नई दिल्ली : देश के प्रमुख केंद्रीय ट्रेड यूनियन 28 और 29 मार्च को देशव्यापी हड़ताल की तैयारी में जुटे हैं. इसी क्रम में सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन्स की अलग अलग इकाइयां भी सक्रिय हो चुकी हैं. मंगलवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर देश के अलग-अलग राज्यों से आंगनबाड़ी, आशा और मिड डे मील जैसी केंद्र सरकार के योजनाओं में काम कर रही महिला कर्मचारियों ने विरोध प्रदर्शन किया.
प्रदर्शन में सबसे ज्यादा संख्या हरियाणा की महिला वर्कर्स की थी. इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि राज्य में पहले से ही आंगनबाड़ी सेविकाओं का आंदोलन बीते कई महीनों से चल रहा है. प्रदर्शन में शामिल यूनियनों की मांग है कि इन योजनाओं को स्थाई बना कर उनकी नौकरी को नियमित किया जाए. इसके तहत उन्हें समाजिक सुरक्षा भी मिल सकेगी. कर्मियों की मांग है कि उनका न्यूनतम वेतन 26000 रुपये प्रति महीने और पेंशन 10000 रुपये प्रति महीने की जानी चाहिए.
जंतर-मंतर पर सैकड़ों की संख्या में जुटी महिला कर्मियों ने पहले संसद भवन तक मार्च करने का एलान किया था लेकिन सुरक्षा व्यवस्था के कारण इन्हें अनुमति नहीं दी गई. उन्हें जंतर-मंतर पर ही प्रदर्शन करने दिया गया. संसद में बजट सत्र का दूसरा भाग चल रहा है ऐसे में ये कर्मी सीधे संसद भवन के पास पहुंच कर अपनी आवाज बुलंद करना चाहते थे.
प्रदर्शन में शामिल आशा वर्कर्स यूनियन की राज्य अध्यक्ष सुलेखा बताती हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित योजनाओं को जमीन पर उतारने में आशा वर्कर्स की अहम भूमिका होती है. कोरोना काल में जब जरूरत पड़ी तो इन्हीं आशा वर्कर्स ने देश भर की आबादी का सर्वे केवल एक सप्ताह में कर दिखाया. इनके योगदान को सभी ने माना भी लेकिन जब इस वर्ष का बजट आया तो आशा वर्कर्स या अन्य योजना कर्मियों के वेतन में बढ़ोतरी की कोई बात नहीं हुई और न ही स्वास्थ्य विभाग के बजट को ही उस मुताबिक बढ़ाया गया है.
सुलेखा कहती हैं कि बीते दो वर्षों में कोरोना जैसी भयंकर महामारी से जूझने के बाद यह सबने महसूस किया कि स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार होना जरूरी है. इसके लिए स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े कर्मियों को उचित वेतन और समाजिक सुरक्षा मिलना भी उतना ही जरूरी है. आशा वर्कर्स के कुछ इन्सेंटीव जो वर्ष 2005 में तय हुए उनमें आज तक कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है. इसी तरह 2012 में भी कुछ इन्सेंटीव तय हुए जिसमें कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. केवल आठ ऐसी ऐक्टिविटी इस क्षेत्र में शामिल हैं जिसमें मोदी सरकार द्वारा 2018 में बढ़ोतरी की गई लेकिन कई राज्यों की सरकार ने उस बढ़ोतरी को भी अब तक लागू नहीं किया है. जिसके लिए संघर्ष पहले ही चल रहा है.
कर्मियों का कहना है कि बढ़ती महंगाई की तुलना में उन्हें दी जाने वाली प्रोत्साहन राशि कम है और इसमें उनके लिए गुजारा मुश्किल होता है. लिहाजा सरकार को उनकी समस्याएं समझनी चाहिए और मेहनताना बढ़ाना चाहिए.
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