पुरी : रथ यात्रा के 9वें दिन भगवान जगन्नाथ गुंडिचा मंदिर से श्रीधाम लौटते हैं. भगवान की रथ यात्रा तीन चरणों में होती है. बाहुड़ा यात्रा इसके दूसरे चरण में होती है. ओडिशा के आषाढ़ मास में भगवान तकरीबन एक सप्ताह गुंडिचा मंदिर में रहने के बाद रवाना होते हैं.
महाप्रभु अपनी बहन देवी सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र के साथ गुंडिचा से श्रीधाम के लिए प्रस्थान करते हैं. भगवान जगन्नाथ की वापसी यात्रा को 'बाहुड़ा यात्रा' के नाम से जाना जाता है. आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन महाप्रभु की वापसी की यात्रा शुरू होती है. भगवान की वापसी के एक दिन पहले रात को ही भक्तजन तैयारियों में लग जाते हैं.
सभी अनुष्ठानों के पूर्ण होने के बाद सेवादार देवी और देवताओं को उनके आसन से उनके रथों तक लेकर जाते हैं. इसे 'ढाडी पहंडी' के नाम से जाना जाता है. रथों से देवी और देवताओं को उनके सिंहासन तक वापस ले जाने की प्रक्रिया को 'गोटी पहंडी' कहा जाता है. पुरी के गजपति राजा रथ पर सोने के झाड़ू से सफाई करते हैं, इस रस्म के बाद बाहुड़ा यात्रा की शुरुआत होती है.
वापसी यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ का नंदीघोष रथ कई स्थानों पर रुकता है. भगवान का रथ उनके श्रेष्ठतम भक्त सलाबेग की कब्र के पास थोड़ी देर के लिए रुकता है. इसके बाद भगवान जगन्नाथ कुछ देर के लिए अपनी मौसी के घर के सामने रुकते हैं. वहां उनको पके हुए चावल का भोग लगाया जाता है. इस भोग को पोडपिठा कहा जाता है. यह भोग उनकी मौसी द्वारा तैयार किया गया होता है. इस रिवाज के पूर्ण होने के बाद उनका रथ मंदिर के सिंघ द्वार की ओर चल देता है.
बाहुड़ा यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी से भी मिलते हैं. यह रस्म गजपति राजा के महल के सामने निभाई जाती है. इस दौरान भगवान जगन्नाथ अपने रथ में ही प्रतीक्षा करते हैं. देवी लक्ष्मी से भगवान की भेंट के बाद रथ आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान करता है.
भगवान जगन्नाथ और देवी लक्ष्मी की मुलाकात की रस्म को 'लक्ष्मी नारायण भेंट' के नाम से जाना जाता है.
यह तीनों रथ बाहुड़ा यात्रा के दिन में मुख्य मंदिर (श्रीमंदिर) के मुख्य द्वार पर पहुंचते हैं. ऐसी मान्यता है कि अगर आपको बाहुड़ा यात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ की एक झलक भी दिख जाती है, तो सौ जन्मों तक महाप्रभु का दिव्य आशीर्वाद मिलता है.