दो साल पहले हुई 10वीं कृषि जनगणना से पता चलता है कि पूरे देश में 86.2 फीसद किसानों के पास खेती लायक जमीन बहुत कम हैं. उनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है. 12 करोड़ 60 लाख किसानों में प्रत्येक के पास तो औसतन 0.6 हेक्टेयर खेती के लायक जमीन है. दशकों से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी ) के नाम पर किसानों का शोषण हो रहा है. कृषि बाजारों में दलालों की धोखाधड़ी से असहाय किसानों के हितों का बुरी तरह शोषण होता रहा है. इस असंगठित व्यवस्था का मुकाबला करने के लिए केंद्र सरकार संसद में एक विधेयक लाई थी, जिसके तहत किसानों को अपनी फसल कहीं भी बेचकर आकर्षक लाभ कमाने की आजादी दी गई थी.
इसके साथ ही एक दूसरा विधेयक पेश किया गया, जिसमें व्यापारियों और किसानों के बीच खेती से पहले करार करने की व्यवस्था थी. इसमें व्यापारियों के हितों की सुरक्षा भी सुनिश्चित की गई थी और किसानों के हाथ बांध दिए गए थे. अदूरदर्शिता की वजह से इस विधेयक का स्वरूप जमीनी वास्तविकता के ठीक उलटा था.
बाजारू विद्वेष के भरोसे किसान ?
इसमें उम्मीद जताई गई थी और माना गया था कि बाजार की ताकतों के बीच की प्रतिस्पर्धा से फसलों की अच्छी कीमत मिलेगी और किसानों का लाभ दोगुना हो जाएगा. जबकि वास्तविक जीवन में बेचारे गरीब किसानों को बीज और फसल उपजाने से जुड़े कामों के लिए मौसम की शुरुआत में पैसे खर्च करने पड़ते हैं. इस वजह से किसान व्यापारियों के चंगुल में आसानी फंस जाते हैं और व्यापारियों की शर्तों पर बगैर लाभ के करार करने को मजबूर होते हैं. बाद में बहुत अधिक उपज होने पर भी किसानों को कोई लाभ नहीं होता और जितने पैसे पर पहले करार हुआ रहता है उसी पर व्यापारी को पूरी फसल देने को बाध्य होते हैं. हैरानी की बात यह है कि जिस सरकार को किसानों का कल्याण सुनिश्चित करना चाहिए वह किसानों को बाजार की विद्वेषपूर्ण ताकतों के भरोसे छोड़ देती है.
अपना मुंह नहीं खोल सकता किसान
कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी के एक अध्ययन के अनुसार, सरकार हर साल समर्थन मूल्य (एमएसपी) इस तरह से तय करती है जैसे वह किसानों की मदद कर रही है, लेकिन वास्तविकता है कि एमएसपी हर साल 2.65 लाख करोड़ रुपए के नुकसान का कारण है. इस तथ्य को कैसे लेंगे कि वर्ष 2000-17 के बीच किसानों पर अप्रत्यक्ष कर बढ़कर 45 लाख करोड़ रुपए हो गया ? केंद्र जिसने मुक्त बाजार से संपर्क करने के लिए कृषि बाजार कानूनों में सुधार के सुझावों के अनुरूप खुद कानून बनाया उसे इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि एक किसान जो विनियमित बाजारों में अपना मुंह नहीं खोल सकता है तो वह मुक्त बाजार में कैसे सफल हो सकेगा ?
इस तथ्य को देखते हुए कि बेकार समर्थन मूल्य किसान कल्याण के नाम पर बोझ बन गया है, समय-समय पर सुधारों को लागू करने के लिए डॉ. स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लागू क्यों नहीं किया जा रहा है ? यह एक अहम सवाल है. जो किसान खुद भूखा रहकर देश का पेट भरता है, वह केवल खाद्य आत्मनिर्भरता की उपलब्धि हासिल करने वाला नहीं है बल्कि वह भी एक सैनिक है जो किसी भी तरह का समझौता किए बिना भारत की संप्रभुता की रक्षा करता है. तेलंगाना में किए गए फसल कॉलोनी के प्रयोग को तत्काल राष्ट्रव्यापी स्तर पर अपनाने और एक ऐसी व्यापक कृषि नीति तैयार करने की जरूरत है जो किसानों पर केंद्रित हो.
वैज्ञानिक दृष्टि से देश भर में 100 से अधिक अलग-अलग जलवायु क्षेत्र हैं. इनमें मिट्टी का परीक्षण करना चाहिए ताकि यह पहचाना जा सके कि कौन सी मिट्टी किन फसलों के लिए उपयुक्त है. घरेलू आवश्यकताओं और निर्यात के अवसरों को देखते हुए वार्षिक फसल योजना पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए.
खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी
कृषि अनुसंधान कराया जाना सरकारों का दायित्व है. इससे कम पैदावार, खराब गुणवत्ता, कीड़ों की समस्या, सूखा और बाढ़ जैसी आपदाओं से किसानों की रक्षा हो सकगी. केंद्र को फसल की खरीद और किसान को उचित आय की गारंटी देने और राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए. अगर असहाय किसानों को समस्याओं के भंवर में फेंक कर मुक्त बाजार की दया पर छोड़ दिया जाता है तो उसकी और बदतर हो जाएगी. इस कारण अवास्तविक सुधार और कानून एक वरदान की जगह अभिशाप बन जाएंगे.