हैदराबाद : यह कोई पहली बार नहीं है कि भारत की सबसे प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई पर सवाल उठाए गए हैं. अपनी स्थापना के समय से ही इस संस्था से कई विवाद जुड़ने शुरू हो गए थे. हाल ही में सीबीआई के पूर्व प्रमुख नागेश्वर राव ने स्वामी अग्निवेश के निधन पर 'छुटकारा तो मिला' जैसी टिप्पणी की थी. सोशल मीडिया पर इसे लेकर खूब बवाल मचा था.
एक ऐसा व्यक्ति जो इसका प्रमुख रह चुका है, उनकी ओर से ऐसी बातें कीं जाएंगी, तो संस्थान की प्रतिष्ठा को आघात जरूर लगेगा.
ताजा विवाद सीबीआई को राज्य द्वारा दी गई 'आम सहमति' को लेकर है. अब तक कुल सात राज्यों ने अपनी सहमति वापस ले ली है. इसका मतलब है कि बिना राज्य सरकार की सहमति से सीबीआई किसी मामले की जांच नहीं कर सकती है.
संवैधानिकता, विश्वसनीयता और राजनीतिक दखलंदाजी समेत कई सारे विवादों का सामना कर रही सीबीआई के सामने 'आम सहमति' वापस लेने का संकट सबसे गहरा है. इससे संस्थान का उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा.
सीबीआई और राज्य सरकारों के बीच विश्वास की खाई लगातार बढ़ती जा रही है. अगर राज्य सरकार से 'आम सहमति' मिली रहती है, तो उसे किसी भी मामले की जांच के लिए राज्य सरकार की पूर्व अनुमति नहीं लेनी पड़ती है. लेकिन ऐसा नहीं है, तो उसे किसी नए मामले में जांच के लिए राज्य सरकार से इजाजत लेनी पड़ती है.
दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेबलिशमेंट एक्ट 1946 की धारा छह के तहत किसी भी राज्य में सीबीआई को जांच के लिए राज्य सरकार की आम सहमति लेनी अनिवार्य है.
हाल के वर्षों में देखा गया है कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के आधार पर इस तरह के फैसले लिए जाते हैं.
किन-किन राज्यों ने 'आम सहमति' वापस ली
कर्नाटक ने कई बार आम सहमति वापस ली है और उसके बाद बहाल भी किया है.
आंध्र प्रदेश और प. बंगाल
नवंबर 2018 में आंध्र प्रदेश की टीडीपी सरकार ने आम सहमति वापस ले ली थी. तब सरकार ने आरोप लगाए थे कि भाजपा सरकार एजेंसी का दुरुपयोग कर रही है.
इसके बाद प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने टीडीपी को समर्थन देने के लिए सीबीआई को दी गई आम सहमति वापस ले ली थी.
छत्तीसगढ़
जनवरी 2019 में छत्तीसगढ़ ने भी आम सहमति वापस लेने का फैसला किया.
राजस्थान
जनवरी 2020 में जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ कथित ऑडियो टेप को लेकर जांच की बात उठने लगी, तो सरकार ने आम सहमति वापस ले ली.
महाराष्ट्र
उद्धव ठाकरे की सरकार ने केंद्र सरकार द्वारा बार-बार हस्तक्षेप का हवाला देकर आम सहमति वापस ले लिया. सुशांत सिंह राजपूत मामले और टीआरपी स्कैम को लेकर केंद्र और राज्य के बीच विवाद की स्थिति आ गई थी.
टीआरपी स्कैम में सीबीआई ने मामला अपने हाथ में ले लिया है. हालांकि, सीबीआई ने यूपी में दर्ज हुई एफआईआर पर यह निर्णय लिया.
केरल
केरल की वाम सरकार ने आम सहमति वापस ले लिया है.
ये सारे मामले बताते हैं कि केंद्र और राज्य में जब भी अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें रहती हैं, तो इस तरह के निर्णय आम हो जाते हैं.
झारखंड ने भी आम सहमति वापस ले ली है.
हालांकि अगर यही होता रहा, तो न्यायपालिका को अभिभावक की भूमिका निभानी होगी. जैसे झगड़ा कर रहे दो बच्चों को समझाना होता है. लेकिन नियमित आधार पर न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ी, तो एजेंसी की अवधारणा ही खतरे में पड़ जाएगी.
सुप्रीम कोर्ट और संघवाद का मूल ढांचा
सुप्रीम कोर्ट ने कई सारे मामलों की सुनवाई के दौरान संघवाद को संविधान का मूल ढांचा माना है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में कुछ ने इसे 'अर्ध संघीय', तो कुछ ने इसे 'विषम संघीय' कहकर विश्लेषित किया है.
स्वराज अभियान वर्सेस दिल्ली एलजी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 'सहकारी संघवाद' या फिर 'व्यावहारिक संघवाद' पर ज्यादा जोर दिया, जहां पर समझौता और विचार विमर्श को प्राथमिकता मिलती है.
भारत के संविधान में संघवाद
संघवाद का सार केंद्र और राज्यों के बीच कानूनी संप्रुभता के बंटवारे में निहित है. यह विधायी और कार्यकारी शक्तियों के सीमांकन के माध्यम से सुनिश्चित गया है.
संविधान की सातवीं अनुसूची में निहित तीन सूचियों का आधार यही है. केंद्रीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची. सूची दो की एंट्री-2 में पुलिस को राज्य का विषय बताया गया है. कानून एवं व्यवस्था को बनाए रखना राज्य सरकार की जवाबदेही है.
दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेबलिशमेंट एक्ट, जिसके तहत सीबीआई का गठन किया गया है, एक केंद्रीय एजेंसी (पुलिस) की तरह काम करती है.
नवेंद्र कुमार वर्सेस केंद्र सरकार मामले में सुनवाई के दौरान यह मूल मुद्दा था. इसने सीबीआई की वैधानिकता को चुनौती दी थी.
सीबीआई को गैर संवैधानिक घोषित करते हुए गुवाहाटी हाईकोर्ट ने संविधान सभा में हुई बहस का भी विश्लेषण किया. कोर्ट ने कहा कि संविधान सभा ने जिस इन्वेस्टिगेशन की बात कही थी, वह सामान्य जांच है, न कि सीआरपीसी के तहत की गई जांच. क्योंकि सीआरपीसी के तहत की गई जांच पुलिस के अधीन आती है. और यह राज्य का विशेषाधिकार है.
संविधान ने केंद्र और राज्य के बीच बड़ी साफ लाइन खींची है. पुलिस और जांच एजेंसी के बीच साफ-साफ फर्क बताया गया है. हालांकि, व्यवहार में काफी दिक्कतें आती हैं.
सीबीआई की अवधारणा एक विशेष जांच एजेंसी के रूप में की गई है, जिसके पास खास जानकारी, तकनीकी दक्षता और सीमा की बाध्यता नहीं होती है. अगर इसके दायरे को और अधिक स्पष्ट किया जाता है, तो यह संस्थान के हित में होगा. दरअसल, सीबीआई पुलिस के कार्य की कमियों को ही पूरा करता है.
ताजा विवाद जबरन संघवाद थोपने जैसी सोच को बढ़ावा देता है. इससे केंद्रीय जांच एजेंसी को गलत नजरिए से देखा जाने लगा है. ऐसा लगता है जैसे इसका इस्तेमाल राज्यों के खिलाफ राजनीतिक हितों को साधने के लिए किया जा रहा हो.
पूरे मामले में जो भी स्टेकहोल्डर हैं, उनसे बातचीत कर उनके कार्यों को स्पष्ट कर इस समस्या को सुलझाया जा सकता है. वो कौन सी परिस्थितियां होंगी, जब केस को केंद्रीय एजेंसी को ट्रांसफर किया जाए, इसे सही ढंग से परिभाषित किया जा सकता है. इससे पूरक क्षेत्राधिकार की संरचना के बाद सीबीआई के आसपास के क्षेत्राधिकार की अस्पष्टता खत्म हो सकती है.
सामान्य सहमति बार-बार बाधित न हो, इसके लिए सहायता का यूरोपीय सिद्धान्त का पालन किया जा सकता है, जिसका मूल आधार है- उच्च स्तरीय मामलों में ही जांच केंद्रीय जांच एजेंसी को सौंपा जाए.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि डीएसपीई एक्ट से अलग सीबीआई को वैधानिक मान्यता दी जाए. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के आपसी सहयोग से ही सीबीआई अपनी खोई हुई गरिमा को पुनर्जीवित कर सकती है.