17 दिसंबर को, पेशावर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वकार अहमद सेठ की अध्यक्षता वाली तीन जजों की विशेष कोर्ट ने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ को मौत की सजा सुनाई. कोर्ट ने मुशर्रफ को देशद्रोह और नवंबर 2007 में देश में अवैध तरीके से आपातकाल लगाने का दोषी पाया.
दो दिन बाद जारी कोर्ट के विस्तृत फैसले में जजों ने पाकिस्तानी सेना को भी आड़े हाथों लिया. जस्टिस सेठ ने अपने फैसले में लिखा कि. 'ये मानना अविश्वसनीय और अकल्पनीय है कि इतने बड़े स्तर पर इस तरह का काम कोई व्यक्ति अकेले अंजाम दे सकता है. उस समय की कोर कमांडर समिति के साथ साथ जो भी व्यक्ति आरोपी की सुरक्षा और साथ में था, वो इन सभी आरोपों के लिये दोषी है.'
हांलाकि, मुशर्रफ 2016 से देश के बाहर शरण लिये हुए हैं, और ऐसे में यह नही लगता कि उन्हें फांसी के फंदे का सामना करना पड़ेगा. लेकिन इसके बावजूद इस फैसले का पाकिस्तान में सरकार और सेना के रिश्तों पर दूरगामी असर हो सकता हैं. मैं यहां 'हो सकता है' का प्रयोग इसलिये कर रहा हूं, क्योंकि अब पाकिस्तान के राजनेताओं पर यह निर्भर करता है कि, क्या वो इस मौके का इस्तेमाल, पाकिस्तान की राजनीति को सेना के जबरदस्त दखल से दूर रखने के लिये करते हैं?
विशेष अदालत ने रास्ता दिखा दिया है. इससे पहले पाकिस्तान की अदालतों पर, 'जरूरत के सिद्धांत' का सहारा लेकर पाकिस्तान में सैन्य विद्रोह और सेना के सत्ता कब्जाने का साथ देने का आरोप लगता रहा है. ये सिद्धांत कहता है कि कोई गैर संवैधानिक संस्थान, लोगों के भले के लिये सत्ता पर काबिज हो सकती है. 1977 में तत्तकालीन प्रधानमंत्री, जुल्फिकार अली भुट्टो को, तबके सेना प्रमुख जिया उल्ल हक ने सैन्य विद्रोह के जरिये सत्ता से बेदखल कर दिया था. इस तख्ता पलट को तबके सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया था. इसी तरह मुशर्रफ द्वारा नावज शरीफ के तख्ता पलट को भी सुप्रीम कोर्ट ने सहीं ठहराया था.
अब न्यायपालिका अपना बल लगा रही है. पिछले महीने ही, सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा आर्मी चीफ जनरल बाजवा को प्रधानमंत्री इमनरान खान द्वारा दिये गये तीन साल के एक्सटेंशन पर भी रोक लगा दी. इन दोनों फैसलों से कहीं न कहीं अदालत, पाकिस्तान की सेना को साफ संदेश देना चाहती है कि वो कानून से ऊपर नही है.
जाहिर है, यह बात पाकिस्तानी सेना को गंवारा नहीं होगी. हुसैन हक्कानी ने अपनी किताब, पाकिस्तान: बिटवीन मॉस्क एंड मिलिट्री में, प्रोफेसर अकील शाह के बारे में लिखा है. प्रोफेसर शाह ने 2007 से 2013 के बीच करीब 100 सैन्य अधिकारियों का इंटरव्यू किया था. इनमें से तीन चौथाई अधिकारियों ने नाजुक हालातों में तख्ता पलट को सत्ता के हस्तांतरण का सही तरीका माना. इनका ये भी मानना था कि आम नेता राष्ट्रीय सुरक्षा को संभालने के लिये नाकाफी हैं.
पाकिस्तानी सेना, देश की राष्ट्रीय नीतियों में अपने वर्चस्व को कम होते नहीं देख सकती है, और इसलिये इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशन के महानिदेशक, मुशर्रफ की सजा के खिलाफ बोलने वाले सबसे पहले व्यक्तियों में से एक थे. एक प्रेस रिलीज जारी कर आईएसपीआर ने कहा कि, 'सेना के सभी वर्ग इस फैसले से दुखी हैं, और ऐसा लगता है कि इस मामले में पूरी न्यायिक प्रक्रिया का पालन नही हुआ है.' ये बयान अपने आप में चौकाने वाला है और ऐसा लगता है कि, सेना में किसी बात पर अगर नाखुशी है, तो यह न्यायपालिका के फैसलों पर ऊंगली उठाने के लिये काफी हैं.
दुर्भाग्यवश, पाकिस्तान के राजनेताओँ ने इस मौके का फायदा उठाकर सेना के उपर अपना दबाव बढाने का काम नही किया है. आईएसपीआर के बयान के बाद, देश के अटॉर्नी जनरल ने एक संवाददाता सम्मेलन बुलाकर कहा कि 'मुशर्रफ के मामले में संविधान के आर्टिकल 10-A के अंतर्गत प्रावधानों की पूर्ति नही की गई और इसलिये ये गैरकानूनी है. ये जरूरी है कि अब सही केस चले.' इस बात से पाकिस्तानी सरकार पर वहां की सेना का दबाव किस हद तक है, यह साफ हो जाता है.
ये तय है कि इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी. ये देखना दिलचस्प होगा कि पाकिस्तान के राजनेता इसपर किस तरह से प्रतिक्रिया देते हैं. ऐसा नहीं लगता कि पाकिस्तान की राजनीति में सेना का दखल रातों रात खत्म हो जायेगा, लेकिन इस फैसले को पाकिस्तान में सेना और राजनेताओं के संबंधों में बदलाव और सुधार लाने की तरफ एक कदम की तरह देखा जा सकता है. हांलाकि गेंद अब इमरान खान के पाले में है.