फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) इस संस्थान का नाम सुनते ही अपराधियों की नींदें उड़ जाती हैं. लेकिन ये संस्थान भारत में नहीं, अमरीका में है. हमारे देश में भी इसी तरह के नाम की एक ऐजेंसी है. लेकिन इन दोनों की समानताएं बस नाम पर ही खत्म हो जाती हैं. केंद्रीय जांच ब्यूरो या सीबीआई के नाम से जाने जाने वाली इस ऐजेंसी के बारे में ये आम धारणा है कि सत्ता में बैठे हुक्मरानों के सामने ये ऐजेंसी नतमस्तक रहती है. आरोप है कि सत्ता पक्ष इस संस्थान का इस्तेमाल विपक्ष में डर बैठाने के लिए करता है.
दरअसल, कई मायनों में सीबीआई की हालत महाभारत में तीरों की शैय्या पर लेटे भीष्म जैसी है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण ये संस्थान आज भी जीवित है. छह साल पहले गुवाहाटी हाई कोर्ट के एक फैसले ने सीबीआई को बंद होने की कगार पर ला दिया था. 6 नवंबर 2013 को गुवाहाटी हाई कोर्ट ने सीबीआई के गठन करने वाले प्रस्ताव को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया था. अगर कोई भी हाई कोर्ट किसी भी सरकारी संस्थान को असंवैधानिक घोषित करता है, तो ये आदेश सारे देश में लागू होता है.
गुवाहाटी हाई कोर्ट का फैसला केंद्र सरकार के लिए एक बड़ा झटका साबित हुआ, क्योंकि सरकार ने सीबीआई के हवाले हजारों केस दे रखे हैं. सरकार ने तुरंत पूर्व अटॉर्नी जनरल, गुलाम वाहनवति को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस, पी. सथासिवम के घर भेजा. छुट्टियां होने के कारण ये मुलाकात उनके घर पर ही हुई. मामले की गंभीरता को समझते हुए, मुख्य नयायाधीश ने सुनवाई अपने घर पर ही करते हुए हाई कोर्ट के फैसले पर स्टे दे दिया. इस बात को छह साल बीत गए हैं, और सीबीआई सुप्रीम कोर्ट के स्टे के कारण ही काम कर पा रही है.
हाई कोर्ट के इस फैसले से महीनों पहले सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की तुलना पिंजड़े में बंद तोते से की थी, लेकिन तब कोर्ट ने ये भी माना था कि कोई अन्य विकल्प ना होने तक संस्थान का काम करते रहना जरूरी है.
गुवाहाटी हाई कोर्ट ने सीबीआई पर ये फैसला नवेंद्र कुमार की याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया था. कुमार के खिलाफ सीबीआई कुछ मामलों के तहत जांच कर रही थी. लेकिन उन्होंने सीबीआई की संवैधानिकता पर ही अदालत में सवाल खड़ा कर दिया. उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि सीबीआई कोई संवैधानिक अंग नहीं है, बल्कि इसे सरकार के एक प्रस्ताव भर से बनाया गया है. उन्होंने तर्क दिया कि सीबीआई के पास गिरफ्तारी, छापा डालने और चार्जशीट दायर करने का अधिकार नहीं है.
हाल के लोकसभा चुनावों से पहले सार्वजनिक मंच पर सीबीआई के आला अधिकारी आपसी झगड़ों में उलझे, और जिस तरह कई राज्य सरकारों ने अपने यहां सीबीआई के दाखिले पर रोक लगाई, इससे ये साफ है कि इस संस्थान की बुनियाद काफी कमजोर है. अलोक वर्मा और राकेश अस्थाना, दोनों सीबीआई के दो वरिष्ठतम अधिकारी थे.
इन दोनों ने एक दूसरे पर जिस तरह भ्रष्टाचार के आरोप लगाए, उसके चलते सीबीआई की साख को काफी नुकसान हुआ था. कुछ अधिकारी रिश्वत लेते पकड़े गए थे, और इन अधिकारियों के खिलाफ जांच कर रही टीम का रातों-रात तबादला हो गया. इन सब घटनाओं ने सीबीआई की छवि धूमिल की. अपने प्रतिद्वदियों के खिलाफ सत्ता पक्ष द्वारा सीबीआई का इस्तेमाल एक अलिखित नियम सा बन गया है, इसके कारण बार-बार अदालतों को दखल देना पड़ता है.
यहां सीबीआई के इतिहास के बारे में बात करना भी जरूरी है. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटश राज ने एक अध्यादेश के जरिये स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट का गठन किया था. यही संस्थान 1946 में सीबीआई बन गई. 1946 में इस अध्यादेश को दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट (डीएसपीई) एक्ट से बदल दिया गया. शुरू में एसपीई की जांच का दायरा पानी पूर्ती विभाग में भ्रष्टाचार के मामलों तक ही सीमित था. बाद में इसके दायरों को बढ़ाकर इसमे सभी सरकारी विभाग, राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को शामिल कर दिया गया.
1963 में गृह मंत्रालय के एक प्रस्ताव से सीबीआई की रचना हुई. डीएसपीई एक्ट का सेक्शन छह कहता है कि, राज्यों में जांच करने के लिये राज्य सरकारों की मंजूरी जरूरी है. सीबीआई सीधे तौर पर केंद्र शासित प्रदेशों और केंद्र सरकार के विभागों की जांच कर सकती है. सीबीआई सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के आदेशों पर भी जांच कर सकती है.
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गुवाहाटी हाई कोर्ट ने 1963 के केंद्र सरकार के प्रस्ताव को असंवैधानिक करार दिया. इसके पीछे कारण था कि ये प्रस्ताव न केंद्रीय कानून और न ही राष्ट्रपति के आदेश से जारी हुआ था. हांलाकि अदालत ने 1946 के डीएसपीई एक्ट को अवैध नहीं ठहराया. कोर्ट ने कहा कि सीबीआई डीएसपीई एक्ट का हिस्सा नहीं है, इसलिए इसे इस एक्ट के तहत गठित पुलिस फोर्स नही माना जा सकता.
1963 के प्रस्ताव ने सीबीआई को अस्थाई तौर पर गठित किया था. इसमें कहा गया था कि कुछ शर्तों के साथ ये तब तक जारी रहेगा, जब तक कोई नया कानून नहीं बन जाता. 2017 में संसदीय समिति ने इस स्थिति को बदलने के लिए एक नए कानून बनाने की बात कही. केवल सीबीआई के पास आतंकवाद, माफिया और अंतर्राष्ट्रीय अपराधों से निपटने की क्षमता है. लेकिन डीएसपीई एक्ट में सीबीआई को बहुत कम ताकतें हैं.
संसदीय समिति ने सीबीआई को विशेष कानून लाकर स्वायत्त संस्थान बनाने की बात रखी थी. इसके जवाब में भारत सरकार के कार्मिक विभाग ने कहा कि इसके लिए संविधान में संशोधन करने की जरूरत होगी. और क्योंकि पुलिस और कानून व्यवस्था राज्यों का विषय है, केंद्र सरकार कानून पास नही कर सकती. ये कहा गया कि ऐसा कोई कानून संविधान के लिए खतरा हो सकता है. संसदीय समिति ने हांलाकि इस बात पर जोर दिया कि, उन्होंने पहले ही इस तरह के मसलों पर सफाई ले ली है और सीबीआई के लिये ऐसे कानून का बनना जरूरी है. समिति ने सीबीआई को एफबीआई की तर्ज पर अधिकार देने की भी वकालत की.
अगर सीबीआई को खास ताकतें दी गई तो, भारत के संघीय ढांचे पर खतरा हो सकता है. लेकिन इस एजेंसी को संवैधानिक शक्ल देने की भी जरूरत है. बिना संघीय ढांचे को हिलाए, सीबीआई को आतंकी और तकनीकी मामलों की जांच करने के लिए विशेष ताकत देने की जरूरत है. आतंकवाद, जासूसी, नशीली वस्तुओं और इंसानों की तस्करी, नकली करंसी, ये सभी देश को कमजोर करते हैं. अमरीका में इन सब अपराधों को संघीय अपराधों में गिना जाता है. इसलिए, एफबीआई किसी भी संघीय अपराध की जांच कर सकती है. बदलते हालातों में भारत को भी इस तरह से अपराधों को श्रेणियों में रखने की जरूरत है. ऐसा न होने के कारण सीबीआई इन मामलों की जांच स्वायत्ता से नहीं कर सकती है.
किसी संघीय अपराध होने के बाद, राज्य सरकारें पहले जांच में ढिलाई बरतती हैं, और बाद में कोई विकल्प न होने के कारण मामला सीबीआई को दे दिया जाता है. इस सबके चलते जांच के लिए जरूरी बहुमूल्य समय बर्बाद हो जाता है. बिना नए कानून के सीबीआई का विस्तार मुमकिन नहीं है. ऐसे किसी कानून के लिए सभी दलों के बीच राजनीतिक सहमति बेहद जरूरी है. इसके लिए ये जरूरी है कि सभी राजनितिक दल इस बात पर सहमत हों, कि अपराधों की जांच के लिए सीबीआई को दी गई खास ताकतों का बेजा इस्तेमाल नहीं होगा.
1997 के हवाला प्रकरण की जांच के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने सख्त हिदायत दी थी, कि सीबीआई के कामकाज में सरकारी और राजनीतिक दखलअंदाजी नहीं होनी चाहिए. संसदीय समिति ने भी इस बात पर जोर दिया. समिति ने कहा कि आतंकवाद और अन्य आपराधिक मामलों की सही जांच करने के लिये सीबीआई को किसी तरह के दबाव से दूर रखने की जरूरत है. सीबीआई के पास एफबीआई की तरह आजादी, संसाधन और कानूनी ताकतें नही हैं. एफबीआई की रचना के लिए एक खास कानून बनाया गया था.
इस एजेंसी की शुरुआत 1908 में ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन के तौर पर हुई थी. इस कानून के मुताबिक एफबीआई के निदेशक की नियुक्ति दस साल के लिए राष्ट्रपति करते हैं, और सिनेट इस पर अपनी मुहर लगाती है. सीबीआई में भी इस तरह के प्रवधानों की जरूरत है. यूएसए पैट्रियोट एक्ट, 2001 के तहत, एफबीआई को फोन टेप करने और इंटरनेट मॉनिटर करने की इजाजत दी गई है. शक के आधार पर एफबीआई लोगों के घरों में तलाशी भी ले सकती है. इसी तरह बिना अदालत की इजाजत के बैंकों और आर्थिक संस्थानों से एफबीआई आर्थिक जानकारियां भी ले सकती हैं एफबीआई इन ताकतों का सही इस्तेमाल कर रही है.