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विशेष लेख : भारत की बहुपक्षीय कूटनीति को 100 साल - 100 years of multilateral diplomacy

100 साल पहले 10 जनवरी को ही देशों के समूह ने साथ आकर काम करना शुरू किया था. जून 1919 में हुई वर्सेल्स की संघि का भारत भी सदस्य था (इसके सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने अगस्त 2019 में एक स्टैंप भी जारी किया था) और इसके चलते इस समूह के संस्थापक सदस्यों में भारत शामिल था.

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Published : Jan 12, 2020, 12:11 AM IST

100 साल पहले 10 जनवरी को ही देशों के समूह ने साथ आकर काम करना शुरू किया था. हालांकि, देशों का यह समूह द्वितीय विश्व युद्ध को रोकने में नाकामयाब रहा, लेकिन इसकी रचना ने संयुक्त राष्ट्र की कई मौजूदा संस्थाओं के ढांचे की रचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी का सिद्धांत, इस विश्व समूह के मूलभूत ढांचे का हिस्सा था, और इसी की कड़ी में बने संयुक्त राष्ट्र की रचना भी इसी सिद्धांत के तहत हुई. अप्रैल 1946 में समूह के देशों ने जिनीवा में एकत्रित होकर अपनी सारी ताक़तें और काम संयुक्त राष्ट्र को हस्तांतरित कर दिये थे.

जून 1919 में हुई वर्सेल्स की संघि का भारत भी सदस्य था (इसके सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने अगस्त 2019 में एक स्टैंप भी जारी किया था) और इसके चलते इस समूह के संस्थापक सदस्यों में भारत शामिल था. इस समूह में भारत एक मात्र ऐसा देश था जिसपर उसी देश के लोगों का शासन नहीं था, इसलिये इतिहासकार भारत की सदस्यता को विसंगतियों में विसंगति करार देते हैं. यहां इतिहासकार यह भी मानते हैं कि इसके बावजूद देशों के समूह में भारत को अन्य देशों की ही तर्ज पर अधिकार और जिम्मेदारियां हासिल थी.

इस समूह के जरिये बहुपक्षीय रिश्तों में भारत के दाखिले के दो पहलू आज के भारत की विदेश नीति में भी जगह पाते हैं. इसमें पहला है, भारत की शांति और युद्ध रोकने की तरफ प्रतिबद्धता. 1927 में, पैरिस में हुई, जंग को नाजायज घोषित करने वाली ब्लॉग-ब्राइंड संधि (जिसे शांति संधि भी कहा जाता है) में शामिल देशों में भारत ने भी हस्ताक्षर किये थे. इस संधि को अमली जामा पहनाने के लिये, अमरीका के गृह सचिव, केलॉग को 1929 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

दूसरा पहलू है, आर्थिक-सामाजिक विकास के लिये भारत का नवनिर्मित बहुपक्षीय ढाँचे में शामिल होना. वर्सेल्स की संधि के बाद बने अंतर्राष्ट्रीय लेबर ऑर्गेनाइजेशन(आईएलओ) में भारत 1922 से सदस्य है. और आजाद भारत में भी श्रम मंत्रालय ने इसे काफी प्राथमिकता दी है. आईएलओ के 28 सदस्य देशों में से भारत 10 स्थाई सदस्यों में शामिल रहा है, और भारत को हमेशा ही, औद्योगिक महत्व के लिहाज़ से सबसे ऊपर रखा गया है. भारत के लिहाज से महत्वपूर्ण मुद्दे, जिन पर आईएलओ में बहस और विचार हुआ है उनमें, मजदूरों के काम करने के घटों और समुद्र में काम करने वाले कर्मचारियों के लिये खास इंतजाम शामिल हैं.

पढ़ें : विशेष लेख : जेएनयू में हिंसा का क्या है मतलब

फ्रांस द्वारा शुरू किये गये, कन्वेंशन फॉर द प्रिवेंशन एंड पनिष्मेंट ऑफ टेररिज्म पर हस्ताक्षर करने वाला भारत इस समूह का एकमात्र सदस्य था. ब्रिटेन ने भी इस सम्मेलन पर हस्ताक्षर नहीं किए थे. इस सम्मेलन का मक़सद प्रत्यारपर्ण और अभियोजन को कानूनी तौर पर मजबूत करना था. इसी सिद्धांत के अंतर्गत भारत संयुक्त राष्ट्र से कॉमप्रिहेन्सिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज्म (सीसीआईटी) को अपनाने की वकालत कर रहा है.

देशों के समूह बननें के पहले दशक में बहुपक्षीय कूटनीति में अपनी छाप छोड़ने वाले भारतीय राजनयिकों में, लंदन में भारत के चौथे उच्चायुक्त सर अतुल चटर्जी का नाम सबसे आगे है. भारतीय सिविल सेवाओं के 1896 बैच के टॉपर अतुल के नाम लंदन के ऑलडविच में भारत भवन के निर्माण का श्रेय जाता है. यह किसी भी विदेशी जमीन पर भारत की सबसे पुरानी राजनयिक इमारत है. देशों के समूह और आईएलओ में भारतीय दल के नेता के तौर पर अतुल की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. अतुल, 1927 में जनरल असेंबली और 1933 में आईएलओ की अध्यक्षता करने वाले पहले भारतीय बने.

18 दिसंबर 1920 को अपने पहले अधिवेशन में, समूह के देशों ने इंटरनेशनल कमेटी ऑन इंटलेक्चुएल कॉपरेशन का गठन करने का फैसला किया. फ़्रांस ने इस समिति को आर्थिक सहायता करने की पेशकश की. इस समिति की ही तर्ज पर आगे चलकर, पैरिस में स्थित, संयुक्त राष्ट्र एज्यूकेशनल, कल्चरल,एंड साइंटिफिक ऑर्गनाइज़ेशन (यूनेस्को) की नींव पड़ी. बौद्धिक साझेदारी और मानवता की एकजुटता के लिये भारतीय हिस्सेदारी को बढ़ाने में, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन्न का बड़ा योगदान रहा. वो, 1931-1938 तक समिति के सदस्य रहे, और 1946-1952 तक युनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व भी करते रहे. राधाकृष्णन्न आगे चलकर भारत के उप राष्ट्रपति (1952-1962) और राष्ट्रपति (1962-1967) भी रहे.

पिछली एक शताब्दी से भारत बहुपक्षीय कूटनीति का भागीदार रहा है. इसी कारण से आज विश्व शांति और सामाजिक-आर्थिक विकास में भारत अपने अनुभव का पूरा फायदा उठा सकता है. इस मकसद को हासिल करने के लिये, 2021-2022 के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अस्थाई पद के चुनाव और 2022 में जी- 20 देशों के समूह की अध्यक्षता का मौका काफी महत्वपूर्ण है.

(अशोक मुकर्जी, संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व राजदूत)

100 साल पहले 10 जनवरी को ही देशों के समूह ने साथ आकर काम करना शुरू किया था. हालांकि, देशों का यह समूह द्वितीय विश्व युद्ध को रोकने में नाकामयाब रहा, लेकिन इसकी रचना ने संयुक्त राष्ट्र की कई मौजूदा संस्थाओं के ढांचे की रचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी का सिद्धांत, इस विश्व समूह के मूलभूत ढांचे का हिस्सा था, और इसी की कड़ी में बने संयुक्त राष्ट्र की रचना भी इसी सिद्धांत के तहत हुई. अप्रैल 1946 में समूह के देशों ने जिनीवा में एकत्रित होकर अपनी सारी ताक़तें और काम संयुक्त राष्ट्र को हस्तांतरित कर दिये थे.

जून 1919 में हुई वर्सेल्स की संघि का भारत भी सदस्य था (इसके सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने अगस्त 2019 में एक स्टैंप भी जारी किया था) और इसके चलते इस समूह के संस्थापक सदस्यों में भारत शामिल था. इस समूह में भारत एक मात्र ऐसा देश था जिसपर उसी देश के लोगों का शासन नहीं था, इसलिये इतिहासकार भारत की सदस्यता को विसंगतियों में विसंगति करार देते हैं. यहां इतिहासकार यह भी मानते हैं कि इसके बावजूद देशों के समूह में भारत को अन्य देशों की ही तर्ज पर अधिकार और जिम्मेदारियां हासिल थी.

इस समूह के जरिये बहुपक्षीय रिश्तों में भारत के दाखिले के दो पहलू आज के भारत की विदेश नीति में भी जगह पाते हैं. इसमें पहला है, भारत की शांति और युद्ध रोकने की तरफ प्रतिबद्धता. 1927 में, पैरिस में हुई, जंग को नाजायज घोषित करने वाली ब्लॉग-ब्राइंड संधि (जिसे शांति संधि भी कहा जाता है) में शामिल देशों में भारत ने भी हस्ताक्षर किये थे. इस संधि को अमली जामा पहनाने के लिये, अमरीका के गृह सचिव, केलॉग को 1929 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

दूसरा पहलू है, आर्थिक-सामाजिक विकास के लिये भारत का नवनिर्मित बहुपक्षीय ढाँचे में शामिल होना. वर्सेल्स की संधि के बाद बने अंतर्राष्ट्रीय लेबर ऑर्गेनाइजेशन(आईएलओ) में भारत 1922 से सदस्य है. और आजाद भारत में भी श्रम मंत्रालय ने इसे काफी प्राथमिकता दी है. आईएलओ के 28 सदस्य देशों में से भारत 10 स्थाई सदस्यों में शामिल रहा है, और भारत को हमेशा ही, औद्योगिक महत्व के लिहाज़ से सबसे ऊपर रखा गया है. भारत के लिहाज से महत्वपूर्ण मुद्दे, जिन पर आईएलओ में बहस और विचार हुआ है उनमें, मजदूरों के काम करने के घटों और समुद्र में काम करने वाले कर्मचारियों के लिये खास इंतजाम शामिल हैं.

पढ़ें : विशेष लेख : जेएनयू में हिंसा का क्या है मतलब

फ्रांस द्वारा शुरू किये गये, कन्वेंशन फॉर द प्रिवेंशन एंड पनिष्मेंट ऑफ टेररिज्म पर हस्ताक्षर करने वाला भारत इस समूह का एकमात्र सदस्य था. ब्रिटेन ने भी इस सम्मेलन पर हस्ताक्षर नहीं किए थे. इस सम्मेलन का मक़सद प्रत्यारपर्ण और अभियोजन को कानूनी तौर पर मजबूत करना था. इसी सिद्धांत के अंतर्गत भारत संयुक्त राष्ट्र से कॉमप्रिहेन्सिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज्म (सीसीआईटी) को अपनाने की वकालत कर रहा है.

देशों के समूह बननें के पहले दशक में बहुपक्षीय कूटनीति में अपनी छाप छोड़ने वाले भारतीय राजनयिकों में, लंदन में भारत के चौथे उच्चायुक्त सर अतुल चटर्जी का नाम सबसे आगे है. भारतीय सिविल सेवाओं के 1896 बैच के टॉपर अतुल के नाम लंदन के ऑलडविच में भारत भवन के निर्माण का श्रेय जाता है. यह किसी भी विदेशी जमीन पर भारत की सबसे पुरानी राजनयिक इमारत है. देशों के समूह और आईएलओ में भारतीय दल के नेता के तौर पर अतुल की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. अतुल, 1927 में जनरल असेंबली और 1933 में आईएलओ की अध्यक्षता करने वाले पहले भारतीय बने.

18 दिसंबर 1920 को अपने पहले अधिवेशन में, समूह के देशों ने इंटरनेशनल कमेटी ऑन इंटलेक्चुएल कॉपरेशन का गठन करने का फैसला किया. फ़्रांस ने इस समिति को आर्थिक सहायता करने की पेशकश की. इस समिति की ही तर्ज पर आगे चलकर, पैरिस में स्थित, संयुक्त राष्ट्र एज्यूकेशनल, कल्चरल,एंड साइंटिफिक ऑर्गनाइज़ेशन (यूनेस्को) की नींव पड़ी. बौद्धिक साझेदारी और मानवता की एकजुटता के लिये भारतीय हिस्सेदारी को बढ़ाने में, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन्न का बड़ा योगदान रहा. वो, 1931-1938 तक समिति के सदस्य रहे, और 1946-1952 तक युनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व भी करते रहे. राधाकृष्णन्न आगे चलकर भारत के उप राष्ट्रपति (1952-1962) और राष्ट्रपति (1962-1967) भी रहे.

पिछली एक शताब्दी से भारत बहुपक्षीय कूटनीति का भागीदार रहा है. इसी कारण से आज विश्व शांति और सामाजिक-आर्थिक विकास में भारत अपने अनुभव का पूरा फायदा उठा सकता है. इस मकसद को हासिल करने के लिये, 2021-2022 के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अस्थाई पद के चुनाव और 2022 में जी- 20 देशों के समूह की अध्यक्षता का मौका काफी महत्वपूर्ण है.

(अशोक मुकर्जी, संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व राजदूत)

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भारत की बहुपक्षीय कूटनीति को 100 साल



अशोक मुकर्जी, संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व राजदूत





100 साल पहले 10 जनवरी को ही देशों के समूह ने साथ आकर काम करना शुरू किया था। हालाँकि, देशों का यह समूह द्वितीय विश्व युद्ध को रोकने में नाकामयाब  रहा, लेकिन इसकी रचना ने संयुक्त राष्ट्र की कई मौजूदा संस्थाओं के ढाँचे की रचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी का सिद्धांत, इस विश्व समूह के मूलभूत ढाँचे का हिस्सा था, और इसी की कड़ी में बने संयुक्त राष्ट्र की रचना भी इसी सिद्धांत के तहत हुई। अप्रैल 1946 में समूह के देशों ने जिनीवा में एकत्रित होकर अपनी सारी ताक़तें और काम संयुक्त राष्ट्र को हस्तांतरित कर दिये थे। 



जून 1919 में हुई वर्सेल्स की संघि का भारत भी सदस्य था (इसके सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने अगस्त 2019 में एक स्टैंप भी जारी किया था) और इसके चलते इस समूह के संस्थापक सदस्यों में भारत शामिल था। इस समूह में भारत एक मात्र ऐसा देश था जिसपर उसी देश के लोगों का शासन नहीं था, इसलिये इतिहासकार भारत की सदस्यता को विसंगतियों में विसंगति करार देते हैं। यहाँ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि इसके बावजूद देशों के समूह में भारत को अन्य देशों की ही तर्ज़ पर अधिकार और जिम्मेदारियां हासिल थी।  



इस समूह के ज़रिये बहुपक्षीय रिश्तों में भारत के दाख़िले के दो पहलू आज के भारत की विदेश नीति में भी जगह पाते हैं। इसमें पहला है, भारत की शांति और युद्ध रोकने की तरफ़ प्रतिबद्धता।  1927 में, पैरिस में हुई, जंग को नाजायज घोषित करने वाली ब्लॉग-ब्राइंड संधि (जिसे शांति संधि भी कहा जाता है) में शामिल देशों में भारत ने भी हस्ताक्षर किये थे। इस ंसंधि को अमली जामा पहनाने के लिये, अमरीका के गृह सचिव, केलॉग को 1929 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।       



 दूसरा पहलू है, आर्थिक-सामाजिक विकास के लिये भारत का नवनिर्मित बहुपक्षीय ढाँचे में शामिल होना। वर्सेल्स की संधि के बाद बने अंतर्राष्ट्रीय लेबर ऑर्गेनाइज़ेशन(आईएलओ) में भारत 1922 से सदस्य है। और आज़ाद भारत में भी श्रम मंत्रालय ने इसे काफ़ी प्राथमिकता दी है। आईएलओ के 28 सदस्य देशों में से भारत 10 स्थाई सदस्यों में शामिल रहा है, और भारत को हमेशा ही, औद्योगिक महत्व के लिहाज़ से सबसे ऊपर रखा गया है।  भारत के लिहाज़ से महत्वपूर्ण मुद्दे, जिन पर आईएलओ में बहस और विचार हुआ है उनमें, मज़दूरों के काम करने के घटों और समुद्र में काम करने वाले कर्मचारियों के लिये ख़ास इंतज़ाम शामिल हैं। 



फ़्रांस द्वारा शुरू किये गये, कन्वेंशन फ़ॉर द प्रिवेंशन एंड पनिष्मेंट ऑफ टेररिज़्म पर हस्ताक्षर करने वाला भारत इस समूह का एकमात्र सदस्य था। ब्रिटेन ने भी इस सम्मेलन पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। इस सम्मेलन का मक़सद प्रत्यारपर्ण और अभियोजन को क़ानूनी तौर पर मज़बूत करना था।  इसी सिद्धांत के अंतर्गत भारत संयुक्त राष्ट्र से कॉमप्रिहेन्सिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज़्म (सीसीआईटी) को अपनाने की वकालत कर रहा है। 



 देशों के समूह बननें के पहले दशक में बहुपक्षीय कूटनीति में अपनी छाप छोड़ने वाले भारतीय राजनयिकों में, लंदन में भारत के चौथे उच्चायुक्त सर अतुल चटर्जी का नाम सबसे आगे है।  भारतीय सिविल सेवाओं के 1896 बैच के टॉपर अतुल के नाम लंदन के ऑलडविच में भारत भवन के निर्माण का श्रेय जाता है। यह किसी भी विदेशी ज़मीन पर भारत की सबसे पुरानी राजनयिक इमारत है। देशों के समूह और आईएलओ में भारतीय दल के नेता के तौर पर अतुल की भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण थी। अतुल, 1927 में जनरल असेंबली और 1933 में आईएलओ की अध्यक्षता करने वाले पहले भारतीय बने।     



18 दिसंबर 1920 को अपने पहले अधिवेशन में, समूह के देशों ने इंटरनेशनल कमेटी ऑन इंटलेक्चुएल कॉपरेशन का गठन करने का फैसला किया। फ़्रांस ने इस समिति को आर्थिक सहायता करने की पेशकश की। इस समिति की ही तर्ज़ पर आगे चलकर, पैरिस में स्थित, संयुक्त राष्ट्र एज्यूकेशनल, कल्चरल,एंड साइंटिफिक ऑर्गनाइज़ेशन (यूनेस्को) की नींव पड़ी। बौद्धिक साझेदारी और मानवता की एकजुटता के लिये भारतीय हिस्सेदारी को बढ़ाने में, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन्न का बड़ा योगदान रहा। वो, 1931-1938 तक समिति के सदस्य रहे, और 1946-1952 तक युनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व भी करते रहे। राधाकृष्णन्न आगे चलकर भारत के उप राष्ट्रपति (1952-1962) और राष्ट्रपति (1962-1967) भी रहे। 



पिछली एक शताब्दी से भारत बहुपक्षीय कूटनीति का भागीदार रहा है। इसी कारण से आज विश्व शांति और सामाजिक-आर्थिक विकास में भारत अपने अनुभव का पूरा फ़ायदा उठा सकता है। इस मक़सद को हासिल करने के लिये, 2021-2022 के लिये   संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अस्थाई पद के चुनाव और 2022 में जी- 20 देशों के समूह की अध्यक्षता का मौक़ा काफ़ी महत्वपूर्ण है।   


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