ETV Bharat / bharat

ट्रूडो 2.0 : भारत-कनाडा संबंधों में तनाव बरकरार रहने के संकेत - प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो

कनाडा में पीएम जस्टिन ट्रूडो के नेतृत्व में लिबरल पार्टी को जीत हासिल हुई है. जस्टिन ट्रूडो के दोबारा सत्ता में आने के बाद कनाडा के भारत के साथ संबंध कैसे रहेंगे, पढ़ें विस्तार से

जस्टिन ट्रूडो और पीएम नरेंद्र मोदी
author img

By

Published : Nov 1, 2019, 5:21 PM IST

Updated : Nov 1, 2019, 5:35 PM IST

प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के नेतृत्व में कनाडा की लिबरल पार्टी को व्यापक रूप से 21 अक्टूबर को होने वाले आम चुनावों में संसदीय बहुमत खोने की उम्मीद थी. परिणामों ने जनमत सर्वेक्षणों की पुष्टि की. सत्तारूढ़ दल की बहुमत 20 सीट गिरकर 157 (338 में से) एक साधारण बहुमत से कम हो गई. यद्यपि कंजरवेटिव पार्टी- प्रमुख विपक्षी दल - ने लिबरल पार्टी की तुलना में अधिक वोट हासिल किए, वे भारत की तरह फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली या सर्वाधिक मत पाने वाले की जीत की प्रणाली के तहत सिर्फ 121 सीटें हासिल कर सके.

फिर भी कुछ लोग ही अनुमान लगा सकते थे कि इस प्रक्रिया के अंत में देश में 24 सांसदों के साथ वामपंथी एनडीपी (नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी) का नेतृत्व करने वाले इंडो-कनाडाई किंगमेकर जगमीत सिंह का उदय होगा. इस स्थिति में नई दिल्ली को आनन्दित होना चाहिए था, लेकिन जगमीत सिंह को एक मुखर खालिस्तानी हमदर्द और आदतन भारत का विरोध करने के लिए जाना जाता है. आगामी अल्पसंख्यक ट्रूडो सरकार, एनडीपी और / या ब्लॉक क्यूबेक (तीसरी सबसे बड़ी पार्टी) पर निर्भर है, जो कुछ मुद्दों पर बाहर से समर्थन देगी, इस प्रकार भारत कनाडा संबंधों के लिए ये अच्छी खबर नहीं है.

यदि किसी भी दो देशों को स्वाभाविक और करीबी सहयोगी माना जाता था, तो यकीनन वे भारत और कनाडा थे. दोनों के बीच अदभुत तालमेल और समानताएं हैं - बहु-जातीय, बहुसांस्कृतिक, मजबूत लोकतंत्र, अंग्रेजी बोलना, कानून के शासन का पालन करना, प्रवासी संबंध, पूरक अर्थव्यवस्थाएं और शैक्षिक संबंध. हालांकि, किस्मत को कुछ और मंजूर है. कुछ समय के अलावा हमारे आपसी सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं रहे.

यह अविश्वसनीय लगता है, फिर भी सच यह है कि नरेंद्र मोदी, 42 साल के अंतराल के बाद अप्रैल 2015 में कनाडा की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री थे. 2010 में द्विपक्षीय नागरिक परमाणु सहयोग समझौते के परिणामस्वरूप, कई वार्ताओं के बाद परमाणु बादल को भेदते हुए, इस ऐतिहासिक यात्रा को मुमकिन बनाया गया जो हर लिहाज से बेहद सफल रही. पहली बार कंजर्वेटिव पार्टी के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर के नेतृत्व वाली कनाडाई सरकार ने सार्वजनिक रूप से भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने का संकल्प लिया. ऐसा लग रहा था कि दोनों पक्षों के संबंधों में एक नया अध्याय जुड़ गया है.

etvbharat
जस्टिन ट्रूडो के साथ पीएम मोदी

हालांकि, अक्टूबर 2015 में आम चुनाव ने युवा नेता जस्टिन ट्रूडो को प्रचंड बहुमत के साथ जीत मिली. पीएम मोदी बधाई देने वाले सबसे पहले नेताओं में से एक थे और उन्हें भारत आने का गर्मजोशी भरा निमंत्रण भी दिया. लेकिन, लोकप्रिय नए राजनेता, जिन्होंने अपनी सरकार और पार्टी के भीतर खालिस्तानी तत्वों को तरजीह दे रखी थी, के ख्याल कुछ और ही थे.

ट्रूडो को कनाडा में सिख समुदाय द्वारा पूरे समर्थन, वित्तीय, राजनीतिक और मौखिक प्राप्त है, जिसके लिए वे आभारी थे. यह समुदाय उन्हें सिख जस्टिन सिंह के रूप में संदर्भित करता हैं, अतः उन्होंने हरजीत सिंह सज्जन को रक्षा मंत्री सहित भारी वजन विभागों को सौंप दिया. वह चुनावी अभियानों के दौरान अपने सिख वोट बैंक को मजबूत करने में लग गए, जो ज्यादातर खालिस्तानी तत्वों द्वारा नियंत्रित थे, जो कि अनुकूल राजनीतिज्ञों को कार्यकर्ता और उदार रूप से चन्दा देते हैं. वे कई नकदी-संपन्न कनाडाई गुरुद्वारों के प्रशासनिक और वित्तीय नियंत्रण का प्रबंधन हासिल करने में कामयाब रहे हैं और अपने अलगाववादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इन संसाधनों का उपयोग करने से कतराते नहीं हैं. कनाडाई प्रशासन बड़ी सरलता से यह सब नज़रअंदाज़ कर रहा है.

ऐतिहासिक रूप से कनाडा में सिखों ने भारी तादाद में लिबरल पार्टी को वोट दिया है. 1970 और 1980 के दशक में पंजाब की समस्या के दौरान, जस्टिन ट्रूडो के पिता तात्कालिक प्रधानमंत्री पियरे ट्रूडो ने विदेशी नागरिकों के लिए कनाडाई दरवाजे खोल दिए थे, खासकर पंजाब के अप्रवासी नागरिकों के लिए. इस दौरान बड़ी संख्या में सिख कनाडा चले गए, जो अक्सर भारत द्वारा राजनीतिक उत्पीड़न किये जाने का दावा करते हैं.

कनाडा के पश्चिमी तट पर पंजाबियों (ज्यादातर सिखों) का प्रवास 20वीं सदी की शुरुआत में हुआ. दूसरा जत्था, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, 1970 और 1980 के दशक में कनाडा की ओर गया था. वर्तमान में इंडो कैनेडियन सहित पूर्वी अफ्रीका से पलायन करने वालों में लगभग 15 लाख (कनाडाई जनसंख्या का 4%) शामिल है. हिंदुओं में लगभग 10 लाख और 500,000 सिख समुदाय के सदस्य हैं. हिंदू पूरे देश में फैले हुए हैं और योग्यता के आधार पर मतदान करना पसंद करते हैं. सिख टोरंटो के उपनगरों जैसे मिसिसॉगा और ब्रैम्पटन, सरे और कैलगरी जैसे वैंकूवर उपनगरों में केंद्रित हैं.

यह उन्हें 8 से 10 निर्वाचन क्षेत्रों (सवारी) में परिणाम को स्वरुप देने और अतिरिक्त नंबरों से संख्या को बराबर करके परिणाम को प्रभावित करने में सक्षम बनाता है. वर्तमान संसद में 18 सिख सांसद हैं (भारत में 13) और पंजाबी कनाडा में चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है. निम्नलिखित प्रकरण से समुदाय के दबदबे का अंदाजा लगाया जा सकता है.

पहली बार, कनाडा में आतंकवाद के खतरे पर सार्वजनिक रिपोर्ट, 2018 के अंत में जारी की गई थी, उसके अनुसार, 'कनाडा में कुछ लोग सिख (खालिस्तानी) चरमपंथी विचारधाराओं और आंदोलनों का समर्थन करते हैं.' खालिस्तानी तत्वों के शोर मचाने पर सरकार ने अप्रैल 2019 में सिख उग्रवाद के सभी संदर्भों को हटा दिया. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने साफ़ सब्दों में कहा की -कनाडा की सरकार ने यह फैसला राजनीतिक दबाव में लिया है….. ट्रूडो आग से खेल रहे हैं क्योंकि इस फैसले से भारत-कनाडा के संबंध प्रभावित होंगे. सिख अतिवाद को हटाने से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरा होगा.'

नए कैबिनेट की घोषणा सामान्य से अधिक समय ले रही है, एनडीपी और ब्लाक क्यूबेकयूबारे के बीच बातचीत मुद्दे-आधारित समर्थन और बाहरी गठबंधन के रूप में चल रही है. साथ ही, पिछली बार की तरह ही, चार सिख कैबिनेट मंत्रियों के शपथ ग्रहण की संभावना है. यह अलग बात है कि अल्पसंख्यक सरकार होने के नाते इसका 4 साल का कार्यकाल पूरा होने की संभावना नहीं है.

इस साल की शुरुआत में कनाडा की खुफिया एजेंसियों ने 21 अक्टूबर के चुनावों को प्रभावित करने के लिए कनाडा में प्रवासी समुदायों के साथ काम करने वाली चीनी और भारतीय सरकारों के बारे में एक गुप्त रिपोर्ट लीक की थी. इस आरोप का कोई सबूत या औचित्य सार्वजनिक नहीं किया गया था. यह घटनाक्रम दो राजधानियों के बीच जटिल स्थिति को दर्शाता है. संक्षेप में, कनाडा में मौजूदा हालात के तहत, आधिकारिक जुड़ाव बेरंग रहने की संभावना है, जबकि आर्थिक और लोगों के बीच होने वाला आदान-प्रदान भी लड़खड़ाता नजर आने की उम्मीद है.

प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के नेतृत्व में कनाडा की लिबरल पार्टी को व्यापक रूप से 21 अक्टूबर को होने वाले आम चुनावों में संसदीय बहुमत खोने की उम्मीद थी. परिणामों ने जनमत सर्वेक्षणों की पुष्टि की. सत्तारूढ़ दल की बहुमत 20 सीट गिरकर 157 (338 में से) एक साधारण बहुमत से कम हो गई. यद्यपि कंजरवेटिव पार्टी- प्रमुख विपक्षी दल - ने लिबरल पार्टी की तुलना में अधिक वोट हासिल किए, वे भारत की तरह फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली या सर्वाधिक मत पाने वाले की जीत की प्रणाली के तहत सिर्फ 121 सीटें हासिल कर सके.

फिर भी कुछ लोग ही अनुमान लगा सकते थे कि इस प्रक्रिया के अंत में देश में 24 सांसदों के साथ वामपंथी एनडीपी (नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी) का नेतृत्व करने वाले इंडो-कनाडाई किंगमेकर जगमीत सिंह का उदय होगा. इस स्थिति में नई दिल्ली को आनन्दित होना चाहिए था, लेकिन जगमीत सिंह को एक मुखर खालिस्तानी हमदर्द और आदतन भारत का विरोध करने के लिए जाना जाता है. आगामी अल्पसंख्यक ट्रूडो सरकार, एनडीपी और / या ब्लॉक क्यूबेक (तीसरी सबसे बड़ी पार्टी) पर निर्भर है, जो कुछ मुद्दों पर बाहर से समर्थन देगी, इस प्रकार भारत कनाडा संबंधों के लिए ये अच्छी खबर नहीं है.

यदि किसी भी दो देशों को स्वाभाविक और करीबी सहयोगी माना जाता था, तो यकीनन वे भारत और कनाडा थे. दोनों के बीच अदभुत तालमेल और समानताएं हैं - बहु-जातीय, बहुसांस्कृतिक, मजबूत लोकतंत्र, अंग्रेजी बोलना, कानून के शासन का पालन करना, प्रवासी संबंध, पूरक अर्थव्यवस्थाएं और शैक्षिक संबंध. हालांकि, किस्मत को कुछ और मंजूर है. कुछ समय के अलावा हमारे आपसी सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं रहे.

यह अविश्वसनीय लगता है, फिर भी सच यह है कि नरेंद्र मोदी, 42 साल के अंतराल के बाद अप्रैल 2015 में कनाडा की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री थे. 2010 में द्विपक्षीय नागरिक परमाणु सहयोग समझौते के परिणामस्वरूप, कई वार्ताओं के बाद परमाणु बादल को भेदते हुए, इस ऐतिहासिक यात्रा को मुमकिन बनाया गया जो हर लिहाज से बेहद सफल रही. पहली बार कंजर्वेटिव पार्टी के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर के नेतृत्व वाली कनाडाई सरकार ने सार्वजनिक रूप से भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने का संकल्प लिया. ऐसा लग रहा था कि दोनों पक्षों के संबंधों में एक नया अध्याय जुड़ गया है.

etvbharat
जस्टिन ट्रूडो के साथ पीएम मोदी

हालांकि, अक्टूबर 2015 में आम चुनाव ने युवा नेता जस्टिन ट्रूडो को प्रचंड बहुमत के साथ जीत मिली. पीएम मोदी बधाई देने वाले सबसे पहले नेताओं में से एक थे और उन्हें भारत आने का गर्मजोशी भरा निमंत्रण भी दिया. लेकिन, लोकप्रिय नए राजनेता, जिन्होंने अपनी सरकार और पार्टी के भीतर खालिस्तानी तत्वों को तरजीह दे रखी थी, के ख्याल कुछ और ही थे.

ट्रूडो को कनाडा में सिख समुदाय द्वारा पूरे समर्थन, वित्तीय, राजनीतिक और मौखिक प्राप्त है, जिसके लिए वे आभारी थे. यह समुदाय उन्हें सिख जस्टिन सिंह के रूप में संदर्भित करता हैं, अतः उन्होंने हरजीत सिंह सज्जन को रक्षा मंत्री सहित भारी वजन विभागों को सौंप दिया. वह चुनावी अभियानों के दौरान अपने सिख वोट बैंक को मजबूत करने में लग गए, जो ज्यादातर खालिस्तानी तत्वों द्वारा नियंत्रित थे, जो कि अनुकूल राजनीतिज्ञों को कार्यकर्ता और उदार रूप से चन्दा देते हैं. वे कई नकदी-संपन्न कनाडाई गुरुद्वारों के प्रशासनिक और वित्तीय नियंत्रण का प्रबंधन हासिल करने में कामयाब रहे हैं और अपने अलगाववादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इन संसाधनों का उपयोग करने से कतराते नहीं हैं. कनाडाई प्रशासन बड़ी सरलता से यह सब नज़रअंदाज़ कर रहा है.

ऐतिहासिक रूप से कनाडा में सिखों ने भारी तादाद में लिबरल पार्टी को वोट दिया है. 1970 और 1980 के दशक में पंजाब की समस्या के दौरान, जस्टिन ट्रूडो के पिता तात्कालिक प्रधानमंत्री पियरे ट्रूडो ने विदेशी नागरिकों के लिए कनाडाई दरवाजे खोल दिए थे, खासकर पंजाब के अप्रवासी नागरिकों के लिए. इस दौरान बड़ी संख्या में सिख कनाडा चले गए, जो अक्सर भारत द्वारा राजनीतिक उत्पीड़न किये जाने का दावा करते हैं.

कनाडा के पश्चिमी तट पर पंजाबियों (ज्यादातर सिखों) का प्रवास 20वीं सदी की शुरुआत में हुआ. दूसरा जत्था, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, 1970 और 1980 के दशक में कनाडा की ओर गया था. वर्तमान में इंडो कैनेडियन सहित पूर्वी अफ्रीका से पलायन करने वालों में लगभग 15 लाख (कनाडाई जनसंख्या का 4%) शामिल है. हिंदुओं में लगभग 10 लाख और 500,000 सिख समुदाय के सदस्य हैं. हिंदू पूरे देश में फैले हुए हैं और योग्यता के आधार पर मतदान करना पसंद करते हैं. सिख टोरंटो के उपनगरों जैसे मिसिसॉगा और ब्रैम्पटन, सरे और कैलगरी जैसे वैंकूवर उपनगरों में केंद्रित हैं.

यह उन्हें 8 से 10 निर्वाचन क्षेत्रों (सवारी) में परिणाम को स्वरुप देने और अतिरिक्त नंबरों से संख्या को बराबर करके परिणाम को प्रभावित करने में सक्षम बनाता है. वर्तमान संसद में 18 सिख सांसद हैं (भारत में 13) और पंजाबी कनाडा में चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है. निम्नलिखित प्रकरण से समुदाय के दबदबे का अंदाजा लगाया जा सकता है.

पहली बार, कनाडा में आतंकवाद के खतरे पर सार्वजनिक रिपोर्ट, 2018 के अंत में जारी की गई थी, उसके अनुसार, 'कनाडा में कुछ लोग सिख (खालिस्तानी) चरमपंथी विचारधाराओं और आंदोलनों का समर्थन करते हैं.' खालिस्तानी तत्वों के शोर मचाने पर सरकार ने अप्रैल 2019 में सिख उग्रवाद के सभी संदर्भों को हटा दिया. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने साफ़ सब्दों में कहा की -कनाडा की सरकार ने यह फैसला राजनीतिक दबाव में लिया है….. ट्रूडो आग से खेल रहे हैं क्योंकि इस फैसले से भारत-कनाडा के संबंध प्रभावित होंगे. सिख अतिवाद को हटाने से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरा होगा.'

नए कैबिनेट की घोषणा सामान्य से अधिक समय ले रही है, एनडीपी और ब्लाक क्यूबेकयूबारे के बीच बातचीत मुद्दे-आधारित समर्थन और बाहरी गठबंधन के रूप में चल रही है. साथ ही, पिछली बार की तरह ही, चार सिख कैबिनेट मंत्रियों के शपथ ग्रहण की संभावना है. यह अलग बात है कि अल्पसंख्यक सरकार होने के नाते इसका 4 साल का कार्यकाल पूरा होने की संभावना नहीं है.

इस साल की शुरुआत में कनाडा की खुफिया एजेंसियों ने 21 अक्टूबर के चुनावों को प्रभावित करने के लिए कनाडा में प्रवासी समुदायों के साथ काम करने वाली चीनी और भारतीय सरकारों के बारे में एक गुप्त रिपोर्ट लीक की थी. इस आरोप का कोई सबूत या औचित्य सार्वजनिक नहीं किया गया था. यह घटनाक्रम दो राजधानियों के बीच जटिल स्थिति को दर्शाता है. संक्षेप में, कनाडा में मौजूदा हालात के तहत, आधिकारिक जुड़ाव बेरंग रहने की संभावना है, जबकि आर्थिक और लोगों के बीच होने वाला आदान-प्रदान भी लड़खड़ाता नजर आने की उम्मीद है.

Intro:Body:Conclusion:
Last Updated : Nov 1, 2019, 5:35 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.