लखनऊ : अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच (Allahabad HC Lucknow Bench) ने कहा कि इसमें में कोई संदेह नहीं कि 'दहेज देना या उसे बढ़ावा देना' दहेज प्रतिषेध अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध है. लेकिन, 'दहेज देने' के कथन के बावजूद ऐसे मामले के पीड़ित पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. न्यायालय ने आगे कहा कि यही अधिनियम पीड़ित व्यक्ति को यह सुरक्षा भी देता है कि उसके किसी कथन के लिए उस पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.
यह निर्णय न्यायमूर्ति सरोज यादव की एकल पीठ ने राम चरित्र तिवारी व अन्य की याचिका पर पारित किया. याचियों ने अपने खिलाफ दहेज प्रतिषेध अधिनियम के तहत दाखिल आरोप-पत्र और एसीजेएम, प्रतापगढ़ की ओर से जारी समन को निरस्त किए जाने की मांग की थी. याचियों की ओर से दलील दी गई कि मामले में वादी ने आरोप लगाया है कि उसने याचियों को नकद धनराशि दहेज के तौर पर दी थी. जबकि दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 3 के तहत दहेज लेना व देना दोनों ही अपराध है. ऐसे में वादी के खिलाफ भी अभियोग चलाया जाना चाहिए. दलील दी गयी कि वादी के खिलाफ मामले में अभियोग न चलाकर सिर्फ याचियों को समन जारी करना विधि सम्मत नहीं है.
न्यायालय ने मामले की विस्तृत सुनवाई के पश्चात याचिका को खारिज करते हुए अपने निर्णय में दिल्ली हाईकोर्ट के एक निर्णय को उद्धृत किया. जिसमें कहा गया है कि उक्त अधिनियम की धारा 7(3) पीड़ित को यह सुरक्षा देती है कि उसके द्वारा दिये गये किसी कथन के लिए उसके खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. इस मामले में पीड़ित ने भले ही कहा हो कि उसने याचियों को दहेज दिया था, लेकिन उसके खिलाफ अभियोग नहीं चलाया जा सकता क्योंकि उसे धारा 7(3) के तहत सुरक्षा प्राप्त है.
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