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गांधी के विचारों से प्रेरित होकर चंबल के 652 डकैतों ने किया था सरेंडर

आजादी के आंदोलन के दौरान गांधीजी ने देश के अलग-अलग हिस्सों का दौरा किया था. जहां-जहां भी बापू जाते थे, वे वहां के लोगों पर अमिट छाप छोड़ जाते थे. वहां के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना घर कर जाती थी. ईटीवी भारत ऐसे ही जगहों से गांधी से जुड़ी कई यादें आपको प्रस्तुत कर रहा है. पेश है आज 26वीं कड़ी.

महात्मा गांधी की फाइल फोटो
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Published : Sep 10, 2019, 7:03 AM IST

Updated : Sep 30, 2019, 2:13 AM IST

मुरैना। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्य की त्रिशंकु सीमा से घिरा चंबल अंचल कभी बागियों की शरणस्थली के लिए जाना जाता था, जहां कुख्यात डकैतों का बोलबाला रहता था. उस दौर में जब भी कोई हथियार उठाता था तो अगली सुबह उसकी चंबल के बीहड़ों में ही होती थी क्योंकि तब डकैतों के लिए ये सबसे मुफीद जगह मानी जाती थी. उसी दौर में गांधीजी अहिंसा के अस्त्र से अंग्रेजों को धूल चटा रहे थे, जिसका इन डकैतों के मन पर गहरा असर पड़ा और सैकड़ों डकैत गांधीजी की विचारधारा से प्रभावित होकर शांति का रास्ता अख्तियार करने का मन बनाया.

जब चंबल का नाम सुन बड़े-बड़े सूरमा के हलक सूख जाते थे, तब बीहड़ में गोलियों की ठांय-ठांय और बगावत की उठती लपटों में इंसानियत जल रही थी, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियां और उस पर उगी कटीली झाड़ियों के बीच से निकलते रास्ते, जिनकी कोई मंजिल ही नहीं थी. तब एक विचारधारा ने इस खूनी रास्ते को खुशहाली की मंजिल दी, जिसने गोलियों की गूंज को शांत कर दिया, बदले की चिनगारी को बुझा दिया और दहशत के पर्याय रहे सैकड़ों डाकुओं को हथियार डालने के लिए मजबूर कर दिया. जिसे लोग महात्मा गांधी के नाम से जानते हैं. उन्हीं के विचारों को आत्मसात कर इन्होंने हिंसा का रास्ता हमेशा के लिए छोड़ दिया.

चंबल में गांधी के प्रभाव पर ईटीवी भारत की रिपोर्ट

बीहड़-बागी के लिए बदनाम चंबल में जब गोलियों की ठांय-ठांय से चीख-पुकार मच जाती थी, गमगीन सन्नाटा पसर जाता था, चंबल का नाम सुन लोग अंदर तक कांप जाते थे. तब गांधीवादी विचारक एसएन सुब्बाराव और जयप्रकाश नारायण के अलावा राम चरण मिश्रा ने 'चंबल की बंदूकें गांधीजी के चरणों में' नाम से एक मुहिम शुरू की. जिसके बाद 2 दिसंबर 1973 को एक विशाल जनसभा में नामी डकैतों सहित 400 से अधिक डाकुओं ने हथियार रख शांति-सद्भाव के रास्ते पर निकल पड़े, फिर यहीं से चंबल अंचल में शांति की नई सुबह हुई, जिसके बाद से इसके माथे पर लगा कलंक धीरे-धीरे धुलने लगा.

1973 में गांधीजी को बंदूकें समर्पित कर शांति के मार्ग पर चलने वाले 20 हजार के इनामी डकैत बहादुर सिंह कुशवाहा आज भी गांधी आश्रम में रहकर स्वदेशी अभियान को खाद-पानी दे रहे हैं और जैविक खेती के लिए केचुआ खाद बना रहे हैं और अब यही उनका रोजगार बन गया है, जिससे उनका व उनके परिवार का भी पोषण हो रहा है.

gandhi in chambal
गांधी के सामने समर्पण का प्रमाण

बगावत के अंगारों पर चलने वाले डाकुओं के हथियार डालने का सिलसिला चलता रहा और एक साल के अंदर ही ये संख्या 652 तक पहुंच गई. जौरा का खंडहर होता गांधी आश्रम और समर्पण के लिए आयोजित सभा स्थल का चबूतरा तारीख पर दर्ज किसी विरासत से कम नहीं है, जो आज भी दुर्दांत डकैत, बगावत और आतंक की आग को शांत करने की कहानी बयां कर रहा है. यही वजह है कि चंबल की धरती पर कदम रखे बिना गांधीजी के विचारों ने बदलाव की जो नींव रखी थी, उसने धीरे-धीरे बीहड़ के खौफ को खत्म कर दिया.

गांधीजी भले ही इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी दूरर्शिता और विचारधारा सदियों तक लोगों के दिलों में जिंदा रहेगी. गांधी दर्शन के जरिए पीढ़ियां इस विचार को आवाज देती रहेंगी. आज देश ही नहीं पूरी दुनिया गांधीजी के विचारों को आत्मसात कर रही है. इसी विचारधारा ने कितनों को हिंसा के दलदल से निकालकर शांति का मुकम्मल माहौल दिया.

मुरैना। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्य की त्रिशंकु सीमा से घिरा चंबल अंचल कभी बागियों की शरणस्थली के लिए जाना जाता था, जहां कुख्यात डकैतों का बोलबाला रहता था. उस दौर में जब भी कोई हथियार उठाता था तो अगली सुबह उसकी चंबल के बीहड़ों में ही होती थी क्योंकि तब डकैतों के लिए ये सबसे मुफीद जगह मानी जाती थी. उसी दौर में गांधीजी अहिंसा के अस्त्र से अंग्रेजों को धूल चटा रहे थे, जिसका इन डकैतों के मन पर गहरा असर पड़ा और सैकड़ों डकैत गांधीजी की विचारधारा से प्रभावित होकर शांति का रास्ता अख्तियार करने का मन बनाया.

जब चंबल का नाम सुन बड़े-बड़े सूरमा के हलक सूख जाते थे, तब बीहड़ में गोलियों की ठांय-ठांय और बगावत की उठती लपटों में इंसानियत जल रही थी, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियां और उस पर उगी कटीली झाड़ियों के बीच से निकलते रास्ते, जिनकी कोई मंजिल ही नहीं थी. तब एक विचारधारा ने इस खूनी रास्ते को खुशहाली की मंजिल दी, जिसने गोलियों की गूंज को शांत कर दिया, बदले की चिनगारी को बुझा दिया और दहशत के पर्याय रहे सैकड़ों डाकुओं को हथियार डालने के लिए मजबूर कर दिया. जिसे लोग महात्मा गांधी के नाम से जानते हैं. उन्हीं के विचारों को आत्मसात कर इन्होंने हिंसा का रास्ता हमेशा के लिए छोड़ दिया.

चंबल में गांधी के प्रभाव पर ईटीवी भारत की रिपोर्ट

बीहड़-बागी के लिए बदनाम चंबल में जब गोलियों की ठांय-ठांय से चीख-पुकार मच जाती थी, गमगीन सन्नाटा पसर जाता था, चंबल का नाम सुन लोग अंदर तक कांप जाते थे. तब गांधीवादी विचारक एसएन सुब्बाराव और जयप्रकाश नारायण के अलावा राम चरण मिश्रा ने 'चंबल की बंदूकें गांधीजी के चरणों में' नाम से एक मुहिम शुरू की. जिसके बाद 2 दिसंबर 1973 को एक विशाल जनसभा में नामी डकैतों सहित 400 से अधिक डाकुओं ने हथियार रख शांति-सद्भाव के रास्ते पर निकल पड़े, फिर यहीं से चंबल अंचल में शांति की नई सुबह हुई, जिसके बाद से इसके माथे पर लगा कलंक धीरे-धीरे धुलने लगा.

1973 में गांधीजी को बंदूकें समर्पित कर शांति के मार्ग पर चलने वाले 20 हजार के इनामी डकैत बहादुर सिंह कुशवाहा आज भी गांधी आश्रम में रहकर स्वदेशी अभियान को खाद-पानी दे रहे हैं और जैविक खेती के लिए केचुआ खाद बना रहे हैं और अब यही उनका रोजगार बन गया है, जिससे उनका व उनके परिवार का भी पोषण हो रहा है.

gandhi in chambal
गांधी के सामने समर्पण का प्रमाण

बगावत के अंगारों पर चलने वाले डाकुओं के हथियार डालने का सिलसिला चलता रहा और एक साल के अंदर ही ये संख्या 652 तक पहुंच गई. जौरा का खंडहर होता गांधी आश्रम और समर्पण के लिए आयोजित सभा स्थल का चबूतरा तारीख पर दर्ज किसी विरासत से कम नहीं है, जो आज भी दुर्दांत डकैत, बगावत और आतंक की आग को शांत करने की कहानी बयां कर रहा है. यही वजह है कि चंबल की धरती पर कदम रखे बिना गांधीजी के विचारों ने बदलाव की जो नींव रखी थी, उसने धीरे-धीरे बीहड़ के खौफ को खत्म कर दिया.

गांधीजी भले ही इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी दूरर्शिता और विचारधारा सदियों तक लोगों के दिलों में जिंदा रहेगी. गांधी दर्शन के जरिए पीढ़ियां इस विचार को आवाज देती रहेंगी. आज देश ही नहीं पूरी दुनिया गांधीजी के विचारों को आत्मसात कर रही है. इसी विचारधारा ने कितनों को हिंसा के दलदल से निकालकर शांति का मुकम्मल माहौल दिया.

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Last Updated : Sep 30, 2019, 2:13 AM IST
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