भारत और चीनी सेना के बीच पिछले हफ्ते लद्दाख की गलवान घाटी में हिंसक झड़प हुई. इसके बाद दोनों देशों के संबंधों में तनाव देखा जा रहा है. दोनों देशों के रिश्तों को लेकर 14 कोर (लद्दाख) के पूर्व कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल राकेश शर्मा से ईटीवी भारत ने बातचीत की. पूर्व कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल राकेश शर्मा ने कहा कि जून 15-16 की दुर्भाग्यपूर्ण रात को बर्फीली हवा के बीच गलवान घाटी में, 1988 में भारत और चीन के बीच आपसी विश्वास बनाने की प्रक्रिया की जो नींव रखी गई थी उसे आखिरकार दफना दिया गया. कई दशक से इस दिन का आगाज हो रहा था.
उन्होंने बताया कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के प्रबंधन का संचालन 1993, 1996, 2005 और 2013 के चार औपचारिक समझौतों के अंतर्गत आपसी शिष्टाचार और विश्वास बनाने की प्रक्रिया के तहत किया जा रहा था. शांति और व्यवस्था बनाए रखने पर 1993 में हुए समझौते के अनुसार, यह तय हुआ था कि दोनों ही पक्ष न तो शक्ति का इस्तेमाल करेंगे, न ही वैसा करने की धमकी देंगे और वास्तविक नियंत्रण रेखा का मान रखेंगे और पालन करेंगे.
1996 के समझौते में आपसी विश्वास बनाने की प्रक्रिया की नींव रखी गई जो एक प्रकार से युद्ध पर विराम लगाने के लिए समझौता जैसा था. इसमें कहा गया था कि कोई भी पक्ष अपनी सैन्य शक्ति का दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल नहीं करेगा. इस समझौते की एक शर्त यह भी थी कि कोई घातक रसायण का इस्तेमाल नहीं करेगा और नियंत्रण रेखा के दो किलोमीटर के भीतर न किसी प्रकार का विस्फोट करेगा और न ही बंदूक या विस्फोटक से शिकार करेगा.
2005 के शिष्टाचार के नियम में यह भी भार पूर्वक कहा गया कि नियंत्रण रेखा को लेकर किसी भी प्रकार के मतभेद के चलते या किसी अन्य कारण से दोनों पक्ष का आमना-सामना हो जाए तो संघर्ष को टालने के सभी संभव प्रयास किए जाएंगे. समझौते में यह भी स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि यदि दोनों पक्ष के सैनिकों का आमना सामना हो तो वे आगे न बढ़ कर सभी गतिविधियां रोक कर अपनी-अपनी छावनियों में लौट जाएंगे.
भारत-चीन 2013 के सीमा समझौते में भी इसी बात पर जोर दिया गया कि दोनों ही पक्ष एक दूसरे के खिलाफ सैन्य शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे. पिछले कई सालों के तनावपूर्ण परिस्थिति के अनुभव के आधार पर एक और शर्त यह भी रखी गई कि नियंत्रण रेखा के बारे में जहां कोई स्पष्टता न हो वहां दोनों पक्ष एक दूसरे के गश्ती दल का पीछा नहीं करेंगे. यहां फिर से इस बात को भारपूर्वक कहा गया कि दोनों पक्ष अपने व्यवहार को नियंत्रण में रखें, किसी भी तरीके से उकसाने की हरकत न करें, एक दूसरे से सज्जनतापूर्ण व्यवहार करें और बंदूक या हथियारों से हमला न करें.
समझौतों का हुआ पालन
1996 और 2005 के समझौतों ने व्यवहारिक शिष्ठाचार को कायम करने में मदद की, जैसे की गश्ती दलों का आमने सामने कवायद करना, अपनी-अपनी छावनियों में लौट जाने की बैनर के माध्यम से घोषणा करना और सीमा पर तैनात अफसरों की निर्धारित जगहों पर आपस में मीटिंग रख कर सामान्य परिस्थिति बनाए रखना. आमने-सामने आने के बहुत से मौकों पर इस प्रक्रिया का पालन किया गया है और दोनों पक्ष की सेना के गश्ती दल अपनी-अपनी छावनियों में वापस लौट गए हैं. आपस में मार पीट की कुछ छिटपुट घटनाएं भी हुई हैं लेकिन ऐसे मामले में सीमा पर तैनात अधिकारियों की बैठकों में चर्चा द्वारा सुलह कर ली जाती है. यहां यह कहना आवश्यक है कि सेना के जवान हमेशा अपने साथ हथियार ले कर चलते हैं, यह अलग बात है कि उन्हें सुरक्षा के लिए रखा जाता है और सेना की निर्धारित कवायद भी की जाती है.
पढ़ें :- भारत-चीन के बीच आज भी जारी रहेगी लेफ्टिनेंट जनरल स्तर की वार्ता
पिछले आठ साल में शिष्टाचार के नियमों का कई बार खुला भंग भी हुआ है. ऐसा राकी नाला, चुमार, पैंगोंग त्सो, देमचोक और डोकलम में हुआ जब चीनी फ़ौज ने समझौतों के बावजूद पीछे हटने से इनकार कर दिया और लम्बे समय तक तनाव का माहौल बना रहा.
यहां शिष्टाचार कमजोर होता दिखाई दिया
पूर्वी लद्दाख के पैंगोंग त्सो, गलवान घटी और हॉट स्प्रिंग्स-गोग्रा में हुई हाल की घटनाओं ने शिष्टाचार और आपसी विश्वास बनाने की प्रक्रिया को लगभग समाप्त कर दिया है. पहले पैंगोंग त्सो और फिर 15-16 जून को गलवान में चीनी फ़ौज ने बर्बरता और क्रूरता का प्रदर्शन किया गया. इस दौरान भारतीय सैनिकों से हाथापाई हुई, उन्हें कील लगी लकड़ी और नुकीली तार से लिपटी छड़ों से मार-मार कर लहुलूहान कर दिया, जिसने तमाम शिष्टाचार की धज्जियां उड़ती दिखाई दी. उनके पास इस प्रकार के जंगली हथियार थे, यह साबित करता है कि यह हमला पूर्व नियोजित था. चीनी बर्बर हिंसा में गलवान घाटी में 15 जून 2020 के दिन भारतीय सेना के 20 वीर शहीद हो गए.
अब समय आ गया है नियंत्रण रेखा के प्रशासन पर पुनर्विचार किया जाए. 1988 और 2005 के बीच हुई संयुक्त कार्य दल की 15 बैठकों और उसके बाद विशेष प्रतिनिधियों की 22 बैठकों के बावजूद नियंत्रण रेखा को परिभाषित करने को लेकर कोई प्रगति नहीं हुई है. ऐसा प्रतीत होता है कि चीन इस बारे में आगे कुछ करना नहीं चाहता ताकि उसका भारत पर दबाव बना रहे. नियंत्रण रेखा पर चीन का रवैया अविश्वासपूर्ण रहा है और उसने निरंतर अतिरिक्त क्षेत्रों पर अपना कब्जा करने की कोशिश की है और एक बार कब्जा करने पर उसने वह जगह छोड़ी नहीं है. ऐसा करने में वह बल प्रयोग करने से झिझका नहीं है. चीन पर कम ही विश्वास किया जा सकता है.
पढ़ें :- सीमा विवाद के हल के लिए भारत को अक्साई चिन की जिद छोड़नी होगी : सुधीन्द्र कुलकर्णी
तत्काल उपस्थित खतरे से सैनिकों को अपना और अपनी फ़ौज की रक्षा करने का अधिकार है, इस बात को समझना चाहिए. इसे निजी और अपनी सैनिक टुकड़ी की आत्मरक्षा का अधिकार कहा जाता है, जो उसे अपनी रक्षा के लिए शक्ति इस्तेमाल करने का अबाधित अधिकार देता है. चीन से अपरिभाषित खतरे के मद्दे नज़र भारतीय सेना के जवानों को अपनी सुरक्षा के लिए दुश्मनों का मुकाबला करने के नियमों में परिवर्तन लाने की जरूरत है जिससे वह अपनी और अपनी सैन्य टुकड़ी की सुरक्षा के लिए उचित कार्रवाई कर सके और जरूरत पड़ने पर हथियार का इस्तेमाल कर सके.
पूर्व कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल राकेश शर्मा ने कहा कि देश के लिए सेना के हर एक जवान की जान बेशकीमती है. कूटनीतिक शिष्टाचार और विश्वास बनाने के राजनयिक प्रयासों की बेड़ियों में बांध कर देश अपने जवानों को सीमा की सुरक्षा के लिए नहीं भेज सकता, इसलिए कूटनीतिक शिष्टाचार और विश्वास बनाने के प्रयासों के बारे में बाद में बहस हो सकती है. सीमा पर सुरक्षात्मक कार्रवाई करने के नए नियम जल्दी से जल्दी लागू किए जाने चाहिए.