पटना: बिहार की राजनीति में कांग्रेस के बारे में कहा जाता था कि अपनी जमीन और जनाधार को फिर से खड़ा कर पाना उसके लिए अब नामुमकिन है. कांग्रेस नेतृत्व के अभाव में कई झंझावात से भी गुजरी है और सदाकत आश्रम में कांग्रेस अध्यक्षों के बीच बहुत कुछ हो चुका है, जो लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप नहीं रहा है.
रंग ला सकती है कांग्रेस की मेहनत
एक्जिट पोल में कांग्रेस को 70 में से 35 सीटों पर जीत मिलती दिख रही है. 2015 के विधानसभा में जब नीतीश, राजद और कांग्रेस के साथ थे, तब कांग्रेस ने कुल 27 सीटें जीती थीं. 2020 में राजद के साथ गठबंधन है. 70 सीटें मिली हैं. 35 सीटें कांग्रेस जीत रही है. कांग्रेस ने जिस तरीके से मेहनत की थी, उसके बाद एग्जिट पोल में मिल रही सफलता ने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के चेहरे पर रौनक तो ला दी है, लेकिन संगठन की लचर व्यवस्था की कमजोरी ने कांग्रेस की चिंता भी बढ़ा दी है. कांग्रेस इसके लिए गोलबंदी जरूर कर रही है लेकिन जमीन पर मजबूत नेताओं की कमी कांग्रेस की सबसे कमजोर कड़ी है.
बीजेपी के अलावा और भी है चुनौती
कांग्रेस ने एग्जिट पोल के बाद बिहार में नजर रखने के लिए ऑब्जर्वर्स की नियुक्ति कर दी है. रणदीप सुरजेवाला के अलावा बिहार के प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल और दूसरे कई नेताओं को कांग्रेस ने बिहार भेज दिया है. कांग्रेस को इस बात का डर सता रहा है कि कहीं नेताओं को प्रलोभन न दे दिया जाए. इस डर की सिर्फ एक वजह बीजेपी बताई जा रही है, लेकिन सिर्फ बीजेपी डर की वजह नहीं है.
2004 से 2009 तक केंद्र में चली यूपीए की सरकार में लालू यादव रेल मंत्री थे. 2009 के लोकसभा चुनाव में सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन कथित तौर पर कांग्रेस लालू और रामविलास का एक समझौता तो था.
चुनाव के समय में बिहार में लालू और रामविलास कांग्रेस से अलग चुनाव लड़ गए. मंच से यह बातें जरूर कही जाती रहीं कि हमने यूपीए सरकार में रहकर विकास किया है. विकास का पारितोषिक भी मांगा जा रहा था. जनता ने अपना जनमत दिया तो लालू यादव मजबूत होकर फिर से दिल्ली गए. लालू यादव दिल्ली में सोनिया गांधी के आवास पर पूरे दिन बैठे रहे कि यूपीए-2 की बनने वाली सरकार में उनकी भूमिका और भागीदारी तय कर दी जाए लेकिन सोनिया गांधी ने उनसे बात तक नहीं की थी.
राजनीतिक चर्चा में यह बात कही जाती है कि राहुल गांधी लालू यादव को लेकर सही रुख नहीं रखते थे. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम भी कांग्रेस का लालू के लिए खतरनाक ही रहा है. ऐसे में अगर बीजेपी, कांग्रेस के नेताओं को छोड़ भी दे तो राजद अपना हाथ आजमा सकती है.
बिहार में कांग्रेस नेताओं की तेजस्वी से नाराजगी
2020 की सत्ता के लिए होने वाली सियासी जंग में तेजस्वी से कांग्रेस का मनमुटाव सीट बंटवारे को लेकर काफी बढ़ गया था. प्रदेश इकाई के नेता तेजस्वी यादव को लेकर बहुत साफ नहीं हैं. मदन मोहन झा से तेजस्वी यादव बात तक नहीं करना चाहते थे, भले वह बिहार के प्रदेश अध्यक्ष हैं.
वह बिहार के चुनाव प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल या फिर राहुल गांधी या सोनिया से ही तेजस्वी बात करना चाहते थे, जिसकी बानगी टिकट बंटवारे में दिखी. राहुल और प्रियंका से बात करने के लिए समय तय करने की बात चलती रही लेकिन तेजस्वी यादव ने बिहार के नेताओं को तरजीह नहीं दी. बिहार के कांग्रेस नेताओं को यह नागवार गुजरता है.
बिहार कांग्रेस इकाई के कई नेता इस बात को लेकर नाराज भी रहे कि तेजस्वी यहां के स्थानीय नेताओं को तरजीह नहीं देते हैं. ऐसे में अगर कांग्रेस के इन नेताओं के साथ सामंजस्य बैठाने में तेजस्वी असहज महसूस करेंगे तो कांग्रेस के जो लोग सहजता से राजद में शामिल होना चाहेंगे, उन्हें ले भी सकते हैं. यह तमाम डर कांग्रेस की नजर में है. वजह यह भी है कि कांग्रेस दिल्ली से लेकर पटना तक अपने नेताओं के लिए गोलबंदी शुरू कर चुकी है.
बहरहाल 10 नवंबर को आने वाले परिणाम से ही साबित होगा कि एग्जिट पोल एक्जैक्ट पोल में बदला या नहीं और अगर बदलता है तो फिर बदलाव के लिए परिपाटी भी बदलनी होगी. फिलहाल कांग्रेस के लिए यह बड़ी चुनौती है कि तीन दशकोंं बाद एक्जिट पोल में सही जिस, आंकड़े को कांग्रेस के जीत वाले कॉलम के सामने रखा जा रहा है, वह कांग्रेस के फिर से वापसी का एक आधार तो कहा ही जा सकता है.