हैदराबाद : पीएम मोदी ने संविधान दिवस पर 80वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन में पीठासीन अधिकारियों से कहा कि वे कानूनी किताबों की भाषा को सरल बनाएं और निरर्थक कानूनों को खत्म करने के लिए एक आसान प्रक्रिया का सुझाव दें. ऐसे में एक राष्ट्र एक चुनाव को लेकर भी उन्होंने कई बातें कहीं. उन्होंने इस अवसर पर सभी चुनावों के लिए एकल मतदाता सूची के वक्तव्य को दोहराया. ऐसे में एक राष्ट्र एक चुनाव को लेकर लोग इसके पक्ष और विपक्ष में अपनी राय दे रहे हैं.
ओडिशा और आंध्र प्रदेश ने राष्ट्र के लिए एक उदाहरण निर्धारित किया है. इस विचार और मुद्दे का समर्थन करने वाले ओडिशा का उदाहरण देते हैं. समर्थकों का कहना है कि 2004 के बाद से ओडिशा के चार विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ हुए थे और परिणाम अलग-अलग रहे हैं. समर्थकों का यह भी तर्क है कि ओडिशा में आचार संहिता थोड़े समय के लिए भी लागू होगी. इसकी वजह है कि अन्य राज्यों की तुलना में सरकार के कामकाज में कम दखल है. आंध्र प्रदेश में भी ऐसा ही हुआ, जहां लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए लेकिन नतीजे अलग थे.
एक साथ हुए चुनाव : एक देश एक चुनाव कोई नई बात नहीं है. देश में पहले भी चार बार चुनाव हुए हैं. 1952, 1957, 1962, 1967 के वर्षों में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए हैं, लेकिन 1968-69 से दौरान कुछ राज्यों की विधानसभाओं को समय से पहले भंग कर दिया, जिससे यह प्रवृत्ति टूट गई.
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि देश की आबादी बहुत बढ़ गई है इसलिए एक साथ चुनाव करना संभव नहीं है. यह तर्क भी सामने आता है कि देश की आबादी के साथ-साथ तकनीक और संसाधन भी विकसित हुए हैं इसलिए एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं.
खर्चीला चुनाव - 1951-52 में पहली बार लोकसभा चुनावों में 53 पार्टियों ने हिस्सा लिया, जिसमें 1874 उम्मीदवारों ने भाग लिया और चुनाव पर कुल 11 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे.
2019 के लोकसभा चुनावों में 610 राजनीतिक दल थे. लगभग 9,000 उम्मीदवार और लगभग 60,000 करोड़ रुपये एआरडी द्वारा घोषित चुनावी खर्च, लेकिन चुनावी खर्च राजनीतिक दलों द्वारा घोषित किया जाना बाकी है.
एक राष्ट्र एक चुनाव के समर्थकों का कहना है कि लॉ कमीशन ने एक अनुमान लगाया है कि पर्याप्त ईवीएम खरीदने के लिए 4,500 करोड़ रुपये का खर्च होंगा, हालांकि यह लागत और भी बढ़ सकती है.
अविश्वास प्रस्ताव के विकल्प : इस चुनाव प्रणाली में सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि अगर सरकार पांच साल से पहले गिर जाती है तो, क्या होगा. इसके लिए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के पहले दूसरी वैकल्पिक सरकार के लिए विश्वास प्रस्ताव की व्यवस्था करनी होगी.
कई देशों में है यह व्यवस्था : स्वीडन में राष्ट्रीय और प्रांतीय के साथ-साथ स्थानीय निकाय चुनाव एक निश्चित तिथि पर होते हैं जो, सितंबर के दूसरे रविवार को हर चार साल में होते हैं. स्वीडन इसका रोल मॉडल रहा है.
दक्षिण अफ्रीका में भी राष्ट्रीय और प्रांतीय चुनाव हर पांच साल में एक साथ होते हैं, जबकि नगरपालिका चुनाव दो साल बाद होते हैं. 2019 में इंडोनेशिया में भी इसी तरह की प्रणाली शुरू की गई थी. कई प्रावधानों को असंवैधानिक होने के बाद इंडोनेशिया ने अपने संविधान में संशोधन किया, जिसके परिणामस्वरूप अब हर पांच साल में विधायी और राष्ट्रपति चुनाव किए जाते हैं.
मतदान प्रतिशत में होगी वृद्धि - एक बार होने वाले चुनाव से यह प्रक्रिया थोड़ी आसान हो जाएगी. इस तरह से चुनाव आयोजित करने पर लोग बड़े उत्साह के साथ मतदान करेंगे. यदि हर 5 साल में एक बार चुनाव होंगे तो यह एक त्योहार नहीं होगा, बल्कि महाउत्सव होगा.
चुनाव आयोग की पूरी प्रशासनिक मशीनरी, अर्धसैनिक बलों, नागरिकों, प्रशासनिक अधिकारियों के अलावा राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को 5 साल के अंतराल के बाद इस विशाल आयोजन के लिए तैयार रहना होगा.
लगेगा काले धन और भ्रष्टाचार पर अंकुश - चुनावों के दौरान काले धन का खुलेआम इस्तेमाल किया जाता है इसलिए एक बार चुनाव होने पर यह काले धन और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में मदद करेगा.
सामाजिक एकता और शांति - कई बार होने वाले चुनाव राजनेताओं और पार्टियों को सामाजिक एकता और शांति को बाधित करने का मौका देते हैं. इससे अनावश्यक तनाव का वातावरण बनता है.
एक बार चुनावी ड्यूटी- एक साथ चुनाव कराने से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर जाने की जरूरत नहीं होगी. इससे वे अपना काम ठीक से पूरा कर पाएंगे.