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कोरोना महामारी से जंग में मजदूरों का क्या है महत्व, जानें

आज मजदूर दिवस है. वह मजदूर जो अपने पसीने से देश को मजबूत करने की हैसियत रखता है. आज उसकी क्या स्थिति है. प्रश्न यह है कि, क्या मजदूर आज भी मजबूर हैं? आज पूरा विश्व जब महामारी से जूझ रहा है तो एक मजदूर खुद को कहां पाता है ? इस महामारी में उसकी देश को कितनी जरूरत है. यह जानना बेहद जरूरी है.

प्रतीकात्मक तस्वीर.
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Published : May 1, 2020, 2:59 PM IST

Updated : May 2, 2020, 7:55 AM IST

हैदराबाद : आज अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस है. यह दिन मेहनतकश मजदूरों के लिए समर्पित है. किसी भी देश की अर्थव्यव्यस्था मजदूरों के बदौलत ही खड़ी होती है. हालांकि इसके बावजूद मजदूर हाशिए पर हैं. कोरोना महामारी के बीच हम उन मजदूरों की मेहनत को याद कर रहे हैं, जिन्होंने अपनी हाथों से देश की किस्मत तय की थी. उनकी मेहनत के साथ-साथ यह भी जानना आवश्यक है कि इस महामारी में देश को एक मजदूर की कितनी आवश्यकता है? यह जानना आज के दिन काफी अहम हो जाता है.

देश में 25 फीसदी ग्रामीण और 12 प्रतिशत शहरी परिवार के लोग कॅज्युअल लेबर हैं. यह सभी मजदूर अपनी हाथों की मेहनत से अपना और परिवार का भरणपोषण करते हैं.

वहीं, शहरी क्षेत्रों में 40 प्रतिशत से अधिक लोग अब नियमित या वेतनभोगी नौकरियों में हैं. हालांकि यहां भी उनकी नौकरी कितनी सुरक्षित है यह कहना मुश्किल है.

गैर-कृषि क्षेत्र में 70 प्रतिशत वेतनभोगी कर्मचारियों के पास कोई लिखित अनुबंध (कॉन्ट्रेक्ट) नहीं है, और आधे से अधिक मजदूर तो पेड अवकाश (छुट्टी के दौरान तनख्वाह) के लिए पात्र भी नहीं हैं.स्थिति देश में मजदूरों की काफी दयनीय है. इसका सहज अंदाजा हम उनकी नौकरी से मिलने वाली सुविधाओं से लगा सकते हैं.

हालात यह हैं कि गैर-कृषि नौकरियों में लगभग आधे वेतनभोगी कर्मचारी स्वास्थ्य देखभाल सहित किसी भी सामाजिक सुरक्षा से जुड़े लाभ के हकदार नहीं हैं.जब इस देश में स्वास्थ्य सुविधाएं लोगों की बुनियादी जरूरत हैं और सरकार भी इस पर बारबार जोर देती आ रही है. फिर भी ये लोग स्वास्थ्य संबंधित सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं.

आपूर्ति श्रृंखला (स्पलाई चैन)

लॉकडाउन के कारण मजदूरों का पलायन उद्योग जगत सहित अन्य क्षेत्रों के लिए एक सबसे बड़ी समस्या बनकर खड़ा हो गया है. इससे काम करने वालों की भारी कमी हो गई है. अगर मजदूर नहीं होंगे तो काम नहीं होगा और अगर काम नहीं होगा तो बड़े से बड़े उद्योग ठप हो जाएंगे.

इससे देश की अर्थव्यवस्था को गहरा आघात पहुंचेगा. हम जिस डर की बात कर रहे हैं वह वर्तमान में यक्ष प्रश्न बनकर सबके सामने मौजूद है.. आखिर मजदूर आएंगे कैसे?अंतर-राज्य परिवहन की आवाजाही की कमी ने आपूर्ति श्रृंखला में अड़चनें पैदा की हैं. लाखों प्रवासियों को या तो घर में बंद कर दिया गया या उन्हें वापस घर भेज दिया गया है.और रही सही कसर को लॉकडाउन के दौरान सरकारी बयानों ने पूरा कर दिया.

इससे श्रमिकों में भय और अवसाद की भावना पैदा हो गई. जिससे वे अपने-अपने घरों के लिए निकल पड़े. इसका परिणाम यह हुआ की आज व्यवसाय 20 प्रतिशत मजदूर पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यह वास्तव किसी व्यवसाय के लिए डराने वाली तस्वीर है.मजदूर के बिना फैक्टरियां कम क्षमता और श्रम पर काम कर रही हैं.

इससे उत्पादन में भारी कमी आई है. लंबे समय तक कोरोना महामारी के कारण लॉकडाउन में रहने के बाद देश भर में आवश्यक वस्तुओं के भंडार को फिर से भरने की जरूरत है. क्योंकि लॉकडाउन ने आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन और आपूर्ति को पंगु बना दिया है.

दिल्ली सरकार ने ट्रेड यूनियनों से कहा है कि वह यूटी के कारखानों, वेयरहाउस, परिवहन और आवश्यक वस्तुओं के वितरण में श्रम में आवश्यक कार्यबल को खोजने में मदद करें.

बाजार

-विभिन्न राज्यों के कई प्रमुख बाजारों ने आपूर्ति और मांग से संबंधित सामान्य कार्य गतिविधियों को जारी रखने के लिए श्रम की मांग की है. आवश्यक सामानों को लोडिंग और अनलोडिंग के साथ बाजारों तक पहुंचाने के लिए अत्यधिक श्रम की आवश्यकता होती है.सुचारू आपूर्ति श्रृंखला बनाए रखने के लिए लोडिंग और अनलोडिंग महत्वपूर्ण है.

स्थानीय डिलेवरी अटके हुए हैं और तब तक स्थिति में सुधार नहीं हो सकता जब तक कि परिवहन वापस अपनी पिछली स्थिति में नहीं आता और आवागमन आसान नहीं हो जाता.बाजार में वस्तुओं की कीमतें उपलब्ध सस्ते श्रम से संबंधित होते हैं.

अब जब लॉकडाउन है तो स्थानीय श्रमिक अपने काम के लिए अधिक कीमत की मांग कर रहे हैं. ये प्रवासी श्रम की तुलना में कम काम करने के इच्छुक होते हैं. लॉकडाउन की घोषणा के बाद उनमें से कई प्रवासी श्रमिक या तो वापस आ गए हैं या अपने मूल स्थान पर जा रहे हैं. कई व्यापारियों को इसी कारण अपने काम को रोकने के लिए मजबूर होना पड़ा है. क्योंकि बाजार में मजदूर नहीं हैं तो काम कौन करेगा.

कृषि-

मजदूरों के पलायन करने से इसका असर खेत के काम पर भी पड़ा है. कई पंजाब के किसान अब श्रम की कमी के कारण सामान्य धान की खेती के बजाय कपास की फसल की ओर रुख कर रहे हैं.धान की खेती श्रम-प्रधान है और लॉकडाउन ने सस्ते श्रम को भोजन की कमी के कारण मरने के डर से अपने मूल स्थानों पर लौटने के लिए मजबूर किया है. श्रम की कमी का मतलब फसल कटाई में देरी हो सकती है, जिसका मतलब फसल का काफी नुकसान हो सकता है.

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार (जनगणना 2011 के आंकड़ों पर आधारित है) पूरे भारत में लगभग 24 लाख प्रवासी खेतों में काम करते हैं.

लॉकडाउन की समस्या

मजदूरी का घटना.

पिछले महीनों के लिए मजदूरी रद किया जाना.

प्रवासी मजदूरों का विस्थापन

आश्रय और सुरक्षा का अभाव

भोजन प्राप्त करने में अनिश्चितता

असुरक्षा की दर

लॉकडाउन में असुरक्षा का दर काफी बढ़ा है. इसका सीधा असर गरीब और कम कमाने वाले लोगों, दिहाड़ी मजदूरों पर पड़ा है.

वहीं, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने महामारी के दौरान नौकरी से होने वाले नुकसान और मज़दूरों को कठिनाई से बचाने के लिए सामाजिक संरक्षण और रोजगार प्रतिधारण का समर्थन करने की सिफारिश की है.


लॉकडाउन में कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स आमतौर पर इस तरह के वित्तीय झटकों की स्थिति में सबसे कमजोर और बेबस हो जाते हैं. केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय ने हालांकि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के नियोक्ताओं को COVID-19 के दौरान श्रमिकों को नहीं हटाने और वेतन में कटौती नहीं करने के लिए कहा है.

प्रवासी मजदूरों के विषय में सोचने की आवश्यकता है.

कोरोना वायरस लॉकडाउन ने प्रवासी मजदूरों की स्थिति को देखकर एक बात तो साबित कर दिया है कि इन मजदूरों के विषय में देश को एक बार फिर से सोचना पड़ेगा. क्योंकि इन परिस्थितियों में वे भूखे मरने की कगार पर आ जाते हैं. वे हाशिये पर चले जाते हैं. चाहे कुछ भी हो, आखिर ये मजदूर ही देश के निर्माता हैं. उनके बारे में सोचना हमारा कर्तव्य है...

हैदराबाद : आज अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस है. यह दिन मेहनतकश मजदूरों के लिए समर्पित है. किसी भी देश की अर्थव्यव्यस्था मजदूरों के बदौलत ही खड़ी होती है. हालांकि इसके बावजूद मजदूर हाशिए पर हैं. कोरोना महामारी के बीच हम उन मजदूरों की मेहनत को याद कर रहे हैं, जिन्होंने अपनी हाथों से देश की किस्मत तय की थी. उनकी मेहनत के साथ-साथ यह भी जानना आवश्यक है कि इस महामारी में देश को एक मजदूर की कितनी आवश्यकता है? यह जानना आज के दिन काफी अहम हो जाता है.

देश में 25 फीसदी ग्रामीण और 12 प्रतिशत शहरी परिवार के लोग कॅज्युअल लेबर हैं. यह सभी मजदूर अपनी हाथों की मेहनत से अपना और परिवार का भरणपोषण करते हैं.

वहीं, शहरी क्षेत्रों में 40 प्रतिशत से अधिक लोग अब नियमित या वेतनभोगी नौकरियों में हैं. हालांकि यहां भी उनकी नौकरी कितनी सुरक्षित है यह कहना मुश्किल है.

गैर-कृषि क्षेत्र में 70 प्रतिशत वेतनभोगी कर्मचारियों के पास कोई लिखित अनुबंध (कॉन्ट्रेक्ट) नहीं है, और आधे से अधिक मजदूर तो पेड अवकाश (छुट्टी के दौरान तनख्वाह) के लिए पात्र भी नहीं हैं.स्थिति देश में मजदूरों की काफी दयनीय है. इसका सहज अंदाजा हम उनकी नौकरी से मिलने वाली सुविधाओं से लगा सकते हैं.

हालात यह हैं कि गैर-कृषि नौकरियों में लगभग आधे वेतनभोगी कर्मचारी स्वास्थ्य देखभाल सहित किसी भी सामाजिक सुरक्षा से जुड़े लाभ के हकदार नहीं हैं.जब इस देश में स्वास्थ्य सुविधाएं लोगों की बुनियादी जरूरत हैं और सरकार भी इस पर बारबार जोर देती आ रही है. फिर भी ये लोग स्वास्थ्य संबंधित सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं.

आपूर्ति श्रृंखला (स्पलाई चैन)

लॉकडाउन के कारण मजदूरों का पलायन उद्योग जगत सहित अन्य क्षेत्रों के लिए एक सबसे बड़ी समस्या बनकर खड़ा हो गया है. इससे काम करने वालों की भारी कमी हो गई है. अगर मजदूर नहीं होंगे तो काम नहीं होगा और अगर काम नहीं होगा तो बड़े से बड़े उद्योग ठप हो जाएंगे.

इससे देश की अर्थव्यवस्था को गहरा आघात पहुंचेगा. हम जिस डर की बात कर रहे हैं वह वर्तमान में यक्ष प्रश्न बनकर सबके सामने मौजूद है.. आखिर मजदूर आएंगे कैसे?अंतर-राज्य परिवहन की आवाजाही की कमी ने आपूर्ति श्रृंखला में अड़चनें पैदा की हैं. लाखों प्रवासियों को या तो घर में बंद कर दिया गया या उन्हें वापस घर भेज दिया गया है.और रही सही कसर को लॉकडाउन के दौरान सरकारी बयानों ने पूरा कर दिया.

इससे श्रमिकों में भय और अवसाद की भावना पैदा हो गई. जिससे वे अपने-अपने घरों के लिए निकल पड़े. इसका परिणाम यह हुआ की आज व्यवसाय 20 प्रतिशत मजदूर पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यह वास्तव किसी व्यवसाय के लिए डराने वाली तस्वीर है.मजदूर के बिना फैक्टरियां कम क्षमता और श्रम पर काम कर रही हैं.

इससे उत्पादन में भारी कमी आई है. लंबे समय तक कोरोना महामारी के कारण लॉकडाउन में रहने के बाद देश भर में आवश्यक वस्तुओं के भंडार को फिर से भरने की जरूरत है. क्योंकि लॉकडाउन ने आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन और आपूर्ति को पंगु बना दिया है.

दिल्ली सरकार ने ट्रेड यूनियनों से कहा है कि वह यूटी के कारखानों, वेयरहाउस, परिवहन और आवश्यक वस्तुओं के वितरण में श्रम में आवश्यक कार्यबल को खोजने में मदद करें.

बाजार

-विभिन्न राज्यों के कई प्रमुख बाजारों ने आपूर्ति और मांग से संबंधित सामान्य कार्य गतिविधियों को जारी रखने के लिए श्रम की मांग की है. आवश्यक सामानों को लोडिंग और अनलोडिंग के साथ बाजारों तक पहुंचाने के लिए अत्यधिक श्रम की आवश्यकता होती है.सुचारू आपूर्ति श्रृंखला बनाए रखने के लिए लोडिंग और अनलोडिंग महत्वपूर्ण है.

स्थानीय डिलेवरी अटके हुए हैं और तब तक स्थिति में सुधार नहीं हो सकता जब तक कि परिवहन वापस अपनी पिछली स्थिति में नहीं आता और आवागमन आसान नहीं हो जाता.बाजार में वस्तुओं की कीमतें उपलब्ध सस्ते श्रम से संबंधित होते हैं.

अब जब लॉकडाउन है तो स्थानीय श्रमिक अपने काम के लिए अधिक कीमत की मांग कर रहे हैं. ये प्रवासी श्रम की तुलना में कम काम करने के इच्छुक होते हैं. लॉकडाउन की घोषणा के बाद उनमें से कई प्रवासी श्रमिक या तो वापस आ गए हैं या अपने मूल स्थान पर जा रहे हैं. कई व्यापारियों को इसी कारण अपने काम को रोकने के लिए मजबूर होना पड़ा है. क्योंकि बाजार में मजदूर नहीं हैं तो काम कौन करेगा.

कृषि-

मजदूरों के पलायन करने से इसका असर खेत के काम पर भी पड़ा है. कई पंजाब के किसान अब श्रम की कमी के कारण सामान्य धान की खेती के बजाय कपास की फसल की ओर रुख कर रहे हैं.धान की खेती श्रम-प्रधान है और लॉकडाउन ने सस्ते श्रम को भोजन की कमी के कारण मरने के डर से अपने मूल स्थानों पर लौटने के लिए मजबूर किया है. श्रम की कमी का मतलब फसल कटाई में देरी हो सकती है, जिसका मतलब फसल का काफी नुकसान हो सकता है.

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार (जनगणना 2011 के आंकड़ों पर आधारित है) पूरे भारत में लगभग 24 लाख प्रवासी खेतों में काम करते हैं.

लॉकडाउन की समस्या

मजदूरी का घटना.

पिछले महीनों के लिए मजदूरी रद किया जाना.

प्रवासी मजदूरों का विस्थापन

आश्रय और सुरक्षा का अभाव

भोजन प्राप्त करने में अनिश्चितता

असुरक्षा की दर

लॉकडाउन में असुरक्षा का दर काफी बढ़ा है. इसका सीधा असर गरीब और कम कमाने वाले लोगों, दिहाड़ी मजदूरों पर पड़ा है.

वहीं, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने महामारी के दौरान नौकरी से होने वाले नुकसान और मज़दूरों को कठिनाई से बचाने के लिए सामाजिक संरक्षण और रोजगार प्रतिधारण का समर्थन करने की सिफारिश की है.


लॉकडाउन में कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स आमतौर पर इस तरह के वित्तीय झटकों की स्थिति में सबसे कमजोर और बेबस हो जाते हैं. केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय ने हालांकि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के नियोक्ताओं को COVID-19 के दौरान श्रमिकों को नहीं हटाने और वेतन में कटौती नहीं करने के लिए कहा है.

प्रवासी मजदूरों के विषय में सोचने की आवश्यकता है.

कोरोना वायरस लॉकडाउन ने प्रवासी मजदूरों की स्थिति को देखकर एक बात तो साबित कर दिया है कि इन मजदूरों के विषय में देश को एक बार फिर से सोचना पड़ेगा. क्योंकि इन परिस्थितियों में वे भूखे मरने की कगार पर आ जाते हैं. वे हाशिये पर चले जाते हैं. चाहे कुछ भी हो, आखिर ये मजदूर ही देश के निर्माता हैं. उनके बारे में सोचना हमारा कर्तव्य है...

Last Updated : May 2, 2020, 7:55 AM IST
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