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भारत-चीन वार्ता के चार अहम बिंदु और रूस की भूमिका

रूस की राजधानी मॉस्को में चल रही एससीओ की बैठक के इतर भारत और चीन के विदेश मंत्रियों ने गुरुवार को मुलाकात की. इस दौरान दोनों देशों के बीच सीमा पर जारी गतिरोध को कम करने के लिए चर्चा की गई. पढ़िए वरिष्ठ संवाददाता संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट...

भारत-चीन वार्ता
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Published : Sep 11, 2020, 6:48 PM IST

Updated : Sep 11, 2020, 7:09 PM IST

नई दिल्ली : भारत और चीन की सेनाओं के बीच इस साल अप्रैल-मई माह से तनाव जारी है. इस संकट का समाधान करने के लिए विचार-विमर्श के लगभग सभी मौजूदा तंत्रों की नाकामी के बाद मॉस्को में गुरुवार शाम एससीओ की बैठक हुई. इस बैठक से इतर भारत और चीन के विदेश मंत्रियों के बीच हुई अत्यंत महत्वपूर्ण बैठक को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया जा सकता.

अन्य चीजों के अलावा परमाणु हथियारों से लैस दो एशियाई दिग्गजों के बीच सशस्त्र संघर्ष की बढ़ती आशंकाओं को कम किया जा सकता है, जिसका स्पष्ट रूप से वैश्विक प्रभाव पड़ेगा. साथ ही युद्ध के मंडराते बादलों को तितर-बितर करने में मदद मिलेगी. इस पृष्ठभूमि में गुरुवार शाम की बैठक के बाद मास्को से जो संयुक्त बयान जारी हुआ, उसके गूढ़ अर्थ को समझें, तो जिस तरह से यह प्रक्रिया आगे बढ़ी, वह पवित्र इरादों की सीधी घोषणा के अलावा भी उसके निहितार्थ हैं.

बातचीत की प्रक्रिया आगे बढ़ाई

अब शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर बातचीत ही सिर्फ एक जगह बचती है. ईटीवी भारत ने 20 अगस्त को ही लिखा था कि यह मानने के कारण हैं कि मोदी- जिंगपिन तंत्र के अलावा शीर्ष स्तर पर सभी तंत्र अपनाए और परखे जा चुके और वह सभी नाकाम रहे हैं.

वास्तव में भारत-चीन की दुस्साध्य प्रकृति के जो मुद्दे हैं, उन्हें देखते हुए इससे बस सैन्य स्तर या कूटनीतिक हस्तक्षेप से समाधान नहीं किया जा सकता. यह मुद्दे औपनिवेशिक विरासत की भी देन है. केवल दोनों देशों के सर्वोच्च कार्यालयों के पास लंबे समय से जारी समस्या को हल करने के लिए आवश्यक साधन और जनादेश है.

वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मामले की जो वर्तमान स्थिति है, वह जवाहरलाल नेहरू-चाउएन लाई की विफलता का परिणाम है. दोनों 1950 के दशक के अंत में क्रमश: भारत और चीन के प्रधानमंत्री थे. जब दोनों नाकाम रहे तो उसके नतीजे के रूप में 1962 का युद्ध हुआ.

इसीलिए संयुक्त वक्तव्य के पहले बिंदु में कहा गया है कि दोनों पक्षों को दोनों देशों के नेताओं की ओर से बनी महत्वपूर्ण सहमतियों का पालन करना चाहिए. आने वाले दिनों में प्रधानमंत्र नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच वुहान और मल्लापुरम ‘अनौपचारिक’ स्वभाव की निरंतरता में शिखर-स्तरीय वार्ता की उम्मीद की जा सकती हैं.

रूस का उदय

दूसरी बात यह है कि रूस की ओर से रणनीतिक मध्यस्था का दावा बहुत स्पष्ट है. इसका मतलब है कि दुनिया के देशों की मंडली में रूस की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई है. एससीओ के अवसर पर पिछले कुछ दिनों के अंदर भारत और चीन के रक्षा और विदेश मंत्रियों की मुलाकात होती है और इससे दोनों देशों की ओर से बातचीत को लेकर जमी बर्फ टूट जाती है. दिलचस्प बात यह है कि यह सब मास्को में हुआ. यह ऐसे समय में हो रहा है, जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मध्यस्थता करने का अपनी ओर से प्रस्ताव दिया था और चीन ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था. भारत ने इस पर ऐसी विनम्रता दिखाई जैसे इसके बारे में उसे जानकारी ही नहीं है.

दुनिया में कहीं भी मध्यस्थता की भूमिका की पृष्ठभूमि को लेकर रूस के प्रयास सोवियत संघ (यूएसएसआर) के विघटन के बाद खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस पाने के लिए एक सचेत योजना का हिस्सा हो सकता है.

'क्वाड' प्रश्न

तीसरा बात यह कि मॉस्को की मध्यस्था में चीन से बात करने के लिए भारत की मौन स्वीकृति बहुचर्चित क्वाड यानी चतुष्कोण के गठन के लिए एक निरुत्साहित करने वाली बात हो सकती है. क्वाड जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के इस्तीफे के बाद पहले से ही दबाव में है. आबे 'क्वाड' के एक मजबूत प्रस्तावक थे और 'क्वाड' के गठन में परेशानियों का हिंद-प्रशांत क्षेत्र की गतिविधियों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा. क्वाड को लेकर संदेह इसलिए भी पैदा होता है, क्योंकि ऑस्ट्रेलिया अपने डेयरी और कृषि उत्पादों की मार्केटिंग के लिए चीन पर बहुत अधिक निर्भर है.

पढ़ें - तनाव कम करने को भारत-चीन में कमांडर स्तर पर हुई वार्ता

ईरान का कोण

चौथी बात भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस जयशंकर के ईरान की राजधानी तेहरान में थोड़ी देर के लिए ठहरना भी भौहें तानने से नहीं रोकने वाला रहा. वास्तव में सवाल यह उठ रहा है कि क्या भारत एक नीतिगत बदलाव के बारे में सोच रहा है. क्योंकि नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के साथ इस बात की संभावना है कि ट्रंप के हारने की स्थिति में ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों के लिए इतना अधिक जोश नहीं रहेगा.

पिछले साल से भारत और ईरान के बीच पारंपरिक घनिष्ठ संबंधों में बहुत अधिक कमी आई है. इसका कारण है कि भारत अमेरिकी की ओर से ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों का अक्षरश: पालन कर रहा है, जिसके जवाब में ईरान ने कश्मीर नीति पर भारत की आलोचना की है.

ईरान के साथ रिश्तों में आई परेशानी के कारण रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह में भारत की भागीदारी के लिए बाधाएं पैदा हुई हैं. चाबहार से भारत को अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक सीधे व्यापार के लिए रास्ता मिल सकता है.

कुल मिलाकर कहें तो धरती पर दो सबसे अधिक आबादी वाले देशों के बीच सशस्त्र संघर्ष की आशंका को खारिज करने के अलावा रूस में भारत-चीन वार्ता से दुनिया के कई महत्वपूर्ण देशों की भू-राजनीतिक रणनीतियों को बदलने की सूचक साबित हो सकती है.

नई दिल्ली : भारत और चीन की सेनाओं के बीच इस साल अप्रैल-मई माह से तनाव जारी है. इस संकट का समाधान करने के लिए विचार-विमर्श के लगभग सभी मौजूदा तंत्रों की नाकामी के बाद मॉस्को में गुरुवार शाम एससीओ की बैठक हुई. इस बैठक से इतर भारत और चीन के विदेश मंत्रियों के बीच हुई अत्यंत महत्वपूर्ण बैठक को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया जा सकता.

अन्य चीजों के अलावा परमाणु हथियारों से लैस दो एशियाई दिग्गजों के बीच सशस्त्र संघर्ष की बढ़ती आशंकाओं को कम किया जा सकता है, जिसका स्पष्ट रूप से वैश्विक प्रभाव पड़ेगा. साथ ही युद्ध के मंडराते बादलों को तितर-बितर करने में मदद मिलेगी. इस पृष्ठभूमि में गुरुवार शाम की बैठक के बाद मास्को से जो संयुक्त बयान जारी हुआ, उसके गूढ़ अर्थ को समझें, तो जिस तरह से यह प्रक्रिया आगे बढ़ी, वह पवित्र इरादों की सीधी घोषणा के अलावा भी उसके निहितार्थ हैं.

बातचीत की प्रक्रिया आगे बढ़ाई

अब शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर बातचीत ही सिर्फ एक जगह बचती है. ईटीवी भारत ने 20 अगस्त को ही लिखा था कि यह मानने के कारण हैं कि मोदी- जिंगपिन तंत्र के अलावा शीर्ष स्तर पर सभी तंत्र अपनाए और परखे जा चुके और वह सभी नाकाम रहे हैं.

वास्तव में भारत-चीन की दुस्साध्य प्रकृति के जो मुद्दे हैं, उन्हें देखते हुए इससे बस सैन्य स्तर या कूटनीतिक हस्तक्षेप से समाधान नहीं किया जा सकता. यह मुद्दे औपनिवेशिक विरासत की भी देन है. केवल दोनों देशों के सर्वोच्च कार्यालयों के पास लंबे समय से जारी समस्या को हल करने के लिए आवश्यक साधन और जनादेश है.

वास्तविक नियंत्रण रेखा पर मामले की जो वर्तमान स्थिति है, वह जवाहरलाल नेहरू-चाउएन लाई की विफलता का परिणाम है. दोनों 1950 के दशक के अंत में क्रमश: भारत और चीन के प्रधानमंत्री थे. जब दोनों नाकाम रहे तो उसके नतीजे के रूप में 1962 का युद्ध हुआ.

इसीलिए संयुक्त वक्तव्य के पहले बिंदु में कहा गया है कि दोनों पक्षों को दोनों देशों के नेताओं की ओर से बनी महत्वपूर्ण सहमतियों का पालन करना चाहिए. आने वाले दिनों में प्रधानमंत्र नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच वुहान और मल्लापुरम ‘अनौपचारिक’ स्वभाव की निरंतरता में शिखर-स्तरीय वार्ता की उम्मीद की जा सकती हैं.

रूस का उदय

दूसरी बात यह है कि रूस की ओर से रणनीतिक मध्यस्था का दावा बहुत स्पष्ट है. इसका मतलब है कि दुनिया के देशों की मंडली में रूस की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई है. एससीओ के अवसर पर पिछले कुछ दिनों के अंदर भारत और चीन के रक्षा और विदेश मंत्रियों की मुलाकात होती है और इससे दोनों देशों की ओर से बातचीत को लेकर जमी बर्फ टूट जाती है. दिलचस्प बात यह है कि यह सब मास्को में हुआ. यह ऐसे समय में हो रहा है, जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मध्यस्थता करने का अपनी ओर से प्रस्ताव दिया था और चीन ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था. भारत ने इस पर ऐसी विनम्रता दिखाई जैसे इसके बारे में उसे जानकारी ही नहीं है.

दुनिया में कहीं भी मध्यस्थता की भूमिका की पृष्ठभूमि को लेकर रूस के प्रयास सोवियत संघ (यूएसएसआर) के विघटन के बाद खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस पाने के लिए एक सचेत योजना का हिस्सा हो सकता है.

'क्वाड' प्रश्न

तीसरा बात यह कि मॉस्को की मध्यस्था में चीन से बात करने के लिए भारत की मौन स्वीकृति बहुचर्चित क्वाड यानी चतुष्कोण के गठन के लिए एक निरुत्साहित करने वाली बात हो सकती है. क्वाड जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के इस्तीफे के बाद पहले से ही दबाव में है. आबे 'क्वाड' के एक मजबूत प्रस्तावक थे और 'क्वाड' के गठन में परेशानियों का हिंद-प्रशांत क्षेत्र की गतिविधियों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा. क्वाड को लेकर संदेह इसलिए भी पैदा होता है, क्योंकि ऑस्ट्रेलिया अपने डेयरी और कृषि उत्पादों की मार्केटिंग के लिए चीन पर बहुत अधिक निर्भर है.

पढ़ें - तनाव कम करने को भारत-चीन में कमांडर स्तर पर हुई वार्ता

ईरान का कोण

चौथी बात भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस जयशंकर के ईरान की राजधानी तेहरान में थोड़ी देर के लिए ठहरना भी भौहें तानने से नहीं रोकने वाला रहा. वास्तव में सवाल यह उठ रहा है कि क्या भारत एक नीतिगत बदलाव के बारे में सोच रहा है. क्योंकि नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के साथ इस बात की संभावना है कि ट्रंप के हारने की स्थिति में ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों के लिए इतना अधिक जोश नहीं रहेगा.

पिछले साल से भारत और ईरान के बीच पारंपरिक घनिष्ठ संबंधों में बहुत अधिक कमी आई है. इसका कारण है कि भारत अमेरिकी की ओर से ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों का अक्षरश: पालन कर रहा है, जिसके जवाब में ईरान ने कश्मीर नीति पर भारत की आलोचना की है.

ईरान के साथ रिश्तों में आई परेशानी के कारण रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह में भारत की भागीदारी के लिए बाधाएं पैदा हुई हैं. चाबहार से भारत को अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक सीधे व्यापार के लिए रास्ता मिल सकता है.

कुल मिलाकर कहें तो धरती पर दो सबसे अधिक आबादी वाले देशों के बीच सशस्त्र संघर्ष की आशंका को खारिज करने के अलावा रूस में भारत-चीन वार्ता से दुनिया के कई महत्वपूर्ण देशों की भू-राजनीतिक रणनीतियों को बदलने की सूचक साबित हो सकती है.

Last Updated : Sep 11, 2020, 7:09 PM IST
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