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सरकार की छवि तभी सुधरेगी जब किसान आंदोलन खत्म होगा

केंद्र द्वारा पारित किए गए तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसान आंदोलनरत हैं. किसानों की मांग है कि कानूनों को वापस लिया जाए. इसको लेकर सरकार और किसानों के बीच कई दौर की वार्ताएं भी हुईं. सरकार और किसानों के बीच गतिरोध सरकार की छवि को प्रभावित कर रहा है. पढ़ें विस्तार से...

farmer protest
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Published : Feb 6, 2021, 8:18 PM IST

हैदराबाद : कृषि कानूनों पर गतिरोध का अंत सिर्फ सरकार की छवि को प्रभावित करेगा. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों द्वारा किए गए जा रहे आंदोलन को अस्तित्व की लड़ाई का बेहतरीन उदाहरण माना जा सकता है. आंदोलनकारी किसानों का मानना है कि आत्मनिर्भर भारत के नाम पर केंद्र द्वारा पारित किए गए कृषि कानूनों से वे अपनी आजीविका नहीं चला पाएंगे.

किसानों और सरकार के बीच 11वें दौर की वार्ता हुई. हालांकि इन वार्ताओं में कोई भी रास्ता नहीं निकला. किसानों ने उपद्रवी, आतंकवादी और खालिस्तानी कहे जाने के बाद भी कोरोना महामारी के बीच, कड़कड़ाती सर्दी में आंदोलन को जारी रखा है.

इसके बाद किसानों ने गणतंत्र दिवस पर किसान ट्रैक्टर परेड निकाली, जिसमें हिंसा हुई, प्रदर्शनकारियों ने बैरिकेड्स तोड़ दिए और पुलिसकर्मियों के साथ झड़प भी हुई. इसके चलते दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों में इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई, ट्रेनों का संचालन भी रोक दिया गया. इसी के साथ कई प्रदर्शनकारियों पर मामले भी दर्ज हुए और विरोध कर रहे किसानों को दी जा रही स्वच्छता और पानी की सुविधा रोक दी गई.

क्या आधिकारिक तौर पर इस बात की जानकारी नहीं है कि शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार संविधान द्वारा दिया गया है? कृषि कानूनों को पारित करते समय यह दावा किया गया था कि यह किसानों के हित में है, बावजूद इसके किसान इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं. केंद्र सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि वो नए कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक लागू होने से रोक सकती है.

कानून में संशोधन का आश्वासन
सरकार ने भरोसा दिलाया कि वह कानून में संशोधन करने के लिए तैयार है, लेकिन इसे वापस लेना संभव नहीं है. किसान एमएसपी के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे हैं, जिस पर सरकार उन्हें केवल लिखित आश्वासन देने के लिए तैयार है.

इतिहास पर नजर डालें तो इससे पहले भी वर्तमान किसान आंदोलन की तरह दो आंदोलन हो चुके हैं. पहला, पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन, जो 1907 में शहीद स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह के नेतृत्व में ब्रिटिश हुकूमत के कृषि कानूनों के खिलाफ किया गया था.

बोट क्लब आंदोलन
इसके लगभग आठ दशक बाद, बोट क्लब आंदोलन हुआ. किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन ने अपनी मांगों को लेकर दिल्ली में बोट क्लब पर रैली का अयोजन किया था. तत्कालीन राजीव गांधी शासन ने किसानों के सामने अपने घुटने टेक दिए थे.

वर्तमान आंदोलन में, किसानों द्वारा की जा रही मांगों में ईमानदारी है, इसलिए आंदोलन कर रहे किसानों ने खराब मौसम के चलते हो रही मौत के बाद भी हार नहीं मानी है और आंदोलन अनवरत जारी रखा है.

पढ़ें :- 73वां दिन : शांतिपूर्ण ढंग से खत्म हुआ किसानों का चक्का जाम

किसान अपने खिलाफ की जा रही कार्रवाई के बावजूद सिर्फ कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं. वर्ष 2014 में एनडीए सरकार ने डॉ. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया था. हालांकि, वह वादे से पीछे हट गए, लेकिन इन विवादास्पद कानूनों को पारित कराते वक्त दावा किया कि इससे किसानों की आय को दोगुनी हो जाएगी.

हालांकि, कृषि राज्य का विषय है, लेकिन केंद्र ने नए कानूनों को पारित करने से पहले राज्यों से चर्चा भी नहीं की थी. किसानों की आजीविका से जुड़े कानूनों को लागू करने से पहले केंद्र ने किसान यूनियन के साथ बातचीत करना भी उचित नहीं समझा.

सरकार ने जानबूझकर या अनजाने में अधिकारियों द्वारा बनाए गए कानूनों को मंजूरी दे दी. किसान आंदोलन के बावजूद सरकार इन्हें वापस लेने से इनकार कर रही है.

कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक लागू होने से रोकने की बजाय सरकार इन्हें वापस क्यों नहीं ले लेती? किसानों के इस आंदोलन ने एक बार फिर बता दिया कि भारत में विपक्ष कितना कमजोर है.

एनजी रंगा जैसे मजबूत नेताओं की अनुपस्थिति, जो किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध थे, कृषक समुदाय का वर्तमान पूर्वानुमान पर आधारित है.

इन सारी अनिश्चितताओं के बीच यह सवाल बना हुआ है कि गतिरोध कब समाप्त होगा?

हैदराबाद : कृषि कानूनों पर गतिरोध का अंत सिर्फ सरकार की छवि को प्रभावित करेगा. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसानों द्वारा किए गए जा रहे आंदोलन को अस्तित्व की लड़ाई का बेहतरीन उदाहरण माना जा सकता है. आंदोलनकारी किसानों का मानना है कि आत्मनिर्भर भारत के नाम पर केंद्र द्वारा पारित किए गए कृषि कानूनों से वे अपनी आजीविका नहीं चला पाएंगे.

किसानों और सरकार के बीच 11वें दौर की वार्ता हुई. हालांकि इन वार्ताओं में कोई भी रास्ता नहीं निकला. किसानों ने उपद्रवी, आतंकवादी और खालिस्तानी कहे जाने के बाद भी कोरोना महामारी के बीच, कड़कड़ाती सर्दी में आंदोलन को जारी रखा है.

इसके बाद किसानों ने गणतंत्र दिवस पर किसान ट्रैक्टर परेड निकाली, जिसमें हिंसा हुई, प्रदर्शनकारियों ने बैरिकेड्स तोड़ दिए और पुलिसकर्मियों के साथ झड़प भी हुई. इसके चलते दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों में इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई, ट्रेनों का संचालन भी रोक दिया गया. इसी के साथ कई प्रदर्शनकारियों पर मामले भी दर्ज हुए और विरोध कर रहे किसानों को दी जा रही स्वच्छता और पानी की सुविधा रोक दी गई.

क्या आधिकारिक तौर पर इस बात की जानकारी नहीं है कि शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार संविधान द्वारा दिया गया है? कृषि कानूनों को पारित करते समय यह दावा किया गया था कि यह किसानों के हित में है, बावजूद इसके किसान इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं. केंद्र सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि वो नए कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक लागू होने से रोक सकती है.

कानून में संशोधन का आश्वासन
सरकार ने भरोसा दिलाया कि वह कानून में संशोधन करने के लिए तैयार है, लेकिन इसे वापस लेना संभव नहीं है. किसान एमएसपी के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे हैं, जिस पर सरकार उन्हें केवल लिखित आश्वासन देने के लिए तैयार है.

इतिहास पर नजर डालें तो इससे पहले भी वर्तमान किसान आंदोलन की तरह दो आंदोलन हो चुके हैं. पहला, पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन, जो 1907 में शहीद स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह के नेतृत्व में ब्रिटिश हुकूमत के कृषि कानूनों के खिलाफ किया गया था.

बोट क्लब आंदोलन
इसके लगभग आठ दशक बाद, बोट क्लब आंदोलन हुआ. किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन ने अपनी मांगों को लेकर दिल्ली में बोट क्लब पर रैली का अयोजन किया था. तत्कालीन राजीव गांधी शासन ने किसानों के सामने अपने घुटने टेक दिए थे.

वर्तमान आंदोलन में, किसानों द्वारा की जा रही मांगों में ईमानदारी है, इसलिए आंदोलन कर रहे किसानों ने खराब मौसम के चलते हो रही मौत के बाद भी हार नहीं मानी है और आंदोलन अनवरत जारी रखा है.

पढ़ें :- 73वां दिन : शांतिपूर्ण ढंग से खत्म हुआ किसानों का चक्का जाम

किसान अपने खिलाफ की जा रही कार्रवाई के बावजूद सिर्फ कानूनों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं. वर्ष 2014 में एनडीए सरकार ने डॉ. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया था. हालांकि, वह वादे से पीछे हट गए, लेकिन इन विवादास्पद कानूनों को पारित कराते वक्त दावा किया कि इससे किसानों की आय को दोगुनी हो जाएगी.

हालांकि, कृषि राज्य का विषय है, लेकिन केंद्र ने नए कानूनों को पारित करने से पहले राज्यों से चर्चा भी नहीं की थी. किसानों की आजीविका से जुड़े कानूनों को लागू करने से पहले केंद्र ने किसान यूनियन के साथ बातचीत करना भी उचित नहीं समझा.

सरकार ने जानबूझकर या अनजाने में अधिकारियों द्वारा बनाए गए कानूनों को मंजूरी दे दी. किसान आंदोलन के बावजूद सरकार इन्हें वापस लेने से इनकार कर रही है.

कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक लागू होने से रोकने की बजाय सरकार इन्हें वापस क्यों नहीं ले लेती? किसानों के इस आंदोलन ने एक बार फिर बता दिया कि भारत में विपक्ष कितना कमजोर है.

एनजी रंगा जैसे मजबूत नेताओं की अनुपस्थिति, जो किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध थे, कृषक समुदाय का वर्तमान पूर्वानुमान पर आधारित है.

इन सारी अनिश्चितताओं के बीच यह सवाल बना हुआ है कि गतिरोध कब समाप्त होगा?

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