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हिरासत में बढ़े मौत के मामले, जनता का पुलिस से उठ रहा विश्वास - यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह

देश में पुलिस हिरासत में मौत के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. इसके बाद सवाल उठता है कि जिस पुलिस बल को जनता की सुरक्षा के लिए जवाबदेह होना चाहिए, लेकिन उसी पुलिस का रवैया आज आम जनता के लिए बदल गया है. इसके कारण लोगों में पुलिस के प्रति विश्वास में कमी आ रही है. सवाल उठता है कि पुलिस से आम नागरिकों और अपराधियों में अंतर करने में चूक हो रही है या लापरवाही से ऐसी घटनाएं हो रही हैं. पढ़ें विशेष रिपोर्ट...

हिरासत में मौत का घिनौना चेहरा
हिरासत में मौत का घिनौना चेहरा
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Published : Jul 10, 2020, 7:59 PM IST

हैदराबाद : हमारे देश में करीब बीस लाख से अधिक पुलिस आंतरिक सुरक्षा की ड्यूटी में तैनात हैं. ब्रिटिश शासन के दौरान पुलिस का काम केवल अपने हुक्मरानों के हितों की रक्षा करना था लेकिन आजादी के बाद जनता की रक्षा पुलिस का पहल कर्तव्य बन गया. कई बार राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने आदेश दिया है कि पुलिस बल को जनता की सुरक्षा के लिए जवाबदेह होना चाहिए, कानून का शासन लागू करना चाहिए और समाज की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है?

कई बार सुप्रीम कोर्ट ने चिंता व्यक्त की है कि पुलिस प्रणाली संगठित अपराधियों का एक समूह बन गई है. जनता के प्रति पुलिस का रवैया खराब होता जा रहा है. बेगुनाहों की जान लेने और यातना देने के नए नए तरीके निकाले जा रहे हैं. हाल ही में तमिलनाडु के तूतिकोरन जिले में पिता-पुत्र की मौत की घटना इसका ताजा उदाहरण है.

पुलिस की क्रूरता ने दो लोगों की जान ली
कोरोना महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए सरकार ने लॉकडाउन का फैसला लिया. महाराष्ट्र और तमिलनाडु में कोरोना के बढ़ते खतरे को देखते हुए इसका सख्ती से पालन कराया जा रहा है. तमिलनाडु में पुलिस की सख्ती इस हद तक बढ़ गई कि दो लोगों की जान ले बैठी. तमिलनाडु के संथाकुलम में शाम साढ़े सात बजे के बाद मोबाइल की दुकान खुली रखने पर 60 वर्षीय जयराज और उनके बेटे बेनिक्स के साथ पुलिस ने शर्मिंदा कर देने वाली हरकत की. संथाकुलम पुलिस स्टेशन में उन्हें रखा गया. उनके साथ मारपीट और अमानवीय व्यवहार किया गया. 22 तारीख को जयराज को सीने में दर्द हुआ और उन्हें कोविलपट्टी अस्पताल में भर्ती कराया गया. जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. अगले दिन बेटे की भी उसी अस्पताल में मौत हो गई.

जयराज और फीनिक्स की हिरासत में मौत के लिए जिम्मेदार पुलिस पर क्रूरता का आरोप लगने के बाद सोशल मीडिया पर जोर-शोर से इस मामले को उठाया गया, जिसने नगरपालिका प्रशासन और न्यायपालिका को हिलाकर रख दिया. इस प्रक्रिया में न्यायिक मजिस्ट्रेट की जांच ने पुलिस की अमानवीय हरकत को जनता के सामने लाकर रख दिया.

कोविलपट्टी के न्यायिक मजिस्ट्रेट एमएस भारतीदासन की रिपोर्ट के अनुसार - पुलिस स्टेशन में सीसीटीवी कैमरा ऑटो-डिलीट मोड पर डालकर सेट किया गया था. प्रत्येक दिन के अंत में इसकी रिकॉर्डिंग अपने आप हट जाती थी. पुलिस ने अपने अपराध करने के कोई सबूत न छोड़ने की व्यवस्था की हुई थी. समिति ने टिप्पणी की कि कांस्टेबल से लेकर उच्च अधिकारी तक ने जांच समिति के साथ दुर्व्यवहार किया. एक कांस्टेबल ने यह भी चुनौती दी कि आप कुछ नहीं कर सकते. ये दिखाता है कि कानून के रक्षक ही कानून की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.

महिला कांस्टेबल पिता-पुत्र पर हुए अत्याचार की गवाही देते हुए काफी डरी हुई थी. डरते हुए उसने बयान दिया कि उस रात पिता-पुत्र की जोड़ी पर पुलिस ने कैसे अत्याचार किये. पुलिस ने एक साथ घंटों तक बारी-बारी से उन्हें तब तक पीटा जबतक वे लहुलूहान नहीं हो गए. जेल की चारदीवारी में फर्श पर हर जगह खून के धब्बे थे.

अपराधियों के हाथों से निर्दोष लोगों को बचाने के लिए पुलिस को सौंपी गई शक्तियों का दुरुपयोग किया जा रहा है और दुर्भाग्य से असहाय नागरिकों पर ही पुलिस बल का इस्तेमाल किया जा रहा है. पुलिस थानों में मौलिक अधिकारों का कोई अर्थ नहीं है. स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत के रूप में उभरने के सत्तर साल बाद भी ये अत्याचार देश की प्रतिष्ठा पर कुठाराघात हैं.

तत्काल सुधार की जरूरत है

अमेरिका में हाल ही में अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत की खबर ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया. पूरे अमेरिका और कई देशों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए और पुलिस अत्याचारों की निंदा की गई. अब वहां की सरकार पुलिस सुधारों पर काम कर रही है. मिनियापोलिस गवर्निंग बॉडी ने शहर के पुलिस विभाग को खत्म करने का फैसला किया है. यूक्रेन और जॉर्जिया ने माना की वर्तमान पुलिस आउट-डेटेड है. भारत में दशकों से पुलिस सुधारों के प्रस्ताव मजाक बनकर कागजों तक ही सीमित हैं.

भारत उन 126 देशों की सूची में 68 वें स्थान पर है जो कानून के शासन को लागू करते हैं. आठ मानकों के आधार पर भारत कानून और व्यवस्था के रखरखाव में 111वें स्थान पर है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में हर दिन औसतन 15 मामले हिरासत में अत्याचार के दर्ज किए जाते हैं और उनमें से नौ लोग अपनी जान गंवा रहे हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि ज्यादातर पुलिस हिरासत में हुई मौत प्रकाश में ही नहीं आ पाते.

रिपोर्ट कहती है कि सब कुछ आकस्मिक और स्वाभाविक रूप से होता है और तथ्य गहराई में छिपे होते हैं. यद्यपि कुछ अधिकारियों को हिरासत में हुई मौतों के लिए जिम्मेदार बनाया जाता है लेकिन अच्छे के लिए संगठनात्मक परिवर्तन काफी मुश्किल है. एक व्यवस्थित और सख्त सुधार की आवश्यकता है.

कोई भी कानून से ऊपर नहीं है

सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार स्पष्ट किया है कि संविधान सबसे ऊपर है. बुल्गारिया के प्रधानमंत्री जब वह चर्च गए थे तब मास्क न पहनने पर देश के स्वास्थ्य मंत्रालय ने उन पर 300 ल्यूज यानि कि 13,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया था. भारत में 2005 और 2015 के बीच अपराध दर में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन अपराधियों से निपटने और सजा देने में कोई सुधार नहीं हुआ है.

यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि यहां कोई कानून नहीं है...राजनीतिक शासकों का कानून भी प्रभावी है. जहां पुलिस सत्ता में बैठे प्रभावशाली लोगों को खुश करने के लिए कुछ भी कर सकती है. ऐसे में हम उनसे नैतिकता और सार्वजनिक सुरक्षा की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

जहां पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बेहतर प्रोफेशनलिज्म, समर्पण, चुनौतियों का सामना करने की ताकत, उन्नत प्रशिक्षण के आधार पर नए प्रकार के पुलिस बल के उदय की बात की थी, वहीं वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी ने 'स्मार्ट' पुलिस की आवश्यकता पर बल दिया है. पुलिस की जवाबदेही तय किये बिना नागरिक सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती.

अगर हम पुलिस की बढ़ती निरंकुशता को नजरअंदाज करते रहे तो लोकतांत्रिक प्रणाली की नींव हिल जाएगी. जब तक संवैधानिक मूल्यों का मखौल उड़ाया जाता रहेगा तब तक निर्दोष और मासूमों पर अत्याचार होते रहेंगे.

हैदराबाद : हमारे देश में करीब बीस लाख से अधिक पुलिस आंतरिक सुरक्षा की ड्यूटी में तैनात हैं. ब्रिटिश शासन के दौरान पुलिस का काम केवल अपने हुक्मरानों के हितों की रक्षा करना था लेकिन आजादी के बाद जनता की रक्षा पुलिस का पहल कर्तव्य बन गया. कई बार राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने आदेश दिया है कि पुलिस बल को जनता की सुरक्षा के लिए जवाबदेह होना चाहिए, कानून का शासन लागू करना चाहिए और समाज की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है?

कई बार सुप्रीम कोर्ट ने चिंता व्यक्त की है कि पुलिस प्रणाली संगठित अपराधियों का एक समूह बन गई है. जनता के प्रति पुलिस का रवैया खराब होता जा रहा है. बेगुनाहों की जान लेने और यातना देने के नए नए तरीके निकाले जा रहे हैं. हाल ही में तमिलनाडु के तूतिकोरन जिले में पिता-पुत्र की मौत की घटना इसका ताजा उदाहरण है.

पुलिस की क्रूरता ने दो लोगों की जान ली
कोरोना महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए सरकार ने लॉकडाउन का फैसला लिया. महाराष्ट्र और तमिलनाडु में कोरोना के बढ़ते खतरे को देखते हुए इसका सख्ती से पालन कराया जा रहा है. तमिलनाडु में पुलिस की सख्ती इस हद तक बढ़ गई कि दो लोगों की जान ले बैठी. तमिलनाडु के संथाकुलम में शाम साढ़े सात बजे के बाद मोबाइल की दुकान खुली रखने पर 60 वर्षीय जयराज और उनके बेटे बेनिक्स के साथ पुलिस ने शर्मिंदा कर देने वाली हरकत की. संथाकुलम पुलिस स्टेशन में उन्हें रखा गया. उनके साथ मारपीट और अमानवीय व्यवहार किया गया. 22 तारीख को जयराज को सीने में दर्द हुआ और उन्हें कोविलपट्टी अस्पताल में भर्ती कराया गया. जहां डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. अगले दिन बेटे की भी उसी अस्पताल में मौत हो गई.

जयराज और फीनिक्स की हिरासत में मौत के लिए जिम्मेदार पुलिस पर क्रूरता का आरोप लगने के बाद सोशल मीडिया पर जोर-शोर से इस मामले को उठाया गया, जिसने नगरपालिका प्रशासन और न्यायपालिका को हिलाकर रख दिया. इस प्रक्रिया में न्यायिक मजिस्ट्रेट की जांच ने पुलिस की अमानवीय हरकत को जनता के सामने लाकर रख दिया.

कोविलपट्टी के न्यायिक मजिस्ट्रेट एमएस भारतीदासन की रिपोर्ट के अनुसार - पुलिस स्टेशन में सीसीटीवी कैमरा ऑटो-डिलीट मोड पर डालकर सेट किया गया था. प्रत्येक दिन के अंत में इसकी रिकॉर्डिंग अपने आप हट जाती थी. पुलिस ने अपने अपराध करने के कोई सबूत न छोड़ने की व्यवस्था की हुई थी. समिति ने टिप्पणी की कि कांस्टेबल से लेकर उच्च अधिकारी तक ने जांच समिति के साथ दुर्व्यवहार किया. एक कांस्टेबल ने यह भी चुनौती दी कि आप कुछ नहीं कर सकते. ये दिखाता है कि कानून के रक्षक ही कानून की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.

महिला कांस्टेबल पिता-पुत्र पर हुए अत्याचार की गवाही देते हुए काफी डरी हुई थी. डरते हुए उसने बयान दिया कि उस रात पिता-पुत्र की जोड़ी पर पुलिस ने कैसे अत्याचार किये. पुलिस ने एक साथ घंटों तक बारी-बारी से उन्हें तब तक पीटा जबतक वे लहुलूहान नहीं हो गए. जेल की चारदीवारी में फर्श पर हर जगह खून के धब्बे थे.

अपराधियों के हाथों से निर्दोष लोगों को बचाने के लिए पुलिस को सौंपी गई शक्तियों का दुरुपयोग किया जा रहा है और दुर्भाग्य से असहाय नागरिकों पर ही पुलिस बल का इस्तेमाल किया जा रहा है. पुलिस थानों में मौलिक अधिकारों का कोई अर्थ नहीं है. स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत के रूप में उभरने के सत्तर साल बाद भी ये अत्याचार देश की प्रतिष्ठा पर कुठाराघात हैं.

तत्काल सुधार की जरूरत है

अमेरिका में हाल ही में अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत की खबर ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया. पूरे अमेरिका और कई देशों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए और पुलिस अत्याचारों की निंदा की गई. अब वहां की सरकार पुलिस सुधारों पर काम कर रही है. मिनियापोलिस गवर्निंग बॉडी ने शहर के पुलिस विभाग को खत्म करने का फैसला किया है. यूक्रेन और जॉर्जिया ने माना की वर्तमान पुलिस आउट-डेटेड है. भारत में दशकों से पुलिस सुधारों के प्रस्ताव मजाक बनकर कागजों तक ही सीमित हैं.

भारत उन 126 देशों की सूची में 68 वें स्थान पर है जो कानून के शासन को लागू करते हैं. आठ मानकों के आधार पर भारत कानून और व्यवस्था के रखरखाव में 111वें स्थान पर है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में हर दिन औसतन 15 मामले हिरासत में अत्याचार के दर्ज किए जाते हैं और उनमें से नौ लोग अपनी जान गंवा रहे हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि ज्यादातर पुलिस हिरासत में हुई मौत प्रकाश में ही नहीं आ पाते.

रिपोर्ट कहती है कि सब कुछ आकस्मिक और स्वाभाविक रूप से होता है और तथ्य गहराई में छिपे होते हैं. यद्यपि कुछ अधिकारियों को हिरासत में हुई मौतों के लिए जिम्मेदार बनाया जाता है लेकिन अच्छे के लिए संगठनात्मक परिवर्तन काफी मुश्किल है. एक व्यवस्थित और सख्त सुधार की आवश्यकता है.

कोई भी कानून से ऊपर नहीं है

सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार स्पष्ट किया है कि संविधान सबसे ऊपर है. बुल्गारिया के प्रधानमंत्री जब वह चर्च गए थे तब मास्क न पहनने पर देश के स्वास्थ्य मंत्रालय ने उन पर 300 ल्यूज यानि कि 13,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया था. भारत में 2005 और 2015 के बीच अपराध दर में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन अपराधियों से निपटने और सजा देने में कोई सुधार नहीं हुआ है.

यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि यहां कोई कानून नहीं है...राजनीतिक शासकों का कानून भी प्रभावी है. जहां पुलिस सत्ता में बैठे प्रभावशाली लोगों को खुश करने के लिए कुछ भी कर सकती है. ऐसे में हम उनसे नैतिकता और सार्वजनिक सुरक्षा की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

जहां पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बेहतर प्रोफेशनलिज्म, समर्पण, चुनौतियों का सामना करने की ताकत, उन्नत प्रशिक्षण के आधार पर नए प्रकार के पुलिस बल के उदय की बात की थी, वहीं वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी ने 'स्मार्ट' पुलिस की आवश्यकता पर बल दिया है. पुलिस की जवाबदेही तय किये बिना नागरिक सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती.

अगर हम पुलिस की बढ़ती निरंकुशता को नजरअंदाज करते रहे तो लोकतांत्रिक प्रणाली की नींव हिल जाएगी. जब तक संवैधानिक मूल्यों का मखौल उड़ाया जाता रहेगा तब तक निर्दोष और मासूमों पर अत्याचार होते रहेंगे.

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