हैदराबाद: कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर झेल रहा भारत दुनियाभर के अखबारों की सुर्खियों में है. अमेरिका से लेकर सिंगापुर और सऊदी अरब से लेकर रूस तक कई देश अब तक मदद भेज चुके हैं. भूटान ने भी ऑक्सीजन भेजने के लिए मदद की पेशकश की तो केंद्र सरकार खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोशल मीडिया से लेकर सियासी विरोधियों के निशाने पर आ गए. अचानक ही प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की तुलना होने लगी. आखिर कोरोना की दूसरी लहर में ऐसा क्या हुआ कि मोदी और मनमोहन एक बार फिर ना चाहते हुए भी सुर्खियों में आ ही गए.
सवालों में पीएम मोदी का 'आत्मनिर्भर' नारा
आज से ठीक एक साल पहले कोरोना की पहली लहर के दौरान जब मास्क से लेकर पीपीई किट और वेंटिलेटर जैसी चीजों की कमी होने लगी, साथ ही दुनियाभर में लॉकडाउन के कारण दूसरे जरूरी सामानों का आयात निर्यात नहीं हो पाया तो पीएम मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया था. जिसके तहत पीएम मोदी ने दूसरे देशों पर किसी चीज के लिए निर्भरता खत्म करने की बात कही थी. आत्मनिर्भर भारत के इसी नारे के तहत केंद्र सरकार ने युवाओं और कई क्षेत्रों के लिए बजट का प्रावधान किया. कुल मिलाकर आत्मनिर्भर शब्द पिछले साल ट्रेंड कर रहा था. सरकार की हर पहल घूम फिरकर आत्मनिर्भर भारत के झंडे तले आ जाती थी. लेकिन इस साल कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान जब दुनियाभर के देश मदद के तौर पर ऑक्सीजन, दवाएं या दूसरा मेडिकल साजो-सामान भेज रहे हैं तो पीएम मोदी का आत्मनिर्भर नारा सवालों में आ गया है.
मनमोहन सिंह ने जलाई थी आत्मनिर्भर भारत की अलख
साल 2004 से 2014 तक केंद्र में यूपीए की सरकार रही और इस दौरान डॉ. मनमोहन सिंह लगातार 2 बार देश के प्रधानमंत्री रहे. उनके राज में देश ने कई प्राकृतिक आपदाएं झेली लेकिन मनमोहन सिंह ने विदेशी मदद को ठुकराते हुए हर बार कहा कि हम अपने स्तर पर हालात से निपट लेंगे.
- दिसंबर 2004 में दक्षिण भारत के तटीय इलाकों ने सुनामी का कहर झेला. सुनामी ने तटीय राज्यों में काफी तबाही मचाई. जिसके बाद कुछ देशों ने मदद का हाथ बढ़ाया लेकिन मनमोहन सिंह ने विदेशी मदद को ठुकरा दिया और हालात से खुद ही निपटने की बात कही.
-साल 2005 में जम्मू-कश्मीर ने भूकंप जैसी आपदा झेली. इस दौरान भी मनमोहन सिंह अपने कहे पर कायम रहे. ना तो किसी देश से राहत की मांग की और ना ही किसी की पेशकश को स्वीकार किया. बल्कि हर पेशकश को सम्मान के साथ मना करते हुए कहा कि हम हालात से निपटने में सक्षम हैं.
- जून 2013, उत्तराखंड त्रासदी की तस्वीरें आज देखकर लोग आज भी सहम जाते हैं. उत्तराखंड का एक हिस्सा उस त्रासदी में लगभग तहस नहस हो गया था. हजारों लोगों की जान गई, कई लोग लापता हो गए और लाखों लोगों की जिंदगी पर इस त्रासदी ने हमेशा के लिए अपने निशान छोड़ दिए. उस दौरान भी एनडीआरएफ से लेकर सेना तक ने अपनी भूमिका निभाई लेकिन मनमोहन सिंह ने विदेशी मदद नहीं ली.
नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में कोरोना की दूसरी लहर में क्या बदला
मनमोहन सिंह ने आपदा के दौरान विदेशी मदद ना लेने का जो फैसला 2004 में लिया वो एक मिसाल बना और मनमोहन सिंह अपने 10 साल के कार्यकाल के दौरान कायम भी रहे. लेकिन इस साल कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान देशभर में ऑक्सीजन से लेकर रेमडेसिविर या दूसरी दवाओं समेत कई मेडिकल उपकरणों की कमी हुई तो दुनियाभर के देशों ने मदद का हाथ आगे बढ़ा दिया. अमेरिक, रूस, भूटान, फ्रांस, जर्मनी, इटली, थाईलैंड, सिंगापुर समेत करीब 40 देशों ने या तो राहत सामग्री भेजी है या भेजने वाले हैं और कई देशों ने मदद की पेशकश की है.
16 साल बाद नीति में बदलाव
2004 में मनमोहन सिंह ने आपदा के दौरान विदेशी मदद से इनकार किया. इसके बाद ये एक तरह की नीति बन गई जिसके तहत किसी आपदा के दौरान विदेशी मदद नहीं ली जाएगी. मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी आपदा के दौरान विदेशी मदद नहीं ली. वैसे साल 2018 में केरल बाढ़ के दौरान यूएई की आर्थिक मदद लेने से भी केंद्र की मोदी सरकार ने इनकार कर दिया था. लेकिन इस साल कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान कई देशों से मदद ली गई है. सीमित अवधि के लिए ही सही लेकिन इनके आयात पर बकायदा सीमा शुल्क और आईजीएसटी में छूट दी गई है.
चीन, पाकिस्तान और भूटान ने भी बढ़ाया हाथ
भारत के पड़ोसी देश भी मदद का हाथ बढ़ा रहे हैं. पाकिस्तान की मदद पर सरकार ने अभी तक कोई फैसला नहीं लिया है लेकिन भूटान और चीन को लेकर सरकार पर सोशल मीडिया से लेकर सियासी गलियारों तक सवाल उठ रहे हैं. भूटान एक छोटा सा देश है उसकी मदद की पेशकश के बाद कई लोग केंद्र की सरकार को आइना दिखा रहे हैं. लेकिन सबसे ज्यादा सवाल चीन से मिल रही मदद पर उठ रहे हैं.
दरअसल पिछले साल एलएसी पर संघर्ष के बाद भारत और चीन के रिश्तों में खटास बढ़ गई थी. जिसके बाद चीन के साथ कई समझौते रद्द करने से लेकर कई चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. चीनी सामान पर कई तरह की पाबंदियां लगाई गई थी. लेकिन अब चीन से ऑक्सीजन से जुड़े उपकरण खरीदने को केंद्र ने मंजूरी दे दी है.
इस बदले मिजाज़ पर क्या कहती है सरकार ?
दरअसल कोरोना काल में विदेशी मदद लेने पर ज्यादातर सरकार के नुमाइंदे कह रहे हैं कि भारत ने किसी से मदद नहीं मांगी है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दो टूक कहा कि जिसे आप सहायता कहते हैं, उसे हम मित्रता कहते हैं.
वहीं विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रंगला ने कहा कि ये पॉलिसी में बदलाव नहीं है. हमने भी पहले बाकी देशों की मदद की और अब हमें मदद मिल रही है. यह एक दूसरे पर निर्भरता वाली दुनिया को दर्शाता है. वैसे अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी भारत की ओर मदद का हाथ बढ़ाते हुए कहा था कि जब अमेरिका मुश्किल में था तो भारत ने मदद की थी और अब मदद करने की बारी अमेरिका की है. ये सच भी है कि दुनियाभर के कई देशों की मदद भारत ने की है. अमेरिका समेत कई देशों को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दवा भेजी थी और अब तक 80 से ज्यादा देशों को वैक्सीन भेज चुका है.
कुल मिलाकर सरकार इस बदलाव को पॉलिसी में बदलाव के तौर पर स्वीकार नहीं कर रही. अधिकारियों का कहना है कि भारत ने किसी से मदद की अपील नहीं की है. अगर किसी देश की सरकार या निजी संस्था गिफ्ट के तौर पर डोनेशन दे रही है तो हमें उसे कृतज्ञता से स्वीकार करना चाहिए.
सोशल मीडिया का चश्मा उतारकर लॉजिक पर बात करें
देश में स्वास्थ्य ढांचे की कमी से लेकर राजनीति के मोर्चे तक मोदी सरकार घिरी हुई है. इस बीच विदेशी मदद लेने को लेकर नरेंद्र मोदी और मनमोहन सिंह को आमने-सामने करने वाली कई पोस्ट और बयान सोशल मीडिया में तैर रहे हैं. सियासतदान इस मसले पर अपना चेहरा चमकाने आगे आएंगे लेकिन सोशल मीडिया का चश्मा और सियासत को एक तरफ रख दें तो विदेशी मदद के मसले पर मनमोहन और मोदी को कटघरे में खड़ा करने जैसी कोई बात ही नहीं है.
-प्रधानमंत्री रहते हुए देश में प्राकृतिक आपदाओं के दौरान मनमोहन सिंह ने कोई विदेशी मदद नहीं ली. ये बात तारीफ के काबिल तो है लेकिन जम्मू-कश्मीर में भूकंप की बात हो या उत्तराखंड त्रासदी और सुनामी की, इन प्राकृतिक आपदाओं ने देश के किसी एक राज्य या एक हिस्से को प्रभावित किया. लेकिन मौजूदा दौर में पूरी दुनिया एक महामारी से जूझ रही है और भारत कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर का कहर झेल रहा है. देश में रोजाना 4 लाख से ज्यादा नए मामले आ रहे हैं और रोजाना औसतन 3 से 4 हजार लोगों की मौत हो रही है. कोरोना महामारी की तुलना किसी राज्य विशेष में प्राकृतिक आपदा से नहीं की जा सकती.
- महामारी के इस दौर से पूरी दुनिया सामना कर रही है. भारत की जो हालत अब है, वो परिस्थितियां अमेरिका और इटली जैसे विकसित देशों में पिछले साल थी. तब इन देशों को भी विदेशी मदद की जरूरत पड़ी थी और भारत ने भी इन देशों की मदद के लिए हाथ बढ़ाया था. इस महामारी ने इटली और अमेरिका जैसे देशों की कमर तोड़कर रख दी थी और उन्हें भी दूसरे देशों की मदद की जरूरत पड़ी थी ऐसे में भारत को मदद मिलना मौजूदा परिस्थितियों की मांग है.
- कोरोना महामारी के इस दौर में घनी आबादी वाले देशों पर सबसे ज्यादा संकट हो सकता है. भारत दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है और स्वास्थ्य सुविधाएं उस स्तर की ना होने के कारण पहली बार कोरोना महामारी जैसी परिस्थिति पर दुनिया के दूसरे देशों की मदद की जरूरत पड़ सकती है. अमेरिका और इटली जैसे विकसित देशों का स्वास्थ्य ढांचा दुनिया में सबसे बेहतरीन में से एक है लेकिन कोरोना महामारी ने इन देशों में भी कहर बरपाया था.
-कोरोना काल में एक देश की दूसरे देश द्वारा मदद की पेशकश वैश्वीकरण का वो पहलू है. जिसमें दुनिया के अधिकतर देश किसी ना किसी चीज के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हैं. जरूरत पड़ने पर भारत ने अमेरिका को दवा पहुंचाई तो कई देशों को वैक्सीन और अब जब भारत को मदद की जरूरत है तो दुनियाभर के देश मदद के लिए आगे आ रहे हैं.
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