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कोरोना वायरस : क्या यह एक अलग दुनिया है...

किसी भी महामारी में सिर्फ मौत के आंकड़े डरावने नहीं होते. इसके बाद आने वाली भविष्य की चुनौतियां भी उतनी ही भयावह होती है. कोरोना के इस मौजूदा समय ने हमें दो चीजों का महत्व अच्छे से समझा दिया है. एक सामाजिक दूरी दूसरी आत्म-अलगाव. पढ़ें यह खास पेशकश...

coronavirus in world
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Published : Apr 3, 2020, 12:59 AM IST

Updated : Apr 4, 2020, 6:03 PM IST

हैदराबाद : एक रोमानियाई यहूदी प्रवासी जैकब बरिंसकु, न्यूयॉर्क शहर के लोअर ईस्ट साइड में रहता था. वह क्लीनिंग बिजनेस चलाने के साथ-साथ एक येदिश थिएटर से भी जुड़ा था. साल 1918 में स्पेनिश फ्लू के दौरान जैकब ने अपने साथी कलाकारों की काफी देखभाल की, जब तक कि वह खुद इस महामारी की चपेट में नहीं आया था. इस महामारी ने उस वक्त करीब पांच करोड़ लोगों को काल के गाल में समा दिया था.

वहीं दो दशक पहले, चीन के हांगकांग की घनी आबादी वाले ताइपिंग इलाके में बुबोनिक प्लेग की तीसरी महामारी ने काफी हाहाकार मचाया था. इस दौरान ब्रिटिश औपनिवेशिक ताकतों ने बीमार लोगों को उनके घरों से बाहर फेंक दिया था. इस हिंसक सांस्कृतिक तनाव का असर शहर के इतिहास पर काफी लंबे वक्त तक रहा. चीन के यून्नान में उत्पन्न यह बीमारी बाद में भारत में फैल गई, जिससे लाखों लोगों की मौत हो गई.

जीवाणु विज्ञान में रॉबर्ट कोच का योगदान
इससे दो दशक पहले, चिकित्सक और वैज्ञानिक रॉबर्ट कोच ने एंथ्रेक्स पैदा करने वाले जीवाणु की पहचान की. यह एक बायोमेडिकल सफलता थी, जिसने आधुनिक जीवाणु विज्ञान की शुरुआत की. उनकी इस सफलता से टीबी और हैजा पैदा करने वाले माइक्रोबियल एजेंटों की पहचान संभव हो पाई.

उनकी खोजों ने दुनियाभर में महामारी को धीमा करने और रोकने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बदलने में काफी मदद की. रॉबर्ट कोच के इस योगदान के लिए उन्हें साल 1905 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

एक राष्ट्रीय नेता द्वारा कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहना एक बार फिर इतिहास को याद दिलाता है. जब नेपोलियन ने सिफीलिस बीमारी को फ्रेंच रोग कहा था. वहीं फ्रांस के लोग इसे इटालियन रोग कहते थे, तो वहीं डच इसे स्पेनिश, रूस इसे पोलैंड और टर्की के लोग सिफीलिस को ईसाई बीमारी कहते थे.

अनिश्चितता महामारी की दूसरी पहचान है. 20वीं शताब्दी की शुरुआत में न तो जैकब बरिनेसकु को और न ही पिछले साल के अंत में हुबेई के एक युवा मरीज को मालूम पड़ा कि वह कैसे संक्रमित हुए और न उन्हें यह मालूम था कि इस बीमारी का इलाज क्या है. मौजूदा हालात में भी कोरोना वायरस को लेकर यही स्थिति बनी हुई है. इस महामारी को रोकने के लिए वैक्सीन कब तक तैयार होगी, यह कहना मुश्किल है.

अपनाएं 'हिकीकोमोरी'
किसी भी महामारी में सिर्फ मौत के आंकड़े डरावने नहीं होते. इसके बाद आने वाली भविष्य की चुनौतियां भी उतनी ही भयावह होती है. कोरोना के इस मौजूदा समय ने हमें दो चीजों का महत्व अच्छे से समझा दिया है. एक सामाजिक दूरी दूसरी आत्म-अलगाव.

आपको जानकर हैरानी होगी की एक जापानी बीमारी हिकीकोमोरी में भी इंसान खुद को सामाजिक रूप से अलगाव की स्थिति में रखकर बेडरूम तक सीमित कर लेता है. इसमें इंसान सिर्फ डीजिटल माध्यम के जरिए समाज से जुड़ा रहता है.

डीजिटल तकनीक एक मात्र सहारा
कोरोना के कारण जिस सामाजिक दूरी को हमें आज अपनाना पड़ रहा है, वह पहले के समय से काफी अलग है. यह बिल्कुल अलग अनुभव है पर उतना ही हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक भी. हिकीकोमोरी पीड़ितों की तरह आज हम लोग भी लोगों से भौतिक दूरी और सामाजिक मेलमिलाप को डीजिटल तकनीक के जरिए संतुलित कर रहे हैं.

हैदराबाद : एक रोमानियाई यहूदी प्रवासी जैकब बरिंसकु, न्यूयॉर्क शहर के लोअर ईस्ट साइड में रहता था. वह क्लीनिंग बिजनेस चलाने के साथ-साथ एक येदिश थिएटर से भी जुड़ा था. साल 1918 में स्पेनिश फ्लू के दौरान जैकब ने अपने साथी कलाकारों की काफी देखभाल की, जब तक कि वह खुद इस महामारी की चपेट में नहीं आया था. इस महामारी ने उस वक्त करीब पांच करोड़ लोगों को काल के गाल में समा दिया था.

वहीं दो दशक पहले, चीन के हांगकांग की घनी आबादी वाले ताइपिंग इलाके में बुबोनिक प्लेग की तीसरी महामारी ने काफी हाहाकार मचाया था. इस दौरान ब्रिटिश औपनिवेशिक ताकतों ने बीमार लोगों को उनके घरों से बाहर फेंक दिया था. इस हिंसक सांस्कृतिक तनाव का असर शहर के इतिहास पर काफी लंबे वक्त तक रहा. चीन के यून्नान में उत्पन्न यह बीमारी बाद में भारत में फैल गई, जिससे लाखों लोगों की मौत हो गई.

जीवाणु विज्ञान में रॉबर्ट कोच का योगदान
इससे दो दशक पहले, चिकित्सक और वैज्ञानिक रॉबर्ट कोच ने एंथ्रेक्स पैदा करने वाले जीवाणु की पहचान की. यह एक बायोमेडिकल सफलता थी, जिसने आधुनिक जीवाणु विज्ञान की शुरुआत की. उनकी इस सफलता से टीबी और हैजा पैदा करने वाले माइक्रोबियल एजेंटों की पहचान संभव हो पाई.

उनकी खोजों ने दुनियाभर में महामारी को धीमा करने और रोकने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बदलने में काफी मदद की. रॉबर्ट कोच के इस योगदान के लिए उन्हें साल 1905 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

एक राष्ट्रीय नेता द्वारा कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहना एक बार फिर इतिहास को याद दिलाता है. जब नेपोलियन ने सिफीलिस बीमारी को फ्रेंच रोग कहा था. वहीं फ्रांस के लोग इसे इटालियन रोग कहते थे, तो वहीं डच इसे स्पेनिश, रूस इसे पोलैंड और टर्की के लोग सिफीलिस को ईसाई बीमारी कहते थे.

अनिश्चितता महामारी की दूसरी पहचान है. 20वीं शताब्दी की शुरुआत में न तो जैकब बरिनेसकु को और न ही पिछले साल के अंत में हुबेई के एक युवा मरीज को मालूम पड़ा कि वह कैसे संक्रमित हुए और न उन्हें यह मालूम था कि इस बीमारी का इलाज क्या है. मौजूदा हालात में भी कोरोना वायरस को लेकर यही स्थिति बनी हुई है. इस महामारी को रोकने के लिए वैक्सीन कब तक तैयार होगी, यह कहना मुश्किल है.

अपनाएं 'हिकीकोमोरी'
किसी भी महामारी में सिर्फ मौत के आंकड़े डरावने नहीं होते. इसके बाद आने वाली भविष्य की चुनौतियां भी उतनी ही भयावह होती है. कोरोना के इस मौजूदा समय ने हमें दो चीजों का महत्व अच्छे से समझा दिया है. एक सामाजिक दूरी दूसरी आत्म-अलगाव.

आपको जानकर हैरानी होगी की एक जापानी बीमारी हिकीकोमोरी में भी इंसान खुद को सामाजिक रूप से अलगाव की स्थिति में रखकर बेडरूम तक सीमित कर लेता है. इसमें इंसान सिर्फ डीजिटल माध्यम के जरिए समाज से जुड़ा रहता है.

डीजिटल तकनीक एक मात्र सहारा
कोरोना के कारण जिस सामाजिक दूरी को हमें आज अपनाना पड़ रहा है, वह पहले के समय से काफी अलग है. यह बिल्कुल अलग अनुभव है पर उतना ही हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक भी. हिकीकोमोरी पीड़ितों की तरह आज हम लोग भी लोगों से भौतिक दूरी और सामाजिक मेलमिलाप को डीजिटल तकनीक के जरिए संतुलित कर रहे हैं.

Last Updated : Apr 4, 2020, 6:03 PM IST
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