण हैं.

फडणवीस ने अपने पद से इस्तीफा देने के बाद कहा कि कांग्रेस-शिवसेना-एनसीपी का गठबंधन उस ऑटो जैसा है, जिसके तीनों पहिए अलग-अलग दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. उन्होंने आगे कहा कि ये गठबंधन अपने अंतरविरोधों की वजह से गिरने के लिए बाध्य है.

फडणवीस ने कहा कि वह हॉर्स ट्रेडिंग में यकीन नहीं रखते हैं. फिर तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि आपने अजित पवार को ऐसा करने की अनुमति क्यों दी. खुद उन्होंने ये भी कहा कि भाजपा की सफलता दर 70 फीसदी रही है. क्या ये जनता का समर्थन नहीं है.

कर्नाटक चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनी. पर, सामान्य बहुमत से कुछ ही सीटों से पीछे रह गई. बावजूद उसने किसी भी तरीके से सरकार बना ली. विपक्षी पार्टियां सुप्रीम कोर्ट पहुंच गईं और येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ गया.

कर्नाटक का अनुभव भाजपा के लिए सबक का काम करना चाहिए था. उसे कांग्रेस-शिवसेना-एनसीपी को अपने हाल पर छोड़ देना चाहिए था. तीनों पार्टियों का अंतरविरोध खुद ही उन्हें जनता की नजरों में नीचा कर देता. लेकिन भाजपा ने ऐसा नहीं किया.

अब बड़ा सवाल यह है कि आदर्श राजनीति की बात करने वाली बीजेपी को आखिरकार क्या हासिल हुआ ?

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Last Updated : Nov 30, 2019, 4:41 PM IST
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